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उत्तराखंड चुनाव: बीजेपी को मुद्दे नहीं मोदी का सहारा

उत्तराखंड में दलों से ज्यादा अहमियत दलबदलू चेहरों की है. लेकिन कई जगहों पर बागी उन्हें कड़ी चुनौती दे रहे.

श्रीनगर के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में प्रचार करते बीजेपी उम्मीदवार धन सिंह रावत श्रीनगर के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में प्रचार करते बीजेपी उम्मीदवार धन सिंह रावत
संतोष कुमार
  • नई दिल्ली,
  • 08 फरवरी 2017,
  • अपडेटेड 2:55 PM IST

सर्दी की अलसाई सुबह. दिल्ली से उत्तराखंड में प्रवेश करते ही गहरी धुंध की चादर में लिपटी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की इठलाती हुई तस्वीरों वाली बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स चुनावी फिजा की दस्तक देती हैं. लेकिन ''पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी पहाड़ के काम नहीं आते'' यानी पलायन रोकने का भरोसा देने वाले प्रधानमंत्री के बयान पर शायद जनता को एतबार नहीं. गढ़वाल के श्रीनगर विधानसभा क्षेत्र के चौंरीखाल में सड़क के किनारे किराए की दुकान लेकर चाय बेचने वाले बुजुर्ग दंपती जगतराम और शशिकला धस्माना का बेटा पुणे में नौकरी करता है. शशिकला कहती हैं, ''हम 35 साल से यहां दुकान चला रहे हैं, लेकिन न पानी की सुविधा है और न रोजगार. इसलिए बेटे को जबरन बाहर भेज दिया ताकि उसका भविष्य खराब न हो.'' धस्माना दंपती को किसी भी राजनैतिक दल पर भरोसा नहीं. वे कहते हैं, ''हर बार चुनाव में नेता आते हैं, वादा करके चले जाते हैं. वोट किसी भी दल को नहीं देना चाहते, लेकिन मजबूरी है सो देना होगा. पुरानों को देख लिया, नए को भी मौका देकर देखेंगे.'' पहाड़ से पलायन को रेखांकित करने वाली ऐसी कहानियां जनता के दिलों में आम हैं पर नेताओं के एजेंडे में नहीं दिख रहीं. जबकि पर्वतीय राज्य के नाम पर हुए उत्तराखंड के गठन से अब तक अनुमान के मुताबिक 32 लाख लोगों का पलायन हो चुका है.

श्रीनगर विधानसभा सीट से कांग्रेस के गणेश गोदियाल दो बार से विधायक हैं तो बीजेपी ने अपने पूर्व संगठन मंत्री धन सिंह रावत पर दूसरी बार दांव आजमाया है. पौड़ी से 125 किमी दूर थलीसैंण होकर उफरैंखाल से आगे बढ़ते हुए अचानक ढोल की आवाज सुनाई देती है. ऊबड़-खाबड़ मुख्य सड़क पर गाड़ी रोककर करीब एक-डेढ़ किलोमीटर पैदल पहाड़ी पगडंडी से नीचे उतरते ही कल्याणखाल गांव में रावत जनसंपर्क करते नजर आ जाते हैं. आधुनिक प्रचार शैली से दूर दुर्गम पहाडिय़ों में बसे छोटे गांव में ढोल, पिपिहरी के जरिए परंपरागत तरीके का अनूठा प्रचार जो मैदानी इलाकों में गाडिय़ों के काफिले, झक सफेद कुर्ते-पाजामे वाले नेताओं की टीम वाले चुनाव अभियान से कोसों दूर है. पहाड़ों में चुनाव के ऐसे रंग इक्के-दुक्के ही मिलते हैं. बीजेपी की सरकार बनने की स्थिति में तुरूप का पत्ता और मोदी-शाह के बेहद करीबी माने जाने वाले रावत पलायन को लेकर बेबाक राय रखते हैं, ''पलायन रोकने को लेकर एक ठोस नीति बनानी होगी, वरना जिस तेजी से पलायन हो रहा है, उससे पहाड़ ही खाली हो जाएंगे और पर्वतीय राज्य का मुद्दा खत्म हो जाएगा.''

