
उपहार हादसा मामले में 13 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट का फैसला, जिसमें पीड़ितों का मुआवजा कम कर दिया गया, सुनाए जाने के बाद अगली सुबह लोधी गार्डन में टलहते समय अरुण जेटली ने मुझे रोका. उन्होंने कहा, ''इस फैसले में न्याय दिए जाने का आभास भी नहीं है...जिस मामले ने पूरे देश के साथ-साथ अदालत की अंतरात्मा को झ्कझेर को रख दिया हो, उसमें मुआवजा कम करने की कहां जरूरत थी.'' हकीकत यह हैः न्यायिक पेंडुलम एक छोर से आखिरी छोर तक जा सकता है.
नवंबर, 2009 में इस मामले में फैसला सुरक्षित रखे जाने के एक साल पहले, एक आरोपी ने इस आधार पर जमानत की अर्जी दी थी कि जब मालिकों को हाइकोर्ट से जमानत मिल चुकी है, तो उसे भी जमानत मिलनी चाहिए. तब सुप्रीम कोर्ट ने काफी नाराजगी दिखाई थी, क्योंकि मालिकों पर दस्तावेजों के साथ छेड़छाड़ करने का एक और मामला चल रहा था. उसने तुरंत जमानत रद्द करने का नोटिस जारी किया और उन्हें वापस जेल भेज दिया. इस तरह नाराजगी की सीमा, या इसकी कमी, आम तौर पर न्यायाधीशों की पीठ पर निर्भर करती है.
अब जरा देखिए कि यह पेंडुलम मुआवजे के मामले में किस तरह झूलता रहा है. उपहार हादसे के मामले में हाइकोर्ट ने 2003 में 20 साल से ऊपर की उम्र वाले हर पीड़ित के करीबी रिश्तेदार को 18 लाख रु. और 20 साल से कम उम्र वाले पीड़ित के करीबी रिश्तेदार को 10 लाख रु. का मुआवजा देने का फैसला सुनाया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में 20 साल से ऊपर की उम्र वाले पीड़ित के मुआवजे की रकम घटाकर 10 लाख रु. और 20 साल से कम उम्र वाले पीड़ित के मुआवजे की रकम घटाकर 7.5 लाख रु. कर दी.
अब इसकी तुलना सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पी.बी. सावंत द्वारा टाइम्स नाउ से मांगे गए मुआवजे से करें. टाइम्स नाउ ने कलकत्ता हाइकोर्ट के न्यायाधीश पी.के. सामंत की संलिप्तता वाले प्रोविडेंट फंड घोटाले में 10 सितंबर, 2008 को कथित तौर पर उनकी फोटो 15 सेकंड तक गलत तौर पर दिखाई थी. पुणे की जिला अदालत ने टाइम्स नाउ को इसके लिए 100 करोड़ रु. का हर्जाना देने का आदेश दिया था.
हाइकोर्ट ने इस फैसले के खिलाफ अपील इस शर्त पर मंजूर की कि पहले अदालत में 20 करोड़ रु. जमा कराए जाएं. एक मामला सिर्फ 15 सेकंड की गलती का है और दूसरा 59 लोगों की मौत का. एक में लापरवाही बरतने का मामला है तो दूसरे में कुछ व्यापारियों के लालच के कारण लोगों की मौत का. एक में माफी मांगकर गलती सुधारी जा सकती है.
लेकिन दूसरे में मारे गए लोगों की जिंदगी कोई भी वापस नहीं ला सकता. एक में कुछ देर के लिए प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचाने का मामला है, तो दूसरा जन कानून के प्रति जवाबदेही से जुड़ा है. एक में फैसला तीन साल से कम समय में आ गया, तो दूसरे में 15 साल की देरी हुई और आखिरकार जब फैसला आया तो मुमकिन है, कुछ पीड़ितों के रिश्तेदारों को पहले मिल चुका अपना कुछ मुआवजा वापस लौटाना पड़ जाए.
संविधान में फटाफट न्याय पाना लोगों का अधिकार है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सात साल से अधिक समय की देरी हुई, जिसमें फैसला सुरक्षित रखने के बाद दो साल उसे सुनाने में लग गए. सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजे की रकम कम कर दिए जाने की वजह यह बताई है कि हाइकोर्ट ने 26 जून, 1983 को सिनेमा हॉल का लाइसेंस चार दिन के लिए निलंबित करने पर दिए गए स्थगन को निरस्त नहीं किया था, और जुलाई, 1989 में जब उसी सिनेमा हॉल में आग लगने की एक और घटना हुई तो लाइसेंस जारी करने वाले विभाग ने स्थगन को रद्द करने की मांग की, लेकिन स्थगन रद्द करने के बजाए उसने लाइसेंसिंग के डीसीपी को हॉल की जांच करने का आदेश दिया.
हादसे में मरने वालों के करीबी रिश्तेदारों की पीड़ा यह है कि उनके अपने प्रियजन, जो, 'लाइसेंसशुदा' सिनेमा हॉल में फिल्म देखने गए थे, लाशों के रूप में उन्हें मिले. हर कोई जानता है कि जहरीली गैस से होने वाली मौत कितनी तकलीफदेह होती है. ज्यादातर को सिनेमा हॉल की बाल्कनी या नीचे हॉल से बेहोशी या मृत अवस्था में निकाला गया. इनके निकास द्वार को मालिक के देखने के लिए बनाए गए विशेष बॉक्स की वजह से बंद कर दिया गया था.
इस तरह के बॉक्स की (गैर-कानूनी) इजाजत लाइसेंस विभाग के डीसीपी से ली गई थी. इसका नतीजा यह हुआ कि पूरब की ओर सीढ़ियां भी बंद हो गई थीं. जिन लोगों ने अपने प्रियजनों को खोया, उनके लिए इसका कोई मतलब नहीं है, चाहे इसके लिए ए, बी, सी कोई भी जिम्मेदार हो. 13 साल तक जन सुरक्षा नियम और प्रक्रिया का उल्लंघन, जिसमें जनता के पैसे से वेतन पाने वाले अधिकारियों की भी सांठगांठ है, साफ दिखाई देता है. सुप्रीम कोर्ट ने उन पर कोई मुद्दा नहीं उठाया है. बहुत पहले 1983 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मिसाल कायम करने वाला मुआवजा कानून की शक्ति को जायज ठहराने का जरूरी उद्देश्य पूरा कर सकता है.
अदालत अगर ऐसा मुआवजा नहीं देती तो यह मौलिक अधिकारों, जो जीवन और आजादी का अधिकार देते हैं, के प्रति सिर्फ जबानी सहानुभूति दिखाना है. इस उल्लंघन को रोकने का तरीका यह है कि मिसाल बनने वाला आर्थिक जुर्माना लगाया जाए. 1983 में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था, ''अगर इस देश में सभ्यता को नष्ट नहीं होने देना है, जैसा कि दूसरे देशों में नष्ट हो चुकी है, तो सरकार को नुक्सान की भरपाई करनी ही होगी.''
तुलसी सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ एडवोकव्ट हैं और भारत के विधि आयोग के उपाध्यक्ष हैं