सवाल समझने के लिए फर्ज करें कि आप करीब 20 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले राज्य में अप्रत्याशित जनादेश से जीत हासिल करते हैं, लेकिन आपने एक भी मुसलमान उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था? इसे कैसे समझा जाए? यही नहीं, इस जख्म पर नमक छिड़कने की तर्ज पर आप एक ऐसे शख्स को मुख्यमंत्री बना दें जिसने मुसलमानों के प्रति अपनी नफरत को लेकर दशकों से पश्चाताप का एक शब्द न बोला हो? यह मुख्यमंत्री अपने शुरुआती कामों में एक काम यह करता है कि बूचडख़ाने के कारोबार में सनसनी फैला देता है, जहां अधिकतर मुसलमान ही काम करते हैं.
क्या इतना काफी नहीं था कि विजयी पार्टी का एक बड़बोला और अहम चेहरा गोकशी के लिए मृत्युदंड के प्रावधान का बिल राज्यसभा में पेश कर देता है? आप बरेली के एक गांव में जीत के जश्न में लगाए गए उन पोस्टरों का क्या करेंगे जिन पर मुसलमानों को गांव खाली करने का फरमान जारी हुआ है? और एक विजयी विधायक जीत की पिनक में देवबंद का नाम देववृंद करने का बैनर टांग दे, तब?
आप इसका क्या करेंगे कि यूपी की नई सरकार में अल्पसंख्यक मामलों का नया मंत्री ''संपन्न मुसलमानों" से हज की सब्सिडी त्यागने को कह दे, जबकि खुद मुख्यमंत्री कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए सरकारी सब्सिडी को दोगुना करके एक लाख पर पहुंचा दें? यह तो इत्तेफाक है कि अधिकतर मुसलमान हज सब्सिडी के तलबगार नहीं हैं, क्योंकि वे इस पर हाजियों की बजाए एयर इंडिया का अख्तियार मानते आए हैं. वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने इसे 2022 तक चरणबद्ध ढंग से खत्म करने को तो कह ही दिया था.
क्या बीजेपी से यह कहना ठीक होगा कि वह मुख्यमंत्री के बतौर योगी आदित्यनाथ के चयन पर आत्ममंथन करे? क्योंकि इससे पार्टी और सबका विकास की उसकी वचनबद्धता के बारे में बहुत कुछ जाहिर हो रहा है? बीजेपी के एक अहम प्रवक्ता सुधांशु मित्तल के अनुसार, ''ऐसे सवाल पूछना बुनियादी रूप से अलोकतांत्रिक काम है." उनसे फोन पर बात करते हुए ऐसा लगता है कि मित्तल का गला इस दुख से भर आया हो कि उन्हें एक पत्रकार को लोकशाही का मतलब समझाना पड़ रहा है. वे कहते हैं, ''यूपी में जनादेश पार्टी को मिला है, उसकी विचारधारा को, उसकी क्षमता और नेतृत्व में उसके भरोसे को मिला है. जो कहते हैं कि योगी आदित्यनाथ का चुनाव गलत था वे मुट्ठी भर बंददिमाग लोग हैं. उन्हें जनादेश का सम्मान करना सीखना होगा."
कुछ लोग बेशक कह सकते हैं कि देश की 14 फीसदी आबादी को राजनैतिक अप्रासंगिकता के कगार पर लाकर छोड़ देना अपने आपमें लोकतंत्र विरोधी है. कुछ लोग यह भी याद दिला सकते हैं कि ब्रिटिश भारत में मुसलमानों को दुहरे मताधिकार का प्रावधान था, ताकि किसी भी सूरत में उनके न्यूनतम प्रतिनिधि संसद में पहुंच सकें. और आजाद भारत में देश की संविधान सभा ने जब यह प्रावधान खत्म किया था तो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 26 मई, 1949 को संविधान सभा में खड़े होकर पूरी दुनिया को यह भरोसा दिलाया था कि ''मैं इस सदन को याद दिलाता हूं कि यह भरोसे का कदम है. हम सबके लिए भरोसे का एक कदम है.