मुद्दा विहीन हुआ चुनाव
चुनाव से ठीक छह महीने पहले सत्ता के तख्तापलट को लेकर कांग्रेस-बीजेपी के दंगल ने चुनाव में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है. चुनावी अखाड़े में किस्मत आजमा रहे चेहरों ने खेमा बदल लिया है, इसलिए विकास या भ्रष्टाचार के मुद्दे पूरी तरह गौण हो गए हैं. पहले बीजेपी जिन्हें भ्रष्टाचारी कहकर आंदोलन कर रही थी, अब वही चेहरे उसके हमराही हो गए हैं. बीजेपी का कांग्रेसीकरण हो गया है तो कांग्रेस ने भी बीजेपी के बागियों को गले लगा लिया है. स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी और यातायात यहां की मुख्य समस्या है, लेकिन इस बार चुनाव में मुद्दों की जगह दल-बदल वाले चेहरे और परिवारवाद ही चर्चा के केंद्र में हैं और पार्टियां नदारद दिख रही हैं. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट कहते हैं, ''भय, भ्रष्टाचार के खिलाफ उत्तराखंड को बचाने की ललक जनता में दिख रही है.'' जबकि प्रदेश सरकार में मंत्री और कोटद्वार से कांग्रेस उम्मीदवार सुरेंद्र सिंह नेगी का दावा है, ''हरीश रावत सरकार के विकास के काम पर जनता मुहर लगाने जा रही है.'' इन दावों से इतर गढ़वाल-कुमाऊं के मध्य स्थित गैरसैंण को राजधानी बनाने का मुद्दा पार्टियों के एजेंडे से गायब है, जबकि विधानसभा भवन, सचिवालय निर्माण का काम जोरों पर है.

तराई, गढ़वाल, कुमाऊं का गणित
उत्तराखंड में गढ़वाल और कुमाऊं दो मुख्य क्षेत्र हैं. विधानसभा की 41 सीटें गढ़वाल में हैं तो 29 सीटें कुमाऊं में. तराई को कुमाऊं का ही हिस्सा माना जाता है. हरिद्वार जिले से चुनावी यात्रा शुरू होते ही यहां की ज्यादातर सीटों पर पहली बार हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की आहट सुनाई पड़ती है. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर से सटा इलाका होने की वजह से 2013 के दंगों की छाप यहां दिख रही है. रुड़की में नानक डेरी के शर्मा जी कहते हैं, ''उत्तराखंड में हिंदू-मुसलमानों के बीच यूपी जैसा वैमनस्य नहीं है, लेकिन कांग्रेस की हरीश रावत सरकार ने जिस तरह से तुष्टीकरण किया है उससे उनके मुस्लिमपरस्त होने की छवि मजबूत हुई है.'' राज्य सरकार की ओर से नमाज के लिए अतिरिक्त छुट्टी का सरकारी आदेश जारी करने के अलावा खानपुर के लंढौरा गांव में प्रणव सिंह चैंपियन की किराए की दुकान में किराए को लेकर हुए विवाद को सांप्रदायिक रंग देने का मामला पर्याप्त मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र में मुखर है. रुड़की में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए प्रदीप बत्रा भगवा झंडा बुलंद कर रहे हैं तो बीजेपी के सुरेश जैन ने हाथ का दामन थामकर मुकाबला कड़ा कर दिया है.

