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कांग्रेस से समझौता नहीं, समझदारी करेंगे अखिलेश

राहुल की किसान यात्रा देख ली. अखिलेश का विजय रथ भी देख रहे हैं. अमित शाह की परिवर्तन रैलियां सबके सामने हैं. बहनजी की रैली और प्रेस कान्फ्रेंस से भी आए दिन रूबरू हो रहे हैं. लेकिन यह सब देखकर भी यह नहीं सूझता कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव जा किस तरफ रहा है. न पिछले चुनावों के आंकड़े ही कुछ सुझा रहे हैं और न ही बड़बोले नेताओं के बयान ही पार उतारते हैं. कोई सिरा हाथ में न आने के बावजूद चुनाव से पहले कई-कई बार चुनाव का परिणाम जान लेने की बेसब्री सब में है. तो जिज्ञासा का समाधान कैसे हो?

यूपी चुनाव 2017 यूपी चुनाव 2017
पीयूष बबेले
  • नई दिल्ली,
  • 08 नवंबर 2016,
  • अपडेटेड 11:53 AM IST

राहुल की किसान यात्रा देख ली. अखिलेश का विजय रथ भी देख रहे हैं. अमित शाह की परिवर्तन रैलियां सबके सामने हैं. बहनजी की रैली और प्रेस कान्फ्रेंस से भी आए दिन रूबरू हो रहे हैं. लेकिन यह सब देखकर भी यह नहीं सूझता कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव जा किस तरफ रहा है. न पिछले चुनावों के आंकड़े ही कुछ सुझा रहे हैं और न ही बड़बोले नेताओं के बयान ही पार उतारते हैं. कोई सिरा हाथ में न आने के बावजूद चुनाव से पहले कई-कई बार चुनाव का परिणाम जान लेने की बेसब्री सब में है. तो जिज्ञासा का समाधान कैसे हो?

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2007 में सपा के खिलाफ माहौल
ऐसे में पारंपरिक चुनाव विश्लेषण छोड़कर कुछ नया करते हैं. जैसे याद करिए कि 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले यह बात साफ हो गई थी, कि लोग अब मुलायम सिंह को वापस देखना नहीं चाहते हैं. बीजेपी छिन्न-भिन्न थी. मायावती की पुरानी साख और तेवर लोगों के जेहन में थे. साथ में दलित-ब्राह्मण वाला नया समीकरण भी था. चुनाव आते-आते लोग कहने लगे कि बहन जी आएंगी. और वह वाकई आ गईं.

2012 में हल्ला हो गया बहनजी गईं
2012 का चुनाव आते-आते, यह बात जोरों पर आ गई कि बहनजी का रिपीट होना मुश्किल है. जमीन अधिग्रहण, घोटाले और हाईप्रोफाइल हत्याओं ने लोगों को झकझोर दिया. युवा अखिलेश के नाम की चर्चा चल पड़ी. वे इकलौते विकल्प के तौर पर दिखे और कुर्सी पर बैठ गए.

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2014 में मोदी, मोदी, मोदी
2014 का लोकसभा चुनाव आया तो किसी और नाम या काम की चर्चा नहीं हुई. चुनाव में सिर्फ मोदी ही मोदी थे. हाल यह था कि सवाल पूछने वाला और जवाब देने वाला, संवाद शुरू होने से पहले ही जानते कि वे मोदी के नाम पर चर्चा करने वाले हैं. यह सब कुछ ऐसे ऊंचे सुर में हो रहा था कि यूपी में मोदी के नाम पर बीजेपी ने क्लीन स्वीप कर दिया.