और सबसे बढ़कर यह बहुसंख्यक समुदाय के लिए भरोसे का कदम है, क्योंकि इसके बाद से उन्हें साबित करना होगा कि बाकी लोगों के साथ वे भद्र, न्यायप्रिय और सच्चा व्यवहार करेंगे. हम इस भरोसे पर खरा उतरने की कोशिश करें." लेकिन आज न्याय का हाल यह है कि लोकसभा में मुसलमान केवल 4 फीसदी हैं और यूपी की नई असेंबली में 6 फीसदी से भी कम हैं.
2012 में मुसलमानों की संख्या विधानसभा में 17.1 फीसदी थी. आइएएस और आइपीएस अफसरों में भी 4 फीसदी से कम मुसलमान होते हैं. एक दशक पहले सच्चर कमेटी ने उनकी गरीबी का आकलन किया था, जो भयावह है. हालिया आंकड़े दिखाते हैं कि देश में मुसलमानों का जीवन स्तर न्यूनतम है. वे प्रति व्यक्ति प्रति दिन 33 रु. और प्रति माह 980 रु. खर्च करते हैं. मुसलमानों में साक्षरता दर 57.3 फीसदी है और उच्च शिक्षा में पंजीकरण की दर महज 13.2 फीसदी है, जबकि अनुसूचित जातियों और ओबीसी में यह क्रमशः 18.5 फीसदी और 22.1 फीसदी है.
मुसलमान आज आजाद भारत में अगर अपने सबसे निचले मुकाम पर हैं तो उसका दोष संघ या बीजेपी पर नहीं मढ़ा जा सकता क्योंकि इनके वैचारिक आग्रह कभी भी छिपे नहीं रहे हैं. अब तक की सबसे बड़ी चुनावी हार झेलने के बाद बुझे-बुझे से नजर आ रहे समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता मोहम्मद आजम खान इसकी वजहें ढूंढते हुए कहते हैं, ''मुसलमान बहुत बिखर गया है. वह चाहकर भी उन ताकतों को रोक नहीं पाया, जिन्हें वह रोकना चाहता था. आप कुछ भी कहिए पर मौलवियों का असर गरीब मुसलमान पर है, उन्होंने सही सलाह नहीं दी.
जामा मस्जिद के इमाम कितने ही गिर गए हों, लेकिन उनकी बात भी लोग सुनते हैं, उन्होंने भी गलत सलाह दी. असदुद्दीन ओवैसी जैसे मुसलमान की पार्टी कोई सीट भले न जीत पाई हो, लेकिन हजार, दो हजार, चार हजार वोट तो उन्होंने भी काटे." आजम को लगता है कि मुसलमानों के लिए अब शांति से बैठकर सोचने का वक्त आ गया है. लेकिन जिन ओवैसी को वे दोषी बता रहे हैं, उन ओवैसी का कहना है, ''मुस्लिम समुदाय को सेकुलर दलों ने छला है."
वे इन्हें, खासकर कांग्रेस को ''बौद्धिक रूप से बेईमान" करार देते हैं. वे कहते हैं कि बीजेपी ''ने हमेशा हिंदुत्व का प्रसार किया और आरएसएस के कानून का पालन किया. यहां तक कि प्रधानमंत्री भी—जो सबको साथ लेकर चलने की बात करते हैं और सबकी आंखों पर परदा डालने की कोशिश करते हैं—उनके दावे तक खोखले साबित हो चुके हैं. उन्होंने देश के सबसे बड़े सूबे के संवैधानिक मुखिया के तौर पर जिस शख्स को चुना है, उसे आप देख सकते हैं."
