सटाक! थप्पड़ पडऩे के बाद लड़के ने अपने गाल पर हाथ रखकर रोना-सा मुंह बना लिया. टीवी कैमरों के सामने स्कूली कपड़े में लड़कियों के एक समूह से खाकीधारी पूछता है, ''बताओ, ये क्या कह रहा था?" लड़कियां चहकते हुए कहती हैं, ''बोल रहा था कि वो वाली अच्छी है. वो मेरी है." लड़का इस बीच खुद को कैमरों से छुपाने के लिए गठरी बना जा रहा था.
''यहां क्या कर रहे हो?" ''जी... मेरी पत्नी उधर हैं", एक नौजवान दुकान की ओर इशारा करता है. ''अच्छा? तो तुम साथ क्यों नहीं गए?" इसी बीच उसकी पत्नी वहां आ जाती है और अपने सिर पर हिजाब ठीक करते हुए चिल्लाती है, ''वो औरतों की दुकान है, ये उसमें कैसे जाएंगे? बाहर बैठे हुए हैं, आपको कोई दिक्कत?" इतना सुनते ही खाकीधारी नदारद!
एक युवा बेचारगी में सफाई दे रहा है, ''मैं बस बैठा हुआ हूं. अभी-अभी मेरी शिक्रट खत्म हुई है... अभी घर चला जाऊंगा." पुलिसवाला गुर्राता है, ''इधर-उधर मत टहला करो." फिर वह लड़के का आधार कार्ड चेक करता है, अपने मोबाइल से उसकी तस्वीर खींचता है और उसे जाने देता है.
उत्तर प्रदेश से कुछ ऐसी ही परेशान करने वाली तस्वीरें और खबरें आ रही हैं जहां पुलिसवाले संदेह के आधार पर लड़कों की धर-पकड़ करने में लगे हुए हैं. योगी आदित्यनाथ के 19 मार्च को राज्य का 21वां मुख्यमंत्री बनने के तीन दिनों के भीतर ऐंटी-रोमियो दस्ते के नाम से बनी पुलिसवालों की छापामार टीमें सार्वजनिक स्थलों से ''लंपटों" को खदेडऩे में जुट गई हैं.
देशभर में इसकी चर्चा हो रही है. हर तरफ बहसें हो रही हैं और जनता की राय दो हिस्सों में बंट गई है. सामाजिक मनोविज्ञानी सुधीर कक्कड़ की मानें तो इस बहस के केंद्र में दो विरोधाभासी बातें हैं. पहली यह कि लड़कियों और औरतों को सड़क पर की जाने वाली छेड़छाड़ से सुरक्षा मिलनी चाहिए. दूसरी बात पसंद-नापसंद की है कि नौजवान लड़के-लड़कियों को यह तय करने की छूट होनी चाहिए कि वे कहां, कैसे और किसके साथ हों. ये दोनों बातें एक-दूसरे की विरोधी हैं.
योगी की मंशा
''औरतों को अपने जीवन में स्वतंत्रता नहीं मिलनी चाहिए. उन्हें बचपन में पिता, जवानी में पति और जीवन की सांध्य वेला में बेटे की रखवाली में रहना चाहिए." -मनुस्मृति
हिंदू महिलाओं के लिए बनाई गई इस संहिता के रचयिता मनु के करीब 1,800 साल बाद यूपी की सरकार ने इसमें चौथा अध्याय जोड़ दिया हैः बचपन से लेकर जवानी तक हर लड़की की रखवाली राज्य को करनी है. इस प्राचीन नुस्खे को व्यवहार में लाने वाले और कोई नहीं, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं.
उत्तर प्रदेश के सभी 1,500 थानों में गठित इस नए दस्ते ने सनसनी फैला दी है. ऐसा लगता है कि कबूतरों के बीच बिल्ली को छोड़ दिया गया हो. ऐंटी-रोमियो दस्ते हवा की तरह आते हैं. इन्होंने शुरुआती तीन दिनों में 2,000 से ज्यादा नौजवानों को धर दबोचा है. इनकी गलती बस इतनी है कि कुछ के बाल लंबे हैं, कुछ लड़कियों के स्कूल और कॉलेज के करीब खड़े पाए गए तो कुछ ऐसे ही भटक रहे थे. इन्हें घेर लिया जाता है, शर्मिंदा किया जाता है और अच्छे काम करने का संकल्प दिलवाया जाता है, थाने ले जाया जाता है, जांच की जाती है और हिरासत में ले लिया जाता है या फिर छोड़ दिया जाता है.