इसके आगे हरिद्वार ग्रामीण सीट पर मुकाबला बेहद दिलचस्प नजर आता है. मुख्यमंत्री हरीश रावत यहां से उम्मीदवार हैं तो बीजेपी से मौजूदा विधायक स्वामी यतीश्वरानंद और बीएसपी से मुकर्रम मैदान में हैं. त्रिकोणीय मुकाबले में रावत की यह सीट फंसी हुई है. हालांकि वे दूसरी सीट किच्छा से भी चुनाव लड़ रहे हैं. आगे के सफर में कोटद्वार सीट का मुकाबला बेहद रोचक है. पिछले चुनाव में यहां से बी.सी. खंडूड़ी मैदान में थे और उनकी हार ने ही बीजेपी को सत्ता से महरूम कर दिया था. अब यहां से बीजेपी ने हरीश रावत सरकार के खिलाफ बगावत का बिगूल फूंकने वाले हरक सिंह रावत को टिकट दिया है. कांग्रेस से मौजूदा विधायक सुरेंद्र सिंह नेगी मैदान में हैं. यहां से बीजेपी के दावेदार शैलेंद्र सिंह रावत कांग्रेस में चले गए हैं, लेकिन उनके बीजेपी वाले वाल पेंटिग्स पर ही पुताई कर 'हरक' नाम चस्पा कर दिया गया है. सिगड्डी गांव के पूर्व सैनिक मनोहर कोटनाला को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उम्मीदवार कौन है. वे कहते हैं, ''हम तो मोदी जी के साथ हैं. केंद्र और राज्य में एक जैसी सरकार होनी चाहिए.'' हरक के खिलाफ बाहरी होने का ठप्पा है और उन्हें भी इसका एहसास है, इसलिए वे अपनी जनसभा में कहते हैं, ''स्थानीय नेता को आपने 35 साल देख लिया, एक बार बाहर वाले को मौका देकर देखिए.'' जबकि नेगी तंज कसते हैं, ''पिछली बार बड़े कद के नेता (खंडूड़ी) मेरे सामने थे. इस बार का चेहरा तो उनके सामने कहीं नहीं टिकता. जब कोटद्वार की जनता ने चरित्रवान, ईमानदार नेता की तुलना में मुझे उस समय भी बेहतर माना तो इस समय के उम्मीदवार से कोई तुलना भी नहीं हो सकती.'' हालांकि कुछ लोग यह भी मानते हैं कि हरक चुनाव प्रबंधन के माहिर हैं और आखिरी समय बड़ा खेल कर पासा पलट भी सकते हैं. यमकेश्वर सीट पर खंडूड़ी की बेटी ऋतु मैदान में हैं जहां कांग्रेस ने शैलेंद्र रावत को उतारा है. दोनों पार्टियों में बगावत की वजह से यहां भी मुकाबला कड़ा है तो चौबट्टाखाल सीट से बीजेपी का दामन थामने वाले सतपाल महाराज नया समीकरण गढ़ रहे हैं. उनके बारे में यह चर्चा है कि इस क्षेत्र से विधायक नहीं मुख्यमंत्री चुना जा रहा है. बीजेपी से सीएम पद के अन्य दावेदार अजय भट्ट भी रानीखेत से कड़े मुकाबले में फंसे हैं. यहां से पिछली बार वे महज 78 वोट से जीते थे. उनके मुकाबले कांग्रेस के करन माहरा ने पूरा जोर लगा रखा है. लेकिन सामाजिक समीकरण को दुरुस्त करने के लिए बीजेपी ने जो दलित दांव खेला है, उसमें पार्टी को मुश्किल का भी सामना करना पड़ रहा है. कांग्रेस के दिग्गज नेता यशपाल आर्य के बीजेपी में आने के चंद घंटों के भीतर बाजपुर से टिकट दे दिया गया तो उनके बेटे संजीव आर्य को नैनीताल सीट से. बाजपुर सीट से कांग्रेस ने पूर्व बीजेपी नेता जगतार सिंह बाजवा की पत्नी सुनीता टम्टा बाजवा को टिकट देकर आर्य को सामाजिक समीकरण में उलझा दिया है. एक स्थानीय बीजेपी नेता कहते हैं, ''अगर आर्य कांग्रेस से लड़ते तो उन्हें प्रचार करने के लिए क्षेत्र में आने की जरूरत भी न थी. उनका काम यहां साफ दिखता है. अब उन्हें खुद और बेटे को जिताने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ रही है.'' इस सीट पर 24 फीसदी पंजाबी सिख, 21 फीसदी मुसलमान और 19 फीसदी दलित वोट हैं जो निर्णायक भूमिका निभाते हैं. समीकरण के लिहाज से सिख-दलित समीकरण सुनीता के साथ है और मुस्लिम वोट परंपरागत तौर पर कांग्रेस का माना जाता है.

हालांकि बाजपुर में आर्य एक ऐसा चेहरा माने जाने लगे हैं जो सामाजिक समीकरण का बैरियर तोड़ जीत दर्ज कर सकते हैं. बीजेपी ने भी इस सीट को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया है इसलिए संघ पृष्ठभूमि के नेता और टिकट के प्रबल दावेदार राजेश कुमार साए की तरह आर्य के साथ घूम रहे हैं. आर्य का कहना है कि उत्तराखंड में कांग्रेस अब एक गुट विशेष की पार्टी रह गई है जिसका कोई सिद्धांत नहीं, इसलिए भारी मन से 40 साल पुरानी कांग्रेस को छोडऩा पड़ा. अब बीजेपी की रणनीति इन तीनों क्षेत्रों में प्रधानमंत्री मोदी की जनसभा कराने की है ताकि कांटे के मुकाबले को भगवा लहर में बदला जा सके. इसके लिए श्रीनगर, रुद्रप्रयाग और हरिद्वार में जनसभा होगी.