क्या वे प्रधानमंत्री के इस फैसले से चौंके थे, यह पूछे जाने पर ओवैसी उपहास में लंबी सांस लेते हुए कहते हैं, ''आप यह सवाल पूछ कैसे सकते हैं, इससे तो यह जाहिर होता है कि बीजेपी, आरएसएस और आदित्यनाथ अलग-अलग हैं, जबकि सारे एक ही तबेले से आते हैं और मुसलमानों के प्रति घृणा इनके मन में बराबर है." भारत में मुसलमानों के भविष्य का सवाल पूछे जाने पर मूर्धन्य पत्रकार और लेखक सईद नकवी तकरीबन नाटकीय ढंग से आह भरते हुए विभाजन के विश्वासघात पर केंद्रित अपने चिर-परिचित विमर्श में डूब जाते हैं. नेहरू, सरदार पटेल और यहां तक कि गांधी पर भी ''दुविधा" का आरोप लगाते हुए वे कहते हैं कि कहीं ''ज्यादा ईमानदार कोशिश यह होती कि ब्रिटिश राज सहज तरीके से पाकिस्तान में मुस्लिम राज और भारत में हिंदू राज में तब्दील हो जाता."
पिछले साल आई पुस्तक बीइंग द अदरः द मुस्लिम इन इंडिया की भूमिका में नकवी ने लिखा कि ''उपमहाद्वीप को धार्मिक आधार पर बांटने का फैसला बुनियादी रूप से सांप्रदायिक था...जो मुसलमान भारत में रह गए थे उन्हें इस बात का एहसास होने में बहुत वक्त नहीं लगा कि उनके साथ दोयम दर्जे का बर्ताव हो रहा था." अपनी लाचारगी के बावजूद नकवी को अपनी जवानी का अवध यानी लखनऊ बहुत याद आता है, जो बहुभाषी और नागरी सभ्यताओं का तकरीबन एक आदर्श सांस्कृतिक मेल हुआ करता था. वे अपने एक भतीजे के बारे में लतीफा सुनाते हैं जो पहली बार पाकिस्तान से होकर आया था और आते ही उसने फैसला सुनाया था, ''वहां मुसलमान बहुत ज्यादा हैं." वे याद करते हैं कि जब वे छात्र थे तो लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रसंघ का अध्यक्ष एक चेन-स्मोकर उर्दूभाषी सरदार होता था. वे इस शहर का ऐसे बखान करते हैं गोया वे सपने में असाध्य-सी चाह जगाने वाली कोई चीज हो.
ओवैसी की ही तरह नकवी भी ''सेकुलरवाद" के नाम पर बेचे गए ''झूठ" को लेकर किसी भ्रम में नहीं हैं. वे सशंकित भाव में कहते हैं, ''मायावती ने 100 मुसलमानों को टिकट दिए. जिधर मुड़िए, दूसरी पार्टियां मुसलमान की रट लगाए बैठी थीं. टेनिस में इसे अनफोर्स्ड एरर कहते हैं, जब आप खुद ही गलती कर बैठते हो. इन्होंने खेल बीजेपी के हवाले कर दिया." वे कहते हैं कि ''लिबरल" मुस्लिम नेतृत्व की तलाश एक अजीबोगरीब ''सेकुलर" भुलावा है. वे कहते हैं, ''मुल्ला जाने या अनजाने में नागपुर का सबसे बड़ा सहयोगी है." धार्मिक नेताओं के समूचे समुदाय की आवाज होने की बात को वे खारिज करते हैं.
नकवी कहते हैं कि भारत को दो ऐसी अतियों में तब्दील कर दिया गया है जो परस्पर द्वंद्व में हैं. जबकि आजम खान पूछते हैं कि अगर ब्रिटिश भारत के सारे मुसलमान पाकिस्तान के पक्ष में होते तो उससे कहीं बड़ा पाकिस्तान बनता जो बंटवारे के वक्त बना. लेकिन मुसलमानों का बड़ा वर्ग सेकुलर था और उसने जिन्ना की बजाए मौलाना आजाद के पीछे सेकुलर भारत में रहने का फैसला किया, ''ये मुसलमान आज तक गांधी की लाठी और नेहरू के कौल से बंधे हैं. अगर मुल्क चाहता है कि मुसलमान गोश्त न खाएं तो मैं सारे मुसलमानों से गोश्त न खाने की अपील करता हूं." लेकिन ओवैसी पूछते हैं कि अगर आदित्यनाथ यूपी के मुख्यमंत्री हो सकते हैं तो ''भारत का प्रधानमंत्री बनने में ऐसी कौन-सी बात है जो उन्हें रोकती है?"