कुछ मामलों में तो सबके सामने उठक-बैठक तक करवाई गई है. नौजवान लड़कियों और दंपतियों को नैतिकता पर भाषण दिए जा रहे हैं, बगैर पता किए कि वे भाई-बहन हैं या शादीशुदा जोड़े. बाजार, मॉल, स्कूल, कॉलेज, कोचिंग सेंटर, भीड़ भरी जगहों पर यूपी पुलिस आजकल बेहद व्यस्त है.
भारत आज दोराहे पर खड़ा है. एक तरफ यथास्थितिवादी पारंपरिक ग्रामीण समाज है और दूसरी तरफ शहरी समाज आधुनिकता, निजी प्रगति और नए तरह के सामाजिक रिश्तों की ओर कदम बढ़ा रहा है. इससे महिलाओं, खासकर युवतियों के जीवन में भी भारी बदलाव आ रहा है तो युवा लड़कों को समझ नहीं आ रहा है कि उनके साथ कैसे पेश आना चाहिए. बकौल कक्कड़, लड़के समझते हैं कि उन्हें लड़कियों को लुभाना आता है लेकिन असलियत में उन्हें नहीं आता. वे समाज के पुरातन कायदों और धमकियों की नकल यानी छेडख़ानी का सहारा लेते हैं, जो अब मंजूर नहीं होतीं. अब राज्य इस दायरे में कूद पड़ा है और सड़क पर तय करना चाहता है कि लड़के-लड़कियां कैसे बर्ताव करें.
जी, मंत्री जी
तो, छेड़छाड़ पर ही इतना फोकस क्यों? जाहिर है, भारत में औरतों के लिए सबसे असुरक्षित राज्यों में एक यूपी के लिए यह सबसे बड़ा सिरदर्द है. यह देश में औरतों के खिलाफ होने वाले अपराधों में 11 फीसदी का योगदान देता है. यहां शादी के बाद भी अधिकतर औरतों को घरों की चारदीवारी के भीतर अपराधों का शिकार होना पड़ता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2016 में पति या उसके परिजनों के हाथों हुई बर्बरता (35 फीसदी), दहेज हत्या (31 फीसदी), 462 सामूहिक बलात्कार (और 422 कोशिशें), अगवा और फिरौती (17 फीसदी) के मामलों में यूपी देश में अव्वल है. इसकी तुलना में सड़कों पर होने वाले अपराधों के मामले में यहां हालत बेहतर है. यौन उत्पीडऩ के मामले में महाराष्ट्र (11,713 मामले) सबसे ऊपर है. उसके बाद मध्य प्रदेश (8,049 मामले) दूसरे नंबर पर और उत्तर प्रदेश 7,885 मामले के साथ तीसरे नंबर पर है.
फिर सवाल उठता है कि महिलाओं के खिलाफ ज्यादा गंभीर अपराधों के मुकाबले सिर्फ छेड़छाड़ पर ही फोकस क्यों किया जा रहा है? प्रशासन और पुलिस के आला अधिकारी इसे मुख्यमंत्री का पक्का इरादा बताते हैं. गृह सचिव मणि प्रसाद मिश्र कहते हैं, ''यह सरकार की प्राथमिकता में है." वे इस ओर भी इशारा करते हैं कि ''धारणा" काफी मायने रखती हैः ''घरेलू हिंसा चारदीवारी के भीतर होती है लेकिन सार्वजनिक स्थलों पर बेहूदगी तो चलन बन चुकी है जिसे रोका ही जाना चाहिए." डीजीपी जावेद अहमद इससे सहमत दिखते हैं, ''सरकार एक खास प्रोजेक्ट चाहती है और हम उसका पालन कर रहे हैं." लेकिन वे मानते हैं कि शोहदागीरी से निपटना वक्त की जरूरत है. वे कहते हैं, ''यह एक सामाजिक समस्या है जिसे आप छुपा नहीं सकते."
