
वो पेड़ पर बैठा था. आप मंच पर. वो पेड़ से नहीं उतरा. आप मंच से नहीं उतरे. फर्क ये कि वो दुनिया छोड़ गया और आप सब इंसानियत छोड़ गए. और अब उसी गजेंद्र की मौत पर सारे नेता बोल रहे हैं. खूब बोल रहे हैं. पर फिर आखिर में ये भी कह रहे हैं कि इस मौत पर राजनीति नहीं होनी चाहिए. अब अपने नेताओं से कोई पूछे कि फिर राजनीति कर कौन रहा है?
बोल सब रहे हैं. पर कह कोई नहीं रहा. कोई नहीं कह रहा कि आखिर गजेंद्र की मौत का जिम्मेदार है कौन? गजेंद्र तो दिल्ली के जंतर-मंतर से अस्पताल होते हुए अपने गांव जाकर पंचतत्व में विलीन भी हो गया. लेकिन गिद्ध बन कर संवेदना के शव पर चक्कर लगते अपने नेता अब भी बाज़ नहीं आ रहे. शहादत में लपेट कर मौत का मोल लगाते हुए कोई कागज के चंद टुकड़े देने का ऐलान कर रहा है तो कोई गजेंद्र के बहाने सूखे खेत पर अपनी सियासी फसल काटने में लग गया है. अचानक देश का किसान सबको प्यारा हो गया है.
केजरीवाल साहब, आप आम आदमी-आम आदमी रटते नहीं थकते. आपकी हर बात, हर वादा, हर लड़ाई, हर धरना आम आदमी से शुरू होकर पर आम आदमी पर ही खत्म होता है. फिर आप तो उनमें से हैं जो कहते हैं कि वीआईपी कल्चर खत्म करना है, आम आदमी को खुद उठ कर खुद आगे बढ़ कर काम करना है. पर यहां आपकी आंखों के सामने एक आम आदमी पेड़ पर चढ़ता है. बाकायदा गले में फंदा कसता है. फिर पूरी तसल्ली से वहीं इंतजार करता है. आप सब रहे थे. आप सब जान रहे थे. पर कर क्या रहे थे? इंतजार? कि वो लटक जाए फिर आप हरकत में आएंगे. अरे आप अगर एक नागरिक होने की जिम्मेदारी ही उस वक्त निभा लेते तो आपको मनीष सिसोदिया को साथ लेकर फिर अस्पताल जाने की जरूरत भी नहीं पड़ती.
केजरीवाल साहब...आप तो आप. आपके खास कुमार विश्वास के बारे में क्या कहें...गजेंद्र को पेड़ पर टंगा देख रहे हैं बाकायदा मंच से पूछ रहे हैं लटक गया क्या? और फिर लगे हाथों दिल्ली पुलिस की लानत-मलामत शुरू कर देते हैं. विश्वास साहब कवि भी हैं. कहते हैं कवि का दिल बड़ा कोमल होता है. पुलिस को लानत भेजने की बजाय अगर मंच से उतर कर 25 कदम खुद चल लेते तो गजेंद्र बच जाता.
रही बात दिल्ली पुलिस की. तो पुलिस अमूमन मौके पर देर से पहुंचने के लिए बदनाम है. पर यहां तो हादसे से पहले से ही पुलिस मौजूद थी. बस वक्त रहते उसे पेड़ पर चढ़ना था. पर वो भी वक्त रहते पेड़ पर नहीं चढ़ पाई. इस पेड़ पर बुधवार को सिर्फ गजेंद्र की मौत नहीं हुई...बल्कि उसके साथ इंसानियत भी दम तोड़ गई. अब उसकी मौत पर गरजने और जहर उगलने वालों जितना भी गरजो गजेंद्र को उसका मुआवजा नहीं दे सकते. क्या गजेंद्र वाकई खुदकुशी करना चाहता था? क्या वो खुदकुशी करने के लिए ही सैकड़ों मील दूर दौसा से चल कर दिल्ली पहुंचा था? या फिर वो किसी के उकसावे में आकर हादसे का शिकार हो गया? ये सवाल हम नहीं उठा रहे...बल्कि ये कहना है खुद गजेंद्र के घरवालों का...जिसने अपनी मौत से पहले घरवालों से कहा था कि वो टीवी पर आज टीवी पर आएगा. और दोपहर के डेढ़ बजते-बजते वो सचमुच टीवी पर आ गया. ऐसा आया कि पूरे देश ने लाइव देखा. उसे और उसकी मौत को.
पर सवाल अब ये है कि गजेंद्र पेड़ पर चढ़ कर सिर्फ तमाशे के तौर पर टीवी पर आना चाहता था या फिर लाइव अपनी मौत दिखाने के लिए? अगर वो सचमुच खुदकुशी करने का मन पहले से बना चुका था और इसीलिए दिल्ली के जंतर-मंतर तक पहुंचा था तो फिर उसकी आखिरी पर्ची में खुदकुशी का कोई जिक्र क्यों नहीं था? दौसा में हुई ओलों की बारिश से बेशक गजेंद्र की फसल को नुकसान हुआ था...लेकिन ये कोई ऐसी वजह नहीं थी कि वो सीधे खुदकुशी कर लेता...और वो भी घर से सैकड़ों मील दूर दिल्ली के दिल्ली पुलिस ने आम आदमी पार्टी की रैली से पहले उसे दो चिट्ठियां लिखीं थी...और दोनों ही चिट्ठियों में रैली में 5 हजार से ज्यादा भीड़ ना जुटाने की ताकीद की थी. साथ ही ये भी कहा था कि अगर ऐसा हुआ तो अनहोनी हो सकती है. और पुलिस की मानें तो रैली में 5 हजार से ज्यादा की भीड़ जुट गई थी. तो क्या आम आदमी पार्टी की रैली में किसी अनहोनी का अंदेशा दिल्ली पुलिस को पहले से था?