नकवी और ओवैसी अलग-अलग दलीलों से एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इस देश का मुसलमान दरअसल विकास की कीमत पर एक खास किस्म की मजहबी और सांस्कृतिक सनक का शिकार होकर रह गया है. नकवी इसके लिए मुल्लों को दोषी ठहराते हैं, ओवैसी सेकुलर दलों को, और पूछते हैं, ''इन्होंने किसी मुस्लिम इलाके में एक भी स्कूल खोला क्या?" ओवैसी कहते हैं कि मुसलमानों पर बीजेपी को रोकने का बोझ नहीं डाला जा सकता. वे कहते हैं, ''एक तरफ खाई है और दूसरी तरफ पहाड़. वक्त है कि बहुसंख्यक समुदाय के लोग खड़े हों और कहें कि ''हम इस किस्म के हिंदुत्व में विश्वास नहीं करते." हर एक इस्लामिक आतंकी हमले के बाद जो दलील दी जाती है कि उदार मुसलमानों को इससे अपनी असहमति जाहिर करनी चाहिए, ओवैसी उस तर्क को काफी सहजता से पलट देते हैं.
वहीं, इस्लामिक विद्वान एवं मजलिस-ए-अहरार यूपी के संयुक्त सचिव मौलाना इब्राहीम कासमी का अपना अलग नजरिया है. वे कहते हैं, ''मोदी और योगी युग के बारे में मुसलमानों को नकारात्मक नहीं सोचना चाहिए. गंभीरता के साथ अपने काम को अंजाम दें और जज्बाती तो बिल्कुल न बनें. इंतजार करें, चंद महीनों में हालात साफ हो जाएंगे." क्या हालात होंगे? इस पर मौलाना कासमी यह कहकर चौंका देते हैं, ''जो गलती अटलजी ने आडवाणी जी को लाकर की, वही आडवाणी ने मोदी को लाकर की और अब मोदी जी ने वही गलती योगी जी को लाकर की है. इसलिए मुसलमान परेशान न हों और हौसले और गंभीरता से हालात का सामना करें. जो है, उससे इनकार नहीं करें. मुस्लिम समुदाय को एकता की जरूरत है. हम अपनी बुनियादी चीजों पर ध्यान दें, यही अहम जरूरत है."
अपने गृहराज्य में मौजूदा स्थिति को लेकर नकवी हताश हैं, ''यूपी में कभी ब्राह्मण अपने नैतिक बल से खड़ा रहता था. आज वह कहां है? आज उसका हाल इस राज्य की तरह अस्थिर हो चुका है." नतीजा यह हुआ है कि भारत आज हिंदू राज के एक विकृत संस्करण की शक्ल ले रहा है. नकवी याद करते हैं जब खबर आई थी कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने नोटबंदी का श्रेय बाबा रामदेव को दिया था. उसी समय उन्हें लग गया था कि तेहरान की सत्ता में मुल्ले होंगे और दिल्ली में योगी. सुधांशु मित्तल इस आरोप को हलके में नहीं उड़ा सकते. वे कहते हैं, ''भारत में धर्म का तंत्र नहीं है और ईरान के साथ कोई भी तुलना न केवल अनुपयुक्त है, बल्कि विकृत है."
मित्तल का मानना है कि मुसलमानों का राजनैतिक अलगाव इसलिए हुआ है ''क्योंकि उन्होंने खुद का ऐसे दलों के हाथों वोट बैंक के रूप में दोहन किए जाने की छूट दी है जिनकी उनके कल्याण के प्रति कोई वचनबद्धता नहीं है." वे कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि मुसलमान बीजेपी को ''राजनैतिक रूप से अछूत समझना बंद करें वरना वे खुद को राजनैतिक अलगाव में डाल लेंगे." तैयब ट्रस्ट देवबंद के प्रवक्ता मौलाना शाहनवाज बदर कासमी कहते हैं, ''एक आरोप लगाया जाता है कि आरएसएस बीजेपी के लिए काम करता है. हर किसी को अपनी विचारधारा पर काम करने का अधिकार है.