दिल्ली हाइकोर्ट की वकील रेबेका जॉन के मुताबिक, दो व्यक्तियों को सार्वजनिक स्थल पर जाने से रोकना या शालीनता के दायरे में दोस्ती-यारी का आनंद लेने से रोकना किसी भी राजकीय एजेंसी के लिहाज से आजादी का दमन कहा जाएगा, जिसे कानून से स्वीकृति हासिल नहीं है. वे कहती हैं, ''अगर आप औरतों का सम्मान करते हैं तो आपको उन अपराधों के पीछे जाना चाहिए जिनसे आपका राज्य ग्रस्त है." समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन कहते हैं कि यह काफी ''डरावना" है कि सरकार बलात्कार के मामलों में कुछ नहीं करेगी लेकिन रोमियो को रोकने के लिए खुशी-खुशी कार्रवाई करेगी. वे पूछते हैं, ''फिर तो बलात्कार के मुकाबले छेड़छाड़ कहीं ज्यादा नाटकीय हो जाएगी, नहीं?"
रोमियो कौन?
पहला सवालः कौन है रोमियो? उत्तर प्रदेश पुलिस के मुताबिक, कोई भी इसका अंदाजा लगा सकता हैरू जो दिखने में जवान (कुछ अधेड़ों को भी दबोचा गया है) या वाकई जवान, एक खास स्टाइल में खड़ा है और ताक-झांक कर रहा हो, आंखों में खास किस्म की चमक हो, ''संदिग्ध" व्यवहार कर रहा हो और ''सहयोग करने से इनकार करता है." जो अकेले लड़के हैं वे तो शिकार हैं ही, जो समूह में हैं या लड़कियों के साथ उनकी भी खैर नहीं. हापुड़ जिले का एक सिपाही कहता है, ''आदमी के चेहरे पर रोमियो नहीं लिखा होता. हम लोग इतने लंबे समय से पुलिस में हैं, देखते ही उसके हाव-भाव, खड़े होने के तरीके और उसकी नजरों से ताड़ लेते हैं."
वाकया 23 मार्च की शाम साढ़े पांच बजे का है. लखनऊ पूर्व के पुलिस अधीक्षक शिवराम यादव के नेतृत्व में ऐंटी-रोमियो दस्ता मध्य लखनऊ के जनपथ बाजार में तैनात था. अंधेरा हो रहा था और लड़के-लड़कियों का समूह यहां-वहां बेंचों पर बैठा गप कर रहा था. ये सभी पुलिस की पूछताछ के लिए मुनासिब थे. चैक निवासी अमित रस्तोगी से पूछताछ हो चुकी है. वे अनमने हैं, ''मैं बीवी के साथ बाजार आया था. वह खरीदारी करने चली गई और मैं इधर बैठा हुआ था. पुलिस को इससे भी दिक्कत है. उन्होंने मानने से ही इनकार कर दिया कि मैं अपनी बीवी के साथ आया हूं." मामला बिगड़ ही जाता अगर उनकी पत्नी वहां समय रहते पहुंच नहीं जातीं. यादव मानते हैं कि ''हल्की गलती" हुई है, लेकिन कहते हैं कि ''उनसे हमने माफी मांग ली है."
हर आदमी इतना खुशकिस्मत नहीं होता. एक लड़का साइकिल से जा रहा था कि सिपाही ने उसे रोक लिया. अपनी शर्ट की बांह पर गिरा आंसू पोंछते हुए वह बताता है, ''मैंने उसकी आंखों में संदेह देख लिया था. मैंने उन्हें अपना आइडी दिखाया फिर भी उन्होंने किसी अपराधी की तरह मुझसे पूछताछ की. लोग देख रहे थे." पुलिस ने उसके पिता से फोन पर बात करने के बाद ही उसे जाने दिया. एक और लड़का कंधे उचकाते हुए कहता है, ''मुझे उन्होंने बहुत परेशान किया." उसकी आवाज भर्राई हुई है और हाथ में किताबों का ग-र है जिसे खरीदने वह बाजार आया था. वह कहता है, ''जब किसी को आपके कहे पर विश्वास ही न हो तो साबित करना मुश्किल हो जाता है कि आप लंपट नहीं हैं." कोई कह रहा था कि पुलिस ने उसे एक मॉल में पकड़ा था. किसी और ने बताया कि वह पानीपुरी के खोमचे पर था. कोई कहता है, ''यह कोई तरीका है बदमाशों को पकडऩे का? इस तरह तो ये हम सब को अपराधी बना देंगे."
