
साल 2012 में 7 दिसंबर को साठोत्तरी पीढ़ी के प्रमुख कहानीकार कामतानाथ का निधन हो गया था. वह लीवर के कैंसर से पीड़ित थे, पर जाने से पहले इतना कुछ रच गए थे कि हिंदी साहित्य की दुनिया उन्हें आज भी बेहद इज्जत के साथ याद करती है.
कामतानाथ के तब तक लगभग छह उपन्यास और ग्यारह कहानी - संग्रह प्रकाशित हो चुके थे. यही नहीं उन्हें ' पहल सम्मान ', मध्य प्रदेश साहित्य परिषद का ' मुक्तिबोध पुरस्कार ', उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ' यशपाल पुरस्कार ', ' साहित्य भूषण ' तथा ' महात्मा गांधी सम्मान ' प्राप्त हो चुका था. आलम यह था कि कामतानाथ की कहानियों के ‘कथा-रस’ का जादू पाठकों के सिर चढ़कर बोलता था. वह आमजीवन के कथानकों के साथ ही मंच के लेखक भी थे. उनके रचना-कौशल की खूबी यह थी कि उनकी कहानियां बतरस का मजा देने के साथ ही उद्धेलित भी करती थीं. वह प्रेमचंद की परंपरा को अपने ढंग से रख रहे थे, जिसमें सामाजिक सरोकार और जीवन का नवोन्मेष भी था.
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कामतानाथ बेहद सादगी भरे मगर असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी थे. यह जानना कम मजेदार नहीं कि कामतानाथ ने एक सरकारी कर्मचारी, एक लेखक और एक एक्टर की तरह अपनी अलग-अलग छाप छोड़ी. उनके जीवन की ही तरह उनके वैविध्यपूर्ण रचना-संसार को भी मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बांट कर देखा जा सकता है. पहले में ऐसी कहानियां हैं, जिनमें मानवीय संबंध और पारिवारिक रिश्ते प्रमुखता से दिखते हैं. दूसरे की शुरूआत तो परिवार से होती है, लेकिन इसके दायरे में समाज भी आ जाता है, और तीसरा सीधे-सीधे सार्वजिनक जीवन से संबंधित है. किसी समस्या या समाज का वह चेहरा, जिसे हम देखने से कतराते हैं, या देखकर भी अनदेखा कर देते हैं. सहजता कामतानाथ की कहानियों का ऐसा गुण है, जो उन्हें बेहद पठनीय बनाता है.
कामतानाथ की पहली कहानी ‘मेहमान’ थी. यह साल 1961 में छपी, पर उन्हें ख्याति मिली ‘लाशें’ नामक कहानी से. यह साठवें दशक के अंत में कमलेश्वर के संपादन में छप रही ‘नयी धारा’ में प्रकाशित हुई थी. संपादक थे. कामतानाथ ने अपनी मार्क्सवादी दृष्टि का उपयोग यथार्थ के अंतर्विरोधों को समझकर किया और बेहद उम्दा कहानियां लिखीं. वह ऐसे दौर में कथाजगत में आए थे, जब ‘नई कहानी’, ‘कथा आंदोलन’, ‘ग्राम्य-जीवन’ और ‘सचेतन’ कहानी की जगह शहर, कस्बे के मध्यवर्ग से जुड़े उन पात्रों ने ले ली थी, जिनके लिए ईर्ष्या, सेक्स, कुंठा, संत्रास, अकेलापन, बदला, अजनबीपन और सफलता के किस्से ही सबकुछ थे.
कामतानाथ इन प्रभावों से दूर रहे. उन्होंने छुआ तो इसी वर्ग को, पर अपने ढंग से. मध्यवर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि और ट्रेड यूनियन में सक्रिय भागीदारी के कारण उनके पास यथार्थ का व्यापक और गहरा अनुभव था. अपनी जनोन्मुखी मानवीय दृष्टि के सहारे उन्होंने कहानी को अपने पात्रों के सहारे चलने दिया और उस दौर में कथित तौर पर प्रचलित मान्यताओं को तोड़ा. उनकी ‘लाशें’ नामक कहानी को ही लें, तो वस्तुतः यह विकृत सेक्स मानसिकता की आलोचना करने वाली कहानी है.
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1968 में ‘छुट्टियां’ नामक उनकी कहानी टूटते हुए मध्यवर्गीय परिवार की महागाथा थी. इसने उन्हें ऐसी पहचान दी कि 70 के दशक में जब समांतर आंदोलन प्रारंभ हुआ, तो कामतानाथ उसके प्रमुख कहानीकार के रूप में स्थापित हुए. इसी दौरान उनकी ‘अंत्येष्टि’, ‘पूर्वार्ध’, ‘तीसरी सांस’ जैसी चर्चित कहानियां आईं. आलम यह था कि उनकी चर्चित कहानी ‘संक्रमण’ का 600 से भी अधिक बार नाट्य मंचन हुआ. उन्होंने नाटक भी लिखे और अनुवाद भी किया. ‘कल्पतरु’ और ‘दाखिला डाट काम’ उनके चर्चित नाटक हैं, तो अपने लिखे ‘फूलन देवी’ नामक नाटक में उनकी ऐक्टिंग को भी याद किया जाता है.
कामतानाथ ने अंग्रेजी में हेनरिक इब्सन के लिखे नाटक ‘घोस्ट’ का अनुवाद किया, जिसका मंचन चर्चित रंगकर्मी सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ ने किया था. उन्होंने ब्रेख्त के नाटकों और फ्रांसीसी मोनोलाग का हिन्दी अनुवाद भी किया. गाइ द मोपांसा की कहानियों पर आधारित एक नाटक 'औरतें' नाम से लिखा. अंतिम दिनों में भी वह 'बल कथा' नामक उपन्यास लिख रहे थे. उन्होंने सशक्त व्यंग्य भी लिखे थे. कामतानाथ की कालजयी रचना ‘काल-कथा’ थी, पर उनके ‘समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की’, ‘सुबह होने तक’, ‘एक और हिन्दुस्तान’, ‘पिघलेगी बर्फ’ तथा ‘तुम्हारे नाम’ जैसे उपन्यास भी खूब पढ़े गए.
22 सितंबर, 1934 को जन्मे कामतानाथ रिजर्व बैंक से सेवानिवृत्त हुए थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन एक प्रतिबध्द लेखक के रूप में साहित्य को समर्पित कर दिया था. उनकी कहानियां जनपक्षधरता, हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमुनी तहजीब और गहन सामाजिक संवेदनशीलता से सराबोर होती थीं. उन्होंने न केवल मजदूर जीवन पर यादगार कहानियां लिखीं बल्कि अनेकों बार प्रतिबध्द भाव से उनके जीवन और आंदोलनों में शरीक भी हुए. रिजर्व बैंक मे अपनी सेवा के दौरान वे एक मात्र व्यक्ति थे, जिनकी पहचान कामरेड के रूप में थी. वह एक बड़ी लोकप्रियता हासिल कर चुके थे और मजदूरों के बीच गहरी विश्वसनीयता के प्रतीक बन चुके थे. उन्होंने एक उम्दा लेखक, मजदूर नेता, थिएटर एक्टर और यारों के यार के रूप में भी अपनी पहचान आखिरी वक्त तक बरकरार रखी थी. जाहिर है ऐसे लोग लंबे समय तक याद किए जाते हैं.