लेकिन सिर्फ आरएसएस को कठघरे में खड़ा करना मसले का हल नहीं है. मुसलमानों में भी जमीयत उलेमा और कई ऐसे संगठन हैं जो कांग्रेस या दूसरी सियासी पार्टियों के लिए काम करते रहे हैं." दरअसल इसी सोच और चिंता ने मुसलमानों को बीजेपी में भागीदार नहीं बनने दिया. बकौल शाहनवाज, ''इसके लिए मुसलमानों के सियासी और मजहबी लीडर जिम्मेदार हैं, जिन्होंने जान-बूझकर मुसलमानों को बीजेपी से इस कदर बदगुमान कर दिया कि भाजपा के लोगों से मिलना भी मुसलमानों में हराम जैसा माना जाने लगा."
आरएसएस से जुड़े राकेश सिन्हा स्पष्ट मानते हैं कि ''भारतीय परंपरा में लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी प्रार्थना का माध्यम क्या है." एक ईमेल में वे लिखते हैं कि ''हिंदू राष्ट्र की आरएसएस की अवधारणा सभ्यता की तलाश है. यह अपने मूल में अधार्मिक है. हिंदू राष्ट्र एक विशेषण है, कोई उद्देश्य नहीं."
अगर आप आदित्यनाथ की भाषा या खुद प्रधानमंत्री की भाषा पर ध्यान न दें, तो यह दलील आपको ठीक लग सकती है. सिन्हा हालांकि इस बात पर जोर देते हैं कि भाषा कोई मसला है ही नहीं. डोनाल्ड ट्रंप का बचाव करने के लिए जैसे तर्क दिए जाते हैं, ठीक उसी तर्ज पर सिन्हा ''छद्म सेकुलरवादियों" पर आरोप लगाते हैं कि वे आदित्यनाथ को शब्दशः लेते हैं. वे कहते हैं, ''अस्सी के दशक से जमीनी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक आंदोलनों से ऐसे लोगों का उभार हुआ जो अतीत के उन अंग्रेजी शिक्षित राजनेताओं की अभिजात्य व सूक्ष्म शैली से मेल नहीं खाते थे जिन्हें वास्तविकता से ज्यादा अपनी छवि की चिंता हुआ करती थी. नए दौर के नेता समुदाय से निकले विमर्श को आगे बढ़ाते हैं, इसलिए उनकी भाषा को जस का तस नहीं लिया जाना चाहिए. इसे समझे बगैर आप न योगी को समझ पाएंगे, न लालू (प्रसाद यादव) को और न ही ममता (बनर्जी) को."
इन तमाम बातों के बावजूद राजनीति की मुख्यधारा में योगी आदित्यनाथ का उभार हताश विपक्ष को थोड़ी उम्मीद तो बंधाता है कि कहीं वे बीजेपी के बख्तरबंद किले में एक कमजोर कड़ी न बन जाएं. बहुत से लोग यह मानकर भी चल रहे हैं कि ''अवैध" बूचडख़ानों पर हो रही कार्रवाई और महिला विरोधी ऐंटी-रोमियो दस्ते भविष्य के लिए संकट खड़ा कर सकते हैं. कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इस दलील को मानने को तैयार नहीं कि बीजेपी ने जनादेश के चलते आदित्यनाथ को उनकी प्रशासनिक क्षमता साबित करने का एक मौका दिया है. मौका देने वाली बात पर अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण से जब सवाल पूछा गया तो वे हंसते हुए बोले, ''वो ट्विटर पर किसी ने लिखा था न, कि वाइ नॉट गिव शोविंग ए पाइनैपल अप योर ऐस अ चांस (क्यों नहीं एक बड़े से अनानास को अपने पिछवाड़े में जाने का मौका दिया जाए)? हो सकता है अच्छा महसूस हो."