विरोध की आवाजें
''लंपटों को परेशान करने के नाम पर ये लोग शेक्सपियर की ऐसी-तैसी कर रहे हैं," ऐसा कहना है लखनऊ के इंदिरानगर में रहने वाली बीसेक साल की ऋचा मिश्रा का. वे गुस्से में कहती हैं, ''रोमियो और जूलियट दो सच्चे प्रेमियों की कहानी है, जिन्होंने इश्क में जान दे दी. असामाजिक तत्वों को रोमियो कहने का क्या मतलब? कोई अच्छा नाम खोजना चाहिए था. ऐसा लगता है कि ऐंटी-रोमियो लव जिहाद का ही दूसरा नाम है." सार्वजनिक जीवन में दस्तों की घुसपैठ से उपजा उनका गुस्सा जायज है. उन्हें अपना शहर अब बेगाना लगने लगा है.
एक समय था जब वे अपनी सहेलियों के साथ हर दोपहर नेशनल कॉलेज से बाहर निकल कर गंजिंग करती थीं. गंजिंग यहां की चालू भाषा में हजरतगंज में टहलने को कहा जाता है. दर्जन भर लड़के-लड़कियां जो सभी मनोविज्ञान के छात्र हैं, पुरानी कोठियों से लेकर चमचमाती दुकानों, इमामबाड़े, इत्र से लेकर कबाब, किताबें और चाट बेचने वाले खोमचों तक दो किलोमीटर का चक्कर लगाते थे और अंत में शर्मा जी की चाय के ठीये पर बंद-मक्खन और कुल्हड़ वाली चाय के लिए पहुंचते थे. इस शहरी स्पेस के साथ ऐसा जीवंत संवाद एक-दूसरे से हंसी-ठिठोली साझा करने का एक उपक्रम भी होता था. गंजिंग इनके लिए दरअसल दोस्ती, रोमांस और ऐसी ही तमाम चीजों का एक मुहावरा बन चुका था. ऐसा लगता है, गोया यह कल की ही बात हो और वास्तव में कल की ही है भी.
ऋचा खुद से पूछती हैं, ''अगर आज मैं पढ़ रही होती तो क्या होता? मेरे दोस्त लंपट नहीं थे लेकिन पुलिस उनका कॉलर धर लेती और हम लोग बेइज्जत हो जाते." अपने शहर के साथ संवाद एक महिला के लिए कितना जटिल हो सकता है. वाइ लॉयटर? (2011) का सह-लेखन करने वाली समीरा खान पूछती हैं, ''आखिर कितनी बार किसी महिला को किसी पार्क में अकेले बैठे या किसी सड़क के किनारे धुआं उड़ाते या फिर दुनिया को ऐसे ही आता-जाता देखते हमने देखा है? जैसा कि पुरुष कर पाते हैं?" हमारे शहरों में औरतें जितनी बेखौफ होकर टहल पाएंगी, शहर उतने ज्यादा सुरक्षित होंगे. माकपा पोलितब्यूरो की सदस्य बृंदा करात कहती हैं, ''योगी आदित्यनाथ और उनके लोगों को मिली शिक्षा यही है कि औरतों को चारदीवारी के भीतर रहना चाहिए."
नुस्खे का जन्म
यह विचार 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए भाजपा के घोषणापत्र लोक कल्याण संकल्प पत्र में एक ठोस प्रस्ताव के रूप में आया था. इसमें जो नौ मुख्य क्षेत्र काम के गिनाए गए थे, उनमें ''रोमियो जैसे व्यक्तियों" की पहचान करके उनके खिलाफ कार्रवाई किया जाना ''सशक्त नारी, समान अधिकार" की श्रेणी के अंतर्गत शामिल था. यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान प्रचार में भाजपा के कई नेताओं ने इसे दोहराया था कि ऐंटी-रोमियो दस्तों का गठन कथित ''लव-जिहाद" के मामलों को रोकने के लिए किया जाएगा.
''लव-जिहाद" भी भाजपा की ही वैचारिक पैदाइश थी, जिसमें पार्टी प्रचारित करती है कि मुस्लिम युवा हिंदू महिलाओं को बहला-फुसला कर उनसे शादी कर लेते हैं और बाद में उनका धर्म परिवर्तन करा देते हैं. योगी आदित्यनाथ ने भी अपने प्रचार में ''लव जिहाद" से लडऩे को मुद्दा बनाया था. फरवरी 2017 के पहले सप्ताह में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने घोषणा की थी कि यूपी के हर कॉलेज में एक ऐंटी-रोमियो दस्ता उपलब्ध कराया जाएगा. उन्होंने कहा था, ''हमारी लड़कियों को सुरक्षा मिलेगी. ये ऐंटी-रोमियो दस्ते बिना डर के लड़कियों को कॉलेज के कैंपस में पढऩे में मदद देंगे."
