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हमेशा लोकसभा या विधानसभा की कुछ सीटें ऐसी होती हैं, जो जनता का मिजाज बयान करती हैं. पश्चिमी यूपी की मुजफ्फरनगर और देवबंद विधानसभा सीटें मुस्लिम सियासत का गढ़ मानी जाती हैं. 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को मुसलमानों का एकतरफा समर्थन मिला था. तब देवबंद में राजेंद्र राणा और मुजफ्फरनगर में चितरंजन स्वरूप ने भारी जीत दर्ज कर सपा का परचम लहरा दिया था. मुसलमानों का आभार जताने के लिए सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने इन दोनों नेताओं को मंत्री की कुर्सी दी. लेकिन चार वर्ष में हालात कैसे बदल गए हैं, ये विधानसभा सीटें उसका साफ मुजाहिरा कर रही हैं.
राणा और स्वरूप की असामयिक मृत्यु के बाद फरवरी में देवबंद और मुजफ्फरनगर विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए. सपा ने जनता की सहानुभूति को 'कैश' कराने के लिए राणा की पत्नी मीना राणा को देवबंद से और स्वरूप के बेटे गौरव स्वरूप को मुजफ्फरनगर से चुनाव मैदान में उतारा. लेकिन 16 फरवरी को जब उपचुनाव के नतीजे आए तो तस्वीर कुछ बदली नजर आई. सपा ये दोनों विधानसभा सीटें दोबारा नहीं जीत सकी. इस हार ने यह बता दिया कि मुसलमानों के बीच सपा की पकड़ ढीली हो चुकी है.
2017 के चुनाव से पहले मुसलमान बहुल सीटों पर मिली हार ने मुलायम सिंह यादव की चुनौती को और बढ़ा दिया. यह चुनौती कई मोर्चों से भी मिल रही है. बीएसपी ने सपा समर्थक मुसलमान वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है. 'आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लेमीन' (एआइएमआइएम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद असदुद्दीन ओवैसी की यूपी में चुनावी दस्तक ने भी सपा के कान खड़े कर दिए हैं.
इन बदले हालात में मुलायम सिंह के सामने 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के लिए मुसलमान वोटों पर चुनाव जिताऊ समीकरण तैयार कर पाने की बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई है. मुसलमान बहुल सीटों पर उपचुनाव में मिली हार के फौरन बाद मुलायम सिंह ने 2012 के चुनाव में हारी हुई सीटों पर सपा उम्मीदवार घोषित करने की कवायद शुरू कर दी. 25 मार्च को मुलायम के छोटे भाई और कैबिनेट मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने 142 उम्मीदवारों की सूची जारी कर विधानसभा चुनाव की जंग का आगाज कर दिया. इस सूची में सबसे ज्यादा 28 मुसलमान उम्मीदवारों को जगह देकर मुलायम सिंह ने अपना चिरपरिचित दांव खेल दिया है.
अखिलेश-मुलायम जुगलबंदी
2017 के विधानसभा चुनाव में विपक्षी पार्टियों की काट के लिए मुलायम कुछ वैसा ही ताना-बाना बुन रहे हैं, जैसा बीजेपी नेता अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने पिछले लोकसभा चुनाव में बुना था. शाह के हिंदुत्व और मोदी के विकास एजेंडे की जुगलबंदी ने बीजेपी को भारी जीत दिलाई थी. लिहाजा, अगले विधानसभा चुनाव में अखिलेश-मुलायम की जोड़ी विकास एजेंडा और मुसलमान-यादव मतदाताओं को एक साथ साधेगी.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव वोट बैंक की राजनीति से दूर रहते हुए खुद को विकास पुरुष के रूप में पेश कर रहे हैं. वे अपने भाषणों में मुसलमानों या किसी अन्य जाति का अलग से कोई उल्लेख नहीं करते. पिछले दिनों जिला पंचायत अध्यक्ष और एमएलसी चुनाव में दो दर्जन युवाओं को टिकट दिया गया, जिसमें एक भी मुसलमान नहीं था. वहीं दूसरी ओर सपा सरकार के चार वर्ष पूरे होने के मौके पर जारी किताब में भी सिर्फ अखिलेश यादव की विकास योजनाओं का बखान किया गया है. मुसलमानों का जिक्र केवल अल्पसंख्यक विभाग की योजनाओं में ही आया है. वहीं दूसरी ओर मुलायम सिंह यादव सपा के कोर वोट बैंक मुसलमान और यादव पर पूरा ध्यान केंद्रित कर रहे हैं.
बावजूद इसके यह जुगलबंदी अधिकारियों से अपेक्षित काम नहीं ले पाई है. 22 मार्च को आजमगढ़ में एक रैली में मुलायम का यह दर्द उभर ही आया. वे बोले, ''अखिलेश मुख्यमंत्री हैं, इसलिए वे आइएएस अधिकारियों से क्रिकेट मैच जीत जाते हैं. जबकि उन्हें अधिकारियों पर लगाम लगाकर काम कराना चाहिए. कुछ अधिकारी ऐसे हैं, जो मेरी बातों की अनदेखी कर मुख्यमंत्री से पूछने चले जाते हैं.''