बीजेपी के साथ ओबीसी
लेकिन इस बार चर्चा में किसका का नाम है. अब तक सड़क पर यह नहीं सुना कि अखिलेश जा रहे हैं. बीजेपी की चर्चा है, लेकिन वहां से किसी का नाम नहीं है, जैसा कि 2014 लोकसभा चुनाव में था. बीजेपी कमजोर कतई नहीं है, लेकिन वह 2014 के लोकसभा चुनाव की छाया तक नहीं दिख रही है. बीजेपी अब तक वहां पहुंची है, जहां ब्राहमण, बनिया के अलावा गैर यादव ओबीसी जातियां उसके साथ खड़ी दिख रही हैं. लेकिन इस तस्वीर में भी शहर और गांव में फर्क है. गांव से बीजेपी का संवाद कुंद हुआ है. लेकिन मौर्य-कुशवाहा और पाल जैसी पिछड़ी जातियां पहले के किसी भी समय की तुलना में बीजेपी के ज्यादा करीब नजर आ रही हैं. बीजेपी का समीकरण संतुलित है.

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बीएसपी का दलित- ब्राह्मण कार्ड फ्लॉप
बहुजन समाज पार्टी का पुराना दलित-ब्राह्मण फॉर्मूला कहने को उछाला जा रहा है, लेकिन इसका कोई खरीदार नजर नहीं आता. बीएसपी मुसलमानों को अपने साथ लाने के लिए पूरी ताकत से लगी है, लेकिन वे कितने भी छूटें, सपा से बड़ी संख्या में अलग नहीं हो सकते. बीएसपी के पास कोर दलित वोट है, लेकिन मौर्या और पाल समुदाय भी उसका संस्थापक वोटर रहा है, जो आज उससे दूर है. ब्राह्मण उससे सध नहीं रहा है. मायावती 2012 और 2014 से बेहतर हुई हैं, लेकिन सत्ता से अब भी दूर हैं.

अखिलेश के अलावा किसका नाम
अब वापस लौटते हैं सपा पर. तो सपा की सबसे बड़ी ताकत यह है कि मुख्यमंत्री के तौर पर न सिर्फ अखिलेश के नाम की चर्चा है, बल्कि ऐसा पहली बार हो रहा है जब देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता में रहते हुए, उनके विकास कामों की चर्चा हो रही है. हाल में हुए पारिवारिक कलह ने शुरू में उनकी साख पर बट्टा लगाया. लेकिन यह लड़ाई इतनी देर तक टीवी पर देखी गई कि लोगों को अंतत: अखिलेश सही लगने लगे. बल्कि कुछ हद तक सहानुभूति भी पा गए. यह सहानुभूति कुछ-कुछ वैसी ही है जैसी 2013 में आडवाणी बनाम मोदी की लड़ाई में मोदी को मिली थी. इस लड़ाई में विजय ने मोदी को सहानुभूति के साथ ही पार्टी पर एकछत्र राज भी दिया था. इस लड़ाई ने जनता के बीच जाने के लिए मोदी को टेंपो भी दिया था. अत्याधुनिक प्रचार के युग में अगर मोदी इन हालात को अपने पक्ष में मोड़ सकते हैं तो अखिलेश ऐसा क्यों नहीं कर सकते? पार्टी में दो महीने चले घमासान के बाद अखिलेश कुछ ऐसी मुद्रा में सामने हैं, जैसे बड़ी लड़ाई फतह करके लौटा राजकुमार और बड़ी लड़ाई में उतरने जा रहा हो. इस माहौल के अलावा अखिलेश मुफ्त सौगात बांटने की योजनाएं भी सामने लेकर खड़े हैं.

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कांग्रेस से अंडरस्टेंडिग कर सकती है कमाल
लड़ाई वहां पहुंची दिख रही है जहां अखिलेश के पास नाम और माहौल है, तो बीजेपी के पास जातीय समीकरण हैं. बीएसपी के पास अगर कुछ है तो सबको चौंका देने की क्षमता ही है. ऐसे में कुछ घटकर और कुछ बढक़र तीनों पार्टियां बराबरी पर हैं. हां, इसमें समाजवादी पार्टी के पास अखिलेश के नाम की बढ़त जरूर है. और कहीं उन्होंने अजित सिंह से गठबंधन कर लिया और कुछ 50 से 70 सीटों पर कांग्रेस के साथ गठबंधन के बजाय पश्चिम बंगाल की तर्ज वाली अंडर स्टेंडिंग कर ली तो उनके माहौल को समीकरणों का भी सहारा मिल जाएगा.

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