मोदी बनाम रावत

उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में इस बार जिस तरह से बागियों का बोलबाला है, उससे चुनावी बहस की दिशा ही बदल चुकी है. तराई में सामाजिक समीकरण तो कुमाऊं में स्थानीय समस्या और गढ़वाल में चेहरे अहम हो गए हैं. नोटबंदी को लेकर जनता में अब कोई रोष, कोई गुस्सा नहीं है, लेकिन रुड़की से लेकर गढ़वाल के श्रीनगर और यमकेश्वर तक व्यापारी व्यापार पर असर पडऩे के बावजूद कहते हैं, ''नुक्सान तो हुआ है, लेकिन बीजेपी के अलावा कहां जाएंगे?'' एक सरकारी अधिकारी कहते हैं, ''वन रैंक, वन पेंशन और सेना प्रमुख के तौर पर बिपिन रावत की नियुक्ति से लोगों में मोदी सरकार से उम्मीद जगी है, इसलिए वे सूबे में भी बीजेपी की सरकार चाहते हैं.'' जबकि दूसरी तरफ मार्च में बर्खास्तगी वाले मुद्दे से उपजी सहानुभूति को मुख्यमंत्री हरीश रावत बरकरार नहीं रख पाए. बीजेपी भी सतर्क है, इसलिए विधायक खरीद-फरोख्त वाले मामले में सीबीआइ मुकदमा दर्ज करने के बावजूद ज्यादा तेजी नहीं दिखा रही क्योंकि इससे रावत फिर सहानुभूति का लाभ उठा सकते हैं. सूत्रों के मुताबिक, रावत ने खास तौर से उन सीटों पर माइक्रोमैनेजमेंट किया है जिन पर बागी बीजेपी से चुनाव लड़ रहे हैं. जबकि बीजेपी के ज्यादातर उम्मीदवार मोदी की छवि में ही अपनी जीत का प्रतिबिंब देख रहे हैं.

बागी बिगाड़ेंगे समीकरण
उत्तराखंड के चुनावी मुकाबले में तराई की कुछ सीटों पर बीएसपी भी ताकत लगा रही है. वैसे, असली मुकाबला बीजेपी-कांग्रेस के बीच है लेकिन दोनों पार्टियों का समीकरण बागी ही बिगाड़ रहे हैं. नामांकन वापस लेने की मियाद खत्म होने के बाद बीजेपी के 25 तो कांग्रेस के 28 बागी मैदान में डटे हैं. कांग्रेस से हरीश रावत का राजनैतिक करियर दाव पर है तो बीजेपी ने बिना चेहरे के ही मैदान में उतरने का फैसला कर भितरघात की संभावना बढ़ा दी है. इस बार बीजेपी से सतपाल महाराज ने चुनाव लडऩे की इच्छा जता दी, लेकिन चौबट्टाखाल सीट पर पूर्व सीएम रमेश पोखरियाल निशंक के करीबी माने जाने वाले कवींद्र इष्टवाल महाराज का समीकरण बिगाडऩे के लिए निर्दलीय मैदान में उतर चुके हैं. अजय भट्ट के क्षेत्र में भी पार्टी के बागी प्रमोद नैनवाल मैदान में हैं. इसके अलावा धन सिंह रावत और त्रिवेंद्र सिंह रावत भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं. लेकिन सूत्रों के मुताबिक, बीजेपी के चारों पूर्व सीएम सतपाल महाराज को मैदान में उतारने से खुश नहीं हैं.

इस बार पहाड़ की लड़ाई बेहद रोचक हो चुकी है. अगर जनता ने बागियों को पसंद नहीं किया तो निर्दलीय किंगमेकर की भूमिका में आ सकते हैं. लेकिन फिलहाल कांटे के मुकाबले में मोदी की छवि को सामने रख बढ़त बना चुकी बीजेपी अति आत्मविश्वास में है, जबकि हरीश रावत माइक्रोमैनेजमेंट के सहारे बीजेपी को पटखनी देने की रणनीति बना चुके हैं.

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