अभी तो हम भूमि अधिग्रहण बिल की फांस से ही बाहर नहीं निकल पा रहे तो आधार के बारे में न्न्या सोचें?'' एक केंद्रीय मंत्री की यह टिप्पणी नीतिगत मामलों को लेकर जितनी नरेंद्र मोदी सरकार का असमंजस दिखाती है, उससे कहीं ज्यादा भ्रम की स्थिति आधार परियोजना को लेकर है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कड़े शब्दों में सरकार से पूछा कि जब आधार अनिवार्य नहीं है तो मांगते न्न्यों हो? कोर्ट ने सरकार को चेतावनी दी कि 23 सितंबर, 2013 के आदेश का पालन किया जाए, जिसमें कहा गया था कि आधार कार्ड नहीं होने की वजह से किसी भी व्यक्ति को लाभ की योजनाओं से वंचित नहीं किया जा सकता. ऐसे में अब सरकार की मुश्किल है कि वह अपनी नकद हस्तांतरण स्कीम को आगे बढ़ाए तो कैसे बढ़ाए.
दरअसल विपक्ष में रहते हुए बीजेपी ने आधार परियोजना पर न सिर्फ सवाल उठाए थे, बल्कि बीजेपी की रहनुमाई वाली वित्त मामलों की संसद की स्थायी समिति ने श्द अथॉरिटी ऑफ इंडिया बिल- 201'' को निजता में दखल और सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करार देते हुए खारिज कर दिया था. अब बीजेपी खुद सत्ता में है और उसने आधार को अपना ड्रीम प्रोजेक्ट बना लिया है. लेकिन मोदी सरकार फौरन बिल लाकर आधार परियोजना की संस्था यूआइडीएआइ को वैधानिक दर्जा देने से परहेज कर रही है. वैसे इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए सरकार थोड़ी चालाकी के मूड में थी. पहले जन-धन योजना के तहत बैंक खाते खुलवाए और दूसरी तरफ आधार कार्ड के पंजीकरण की प्रक्रिया तेज करवा दी. उसके बाद सरकार ने शुरुआती पांच महीनों में ही आधा दर्जन योजनाओं को आधार से जोड़ दिया. हालांकि इसे अनिवार्य बनाने से सरकार ने परहेज किया. लेकिन योजनाओं से जोड़कर लोगों को आधार कार्ड बनवाने के लिए मजबूर करना शुरू कर दिया. दिल्ली जैसी कुछ राज्य सरकारों ने लाभ की योजनाओं से इतर शादी के पंजीकरण, राशन कार्ड और संपत्तियों की खरीद-बिक्री आदि के लिए इसे अनिवार्य भी कर दिया, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी आपत्ति जाहिर की.
क्यों बना हुआ है भ्रम
यूआइडीएआइ के वरिष्ठ अधिकारियों का मानना है कि आधार को लेकर फैला भ्रम ही इस योजना की सबसे खराब स्थिति है. सामान्य तौर पर इस तरह का काम गृह मंत्रालय के अधीन आता है, लेकिन जब 13 अगस्त, 2009 को प्राधिकरण ने पहला दस्तावेज जारी किया तो उसमें आधार को वैकल्पिक बताया क्योंकि तब नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) की भी बात थी, जो फिलहाल ठप है. आधार के पीछे मकसद था सर्विस डिलिवरी को दुरुस्त कर जरूरतमंदों तक पहुंचाने में मदद करना. इसके लिए 2010 में सरकार संसद में बिल लेकर आई, लेकिन तब विपक्ष में रहते हुए बीजेपी ने इसका विरोध किया. उस वक्त आधार से जुड़े कुछ पूर्व अधिकारी कहते हैं कि स्थायी समिति को प्रोजेक्ट के गुण-दोष पर विचार करना था, लेकिन समिति राह भटक गई और बिल खारिज कर दिया. हालांकि मनमोहन कैबिनेट ने समिति की सिफारिशों को नहीं माना. अब यह बिल नई सरकार के पास है.
यूपीए सरकार की तरह ही एनडीए सरकार ने भी इस योजना में हड़बड़ी दिखाई. केंद्रीय पेट्रोलियम राज्यमंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने रसोई गैस सब्सिडी को सीधे बैंक खाते में हस्तांतरित करने की योजना को 15 नवंबर, 2014 को उन्हीं 52 जिलों में इसे लागू कर दिया, जिनमें यूपीए सरकार ने किया था. उसके बाद जनवरी, 2015 से इसे देश भर में लागू किया गया. जबकि आधार कार्ड पूरे देश में जारी नहीं हो पाया है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूआइडीएआइ को जून, 2015 तक का लक्ष्य दिया था. लेकिन यूआइडीएआइ का मानना है कि किसी भी हालत में यह काम मार्च 2016 से पहले पूरा करना संभव नहीं है.