कोलकाता स्थित सेंटर फॉर स्टडीज इन सोशल साइंसेज में सांस्कृतिक अध्ययन के प्रोफेसर मानस रॉय कहते हैं, ''यह नुस्खा उतना नया भी नहीं है. लंबे समय से यूपी में जबरन शिष्टाचार कायम करने के लिए भाजपा ऐसे प्रयोग करती रही है." मसलन, 2005 में चले ऑपरेशन मजनूं में मेरठ पुलिस ने कैमरे के सामने जोड़ों को परेशान किया था और उनकी पिटाई की थी. इसकी काफी आलोचना हुई थी और इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग को भी संज्ञान लेना पड़ा था. रॉय याद दिलाते हैं कि इसमें कुछ पुलिसवालों का निलंबन भी हुआ था. योगी आदित्यनाथ ने 2002 में दक्षिणपंथी युवा संगठन हिंदू युवा वाहिनी बनाई थी. इस पर कई बार सांप्रदायिक तनाव पैदा करने और ऐंटी-रोमियो छापामार दस्ते के रूप में छापा मरने के आरोप लगे. इसके सदस्य कहते हैं, ''लड़कियों को लड़कों से मिलना भी नहीं चाहिए."
पुलिसिया राज?
विश्वनाथन के हिसाब से देखें तो लोगों को इधर-उधर टहलने देने से रोकने वाले ऐंटी-रोमियो दस्ते ''तकरीबन इमरजेंसी जैसे" जान पड़ते हैं. करात चेतावनी देती हैं कि यूपी में पुलिसिया राज कायम होने जा रहा है. वे कहती हैं, ''योगी आदित्यनाथ अगर वास्तव में सड़क पर होने वाली छेड़छाड़ को रोकने को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें 2013 की जस्टिस वर्मा आयोग की सिफारिशों को एक बार देख लेना चाहिए." पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता में बने तीन सदस्यीय आयोग ने यौन अपराधों के लिए बने कानूनों की समीक्षा करते हुए कहा था कि यौन अपराधों के बढऩे की मूल वजह ''प्रशासन की नाकामी" है.
देश भर में पुलिस सड़क पर होने वाली छेड़छाड़ की घटनाओं को रोकने के अनूठे तरीके ईजाद करने में लगी है जो इतने दमनकारी नहीं हैं. इस मामले में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश अव्वल हैं. इस साल विजयवाड़ा शहर में शुरू किए गए महिला रक्षक कार्यक्रम में जासूसी कैमरों, सीसीटीवी और बेहतर प्रकाश व्यवस्था का इस्तेमाल किया जा रहा है. ऐसे ही 2015 में दिल्ली विश्वविद्यालय में एक अभियान छेड़ा गया था जहां कॉलेज की लड़कियां अपराध-आशंकित क्षेत्रों में महिला पुलिसकर्मियों के साथ जाया करती थीं. लोकसभा सांसद कल्वकुंतला कविता कहती हैं, ''यूपी को तेलंगाना के अनुभव से सबक लेना चाहिए", जहां सादे कपड़ों में टहलते पुलिसकर्मी मनचलों की पहचान के लिए जासूसी कैमरों का इस्तेमाल करते हैं.
इस बीच, नए-नए सवाल पैदा हो रहे हैं. मसलन, क्या किसी तीसरे इनसान को छेड़छाड़ पर अंकुश लगाने के नाम पर प्रेम संबंधों या अंतरंग रिश्तों में दखल देने का अधिकार है? क्या पुलिस को हर आदमी पर मनमाने तरीके से संदेह करने, उसकी निजता में दखल देने, कहीं भी किसी भी हालत में परेशान करने, पूछताछ करने का अधिकार है? उत्तर प्रदेश या किसी भी राज्य में सड़कों को सुरक्षित करने कीखातिर कदम उठाने के पहले इन सवालों और ऐसे ही दूसरे सवालों पर गौर करना लाजिमी होगा. व्यापक तस्वीर को अगर समझें, तो शायद सड़क पर स्त्री-पुरुषों को देखने का सही नजरिया हम विकसित कर सकेंगे.
—साथ में आशीष मिश्रा, लखनऊ में, और चिंकी सिन्हा, दिल्ली में