पश्चिम पर फोकस
अगले विधानसभा चुनाव में पिछला प्रदर्शन दोहराने की आस में सपा ने दंगा पीड़ित पश्चिम यूपी पर फोकस किया है. हारी हुई सीटों पर घोषित सपा उम्मीदवारों की सूची में पार्टी की इस रणनीति की झलक साफ दिखाई देती है. पार्टी ने बिजनौर की चार हारी हुई सामान्य सीटों पर मुसलमान उम्मीदवार उतारे हैं. इसी प्रकार बुलंदशहर की तीन सीटों पर भी मुसलमान उम्मीदवारों पर दांव लगाया गया है. सपा ने अपनी पहली सूची में कुल 28 मुसलमान उम्मीदवारों को जगह दी है. उनमें से 18 पश्चिमी यूपी से हैं. मेरठ कॉलेज के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. मनोज सिवाच कहते है, ''लोकसभा चुनाव के बाद पश्चिमी यूपी में बीएसपी की सक्रियता ने मुसलमान मतदाताओं का सपा से मोहभंग किया है. विधानसभा उपचुनाव के नतीजे इसकी तस्दीक करते हैं. मुसलमानों के बदले रुख से सकते में आई सपा अब डैमेज कंट्रोल में जुटी है.''
मुलायम अपने आवास पर मुस्लिम धर्मगुरुओं और नेताओं के साथ बैठकें कर रहे हैं. नाम न छापने की शर्त पर दारुल उलूम देवबंद से जुड़े एक शिक्षक बताते हैं, ''मुलायम कुछ ऐसे मुसलमान नेताओं से घिर गए हैं, जिनका अपने इलाके में कोई जनाधार नहीं हैं. यही कारण है कि मुसलमानों की असल समस्याएं उन तक नहीं पहुंच पा रही हैं.''
मूड भांपने में नाकाम
फरवरी में हुए विधानसभा उपचुनाव में सपा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मुसलमान बहुल सीटों का मिजाज नहीं भांप पाई. स्थानीय प्राधिकारी निर्वाचन क्षेत्र से विधान परिषद सदस्य (एमएलसी) की खाली 36 सीटों के चुनाव में सपा के गढ़ पूर्वी यूपी से आए नतीजे उत्साहवर्धक संकेत नहीं दे रहे. 6 मार्च को आए चुनाव नतीजों में सपा ने भले ही 30 सीटों पर कब्जा जमा लिया हो, लेकिन खांटी पूर्वांचल के जिलों को समाहित करने वाली सीटें गोरखपुर-महाराजगंज, वाराणसी-चंदौली, गाजीपुर और जौनपुर सीट पर मिली हार ने रंग में भंग कर दिया है. जौनपुर में सपा के सात एमएलए हैं. मुलायम सिंह के करीबी होने का दावा करने वाले पारसनाथ यादव कैबिनेट मंत्री हैं. लेकिन सपा इस जिले में पारसनाथ यादव के खिलाफ बने माहौल को भांप न सकी और खमियाजा हार के रूप में चुकाना पड़ा.
पश्चिम की मुसलमान बहुल सीटों पर उपचुनाव हारने के बाद भी सपा एमएलसी चुनाव में सबक न ले सकी. मुसलमान मतदाताओं के लिहाज से संवेदनशील मुजफ्फरनगर-सहारनपुर एमएलसी सीट पर सपा मुकाबले में कहीं दिखाई ही नहीं पड़ी. बढ़ते असंतोष को शांत करने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 12 फरवरी को पेश बजट में पहली बार पूर्वांचल के लिए एक साथ कई बड़ी योजनाएं शुरू करने की घोषणा की. इसमें 1,500 करोड़ रु. से बनने वाला समाजवादी पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे तो है ही, साथ में बलिया में विश्वविद्यालय, मिर्जापुर में इंजीनियरिंग कॉलेज, चंदौली में मेडिकल कॉलेज जैसी योजनाओं का खाका तैयार किया गया है.
2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने स्वर्णिम प्रदर्शन करते हुए बहुमत हासिल किया था. इसमें पहली बार सपा के सर्वाधिक मुसलमान, यादव और दलित उम्मीदवार विजयी हुए थे. अगले चुनाव में इस प्रदर्शन के करीब पहुंचने के लिए मुलायम सिंह यादव ने मुसलमान-ठाकुर-यादव (एमटीवाइ) की सोशल इंजीनिरिंग शुरू की है. पहले लोकायुक्त के पद पर अपने पसंदीदा यादव जाति के पूर्व न्यायाधीश को तैनात करने की जद्दोजहद और उसके बाद उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष पद पर कोर्ट से बर्खास्त डॉ. अनिल यादव की जगह डॉ. अनिरुद्ध यादव की तैनाती करवा कर सपा सुप्रीमो ने यादव मतदाताओं के बीच अपने समर्पण को और मजबूत करने की कोशिश की.
22 मार्च को आजमगढ़ में एक सरकारी समारोह के दौरान मंच पर अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव के साथ पहली बार अमर सिंह की मौजूदगी दिखी. ठाकुर मतदाताओं को बीजेपी की तरफ झुकने से रोकने के लिए मुलायम अमर सिंह को साथ लाए हैं. बीएचयू के समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर ए.के. पांडेय कहते हैं, ''आरक्षित सीटों पर सवर्ण मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करते हैं. वर्तमान राजनैतिक हालात में ब्राह्मणों का झुकाव बीजेपी की तरफ दिख रहा है, इसलिए सपा ने ठाकुरों पर ध्यान लगाया है.'' सपा ने विधानसभा चुनाव के उम्मीदवारों की पहली सूची में 23 दलित, 19 यादव और 16 ठाकुर प्रत्याशी उतारे हैं.
सपा सरकार के चार वर्ष पूरा होने के मौके पर 15 मार्च को लखनऊ में अपने सरकारी आवास पर एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विकास कार्यों की एवज में जनता से रिटर्न गिफ्ट में दोबारा प्रदेश की सत्ता मांगी. रिटर्न गिफ्ट देने से पहले जनता भी अपनी कसौटी पर मुलायम के वादों और अखिलेश के दावों को कसेगी.