लेकिन यहां सरकार ने चतुराई की और बैंक खाते को अनिवार्य किया और आधार बनवाने के लिए लोगों को जागरूक करने के नाम पर दबाव डाला जाने लगा जिससे कई गैस एजेंसियों पर लोगों का गुस्सा भी फूटता दिखा. भ्रम की बड़ी वजह है कि सरकार प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण (डीबीटी) में कितनी योजनाओं को शामिल करना है, उसको लेकर स्पष्ट नहीं है. इसलिए कहीं शादी के पंजीकरण तो कहीं जमीन की खरीद-बिक्री तो कहीं राशन कार्ड को लेकर आधार अनिवार्य होने लगा. जबकि सरकार चाहती तो पहले देश भर में आधार बनाने का अभियान पूरा करती और फिर इन योजनाओं को आगे बढ़ाती. अब मतदाता पहचान पत्र में भी आधार को अनिवार्य किया जा रहा है. हालांकि अभी चुनाव आयोग पहचान पत्र धारकों से ही आधार मांगने की बात कर रहा है. हालांकि डीबीटी के मिशन डायरेक्टर डी.के. मित्तल इंडिया टुडे से कहते हैं, ''कोर्ट ने कोई नया आदेश नहीं दिया है और पुराने आदेश का अनुपालन होगा. लेकिन हम लोगों को आधार बनवाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं.''
क्या है केंद्र की रणनीति
केंद्र सरकार आधार परियोजना को लेकर तब तक संसद में बिल लाकर प्राधिकरण को कानूनी जामा पहनाने के मूड में नहीं है, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट उसे ऐसा करने के लिए मजबूर न करे. लेकिन वह फिलहाल मौजूदा स्थिति को बहाल रखना चाहती है. पेट्रोलियम मंत्री सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश पर टिप्पणी करने से बचते दिखे. लेकिन उन्होंने कुछ समय पहले इंडिया टुडे से कहा था, ''पहले हम देश की सारी आबादी का डिजिटल मैपिंग कर लें और फिर संवैधानिक मान्यता देने की जरुरत पड़ी तो उसे देखेंगे.'' सरकार का यही बेपरवाह रवैया आधार को लेकर भ्रम पैदा करता है. मंत्रालय के अधिकारियों की दलील है कि जिस तरह राशन लेने के लिए राशन कार्ड जरूरी है, विदेश जाने के लिए पासपोर्ट जरूरी है, उसी तरह जिसे भी एलपीजी या अन्य स्कीम के तहत लाभ चाहिए, उसे आधार बनवाना होगा. मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक, आधार की अनिवार्यता के लिए नहीं, बल्कि यूआइडीएआइ को स्वायत्तता देने और अन्य सुविधाओं के लिहाज से कानून बनाने की जरूरत है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के सामने जब जुलाई में सरकार को अपना पक्ष रखने का मौका मिलेगा तो आधार की वजह से होने वाले फायदे और लीकेज को रोकने में मिली कामयाबी को वह तथ्यों के साथ दलीलों के रूप में रखेगी. इसमें अकेले पेट्रोलियम मंत्रालय का आंकड़ा है कि 10 से 12 लाख लोग ऐसे थे जो गैस सब्सिडी का दोहरा लाभ लेते थे, लेकिन आधार के यूनिक नंबर और बैंक खाता से जोडऩे के बाद उन्हें आइएफएससी कोड के जरिए पकड़ा गया. डी.के. मित्तल तो आधार की पैरवी करते हुए स्पष्ट कहते हैं, ''आधार लाभकारी योजना है. हर सरकार को अधिकार है कि योजना के लाभ के लिए अपने नागरिकों की पहचान करे. यह काम 1947 में ही कर लेना चाहिए था. लेकिन हम अब कर रहे हैं.'' उनकी दलीलों से साफ है कि सरकार आधार पर पीछे नहीं हटेगी. लेकिन उसकी मुश्किल राजनैतिक है क्योंकि मोदी सरकार यह नहीं दिखाना चाहती कि विपक्ष में रहते हुए बीजेपी ने जिस आधार परियोजना पर सवाल उठाए थे, संख्या में आने के बाद वह उसी पर आगे बढ़ रही है.