बीजेपी के राजनैतिक विपक्ष में भूषण की आस्था बेहद कम है. वे कहते हैं, ''वक्त है कि नागरिक समाज एकजुट हो. रामजस की घटना के बाद छात्रों ने प्रदर्शन किया था. अब वक्त है कि सभी समुदायों की अमन कमेटियां साथ आएं और बीजेपी के सांप्रदायिक नारे का विरोध करें. एक फासीवादी राज्य सबको डुबो देगा." जेएनयू की प्रोफेसर और यूपी की जानकार सुधा पई खुलकर कोई पक्ष नहीं लेतीं, लेकिन यह मानती हैं कि आदित्यनाथ का उभार विपक्ष के लिए एक मौका हो सकता है. वे पूछती हैं, ''आखिर सब लोग यह क्यों सोचते हैं कि बीजेपी की राह इतनी आसान रहेगी और उसे कोई झटका नहीं लगेगा?"
वे कहती हैं कि उन्हें संविधान से चलने वाले भारत में भरोसा है और ''एक ऐसी राजनीति में जो कहीं ज्यादा समावेशी है." विपक्ष हालांकि किनारे बैठकर नहीं खेलता रह सकता. ''उसे एक वैकल्पिक एजेंडा सामने रखना होगा." ओवैसी भी कहते हैं कि बीजेपी का विपक्ष चाहे राजनीति से आए या सिविल सोसाइटी से, लेकिन जब वह सेकुलर कहेगा तो उसे इसका मतलब भी समझाना पड़ेगा.
इस देश में सेकुलर शब्द अगर ज्यादा इस्तेमाल के चलते घिस चुका है तो यही हाल शायद ''तुष्टीकरण" का भी जल्द होने वाला है. ओवैसी कहते हैं, ''मैं जहां खड़ा हूं वहां से मुझे एक ही तुष्टीकरण दिखाई देता है और वह बहुसंख्यकों का है." वे पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन के लिखे एक स्तंभ से उद्धृत करते हैं जिसमें चेतावनी दी गई थी कि मुसलमानों को अलगाव में डालने का मतलब होगा उनमें से कुछ को आइएसआइएस की ओर धकेलना.
मुजफ्फरनगर दंगों के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इससे मिलती-जुलती बात कही थी. सुधा पई इतनी तबाही की कल्पना नहीं करती हैं, बल्कि वे कहीं ज्यादा न्यायपूर्ण और निष्पक्ष रहते हुए उस ''दूरी" की बात करती हैं ''जो धर्म और राजनीति के बीच होनी चाहिए और जिसे बहाल किया जाना चाहिए ताकि बहुसंख्यकवाद की राजनीति की बजाए कहीं ज्यादा संतुलित नजरिया पेश किया जा सके."
इन कयासों और संभावनों से हटकर एक बार फिर इस विमर्श के केंद्रीय पात्र योगी आदित्यनाथ की तरफ वापस लौटते हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान अप्रैल 2014 में इंडिया टुडे से बातचीत में योगी आदित्यनाथ से जब पूछा गया था कि अब तो आपकी सरकार बनने वाली है, तो अब आप हिंदूवादी रहेंगे या राष्ट्रवादी? तो योगी ने कहा था राष्ट्रवादी. लेकिन जब उनसे पूछा गया कि क्या वे मुजफ्फरनगर दंगों में जले घरों को दुबारा बसाने में मदद कर अपनी राष्ट्रवादिता का परिचय देंगे तो योगी ने कहा था, ''मुसलमान हम पर विश्वास नहीं करेंगे." और उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद मुसलमानों के बीच यही चर्चा है कि सरकार बन गई, जोशीले जुलूस निकल गए, मीट बंदी हो गई, लेकिन इसके बाद आगे और क्या होगा? क्या योगी बदलेंगे?
—साथ में रियाज हाशमी