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इस बात पर बहस हो सकती है कि लेखक जन्मजात होते हैं या नहीं पर इतना तय है कि कुछ लोग लिखने के लिए ही पैदा होते हैं और पाठकों का मिजाज जानने की वजह से वे मकबूल हो जाते हैं. जिस टारगेट ऑडिएंस को पहचानने में बड़े-बड़े पत्रकार और संपादक हार गए, जिस कॉपी को लिखने में धांसू लिक्खाड़ हांफ गए, उस पाठक को पहचानने की गुत्थी मेरठ में बैठे एक शख्स की मुट्ठी में पिछले चार दशकों से बंद है. शास्त्रीनगर स्थित अपनी कोठी के एक शांत कमरे में बैठकर अधमुंदी आंखों से जब वे स्टोरी का प्लॉट जमाते हैं और कहानी के तार जोड़ते हैं तो किसी साधक से कम नहीं लगते. कैरेक्टर और वेद प्रकाश शर्मा के बीच कोई खटपट, जरा-सी आहट और यहां तक कि चाय का कप लिए बीवी मधु शर्मा को भी आने की इजाजत नहीं होती.
1972 में हाइस्कूल का पेपर देने के बाद गर्मी की छुट्टियों में उन्हें उनके अपने पैतृक गांव बिहरा भेज दिया गया. वे अपने साथ कोई एक दर्जन उपन्यास ले गए थे लेकिन ‘दो घंटे में एक नॉवेल पढ़ डालने वाले’ वेद प्रकाश का वहां न कोई दोस्त था, न कोई फ्रेंड सर्कल. उन्होंने लिखना शुरू किया और लिखते-लिखते एक कॉपी, दो कॉपी, कई कॉपी भर गईं. मेरठ पहुंचने पर यह बात उनके पिता को मालूम हुई. ‘‘वे शाम को घर आए और दे लट्ठ, दे लट्ठ, मुझ पर लट्ठ बजाना शुरू कर दिया.’’ मां ने पिटाई की वजह पूछी तो जवाब था: ‘‘अब तक तो पढ़ै था, अब इसनै लिख दिया. इसनै तो उपन्यास लिख दिया. यह लड़का तो बिगड़ गया.’’ फिर पिता ने बोला, ‘‘क्या लिखा है, तैने? मुझै लाके दे.’’ किशोर वेद प्रकाश ने कॉपियां उन्हें लाकर दे दीं. और इसके बाद तो मानो उनके लिए उपन्यासकार बनने का रास्ता ही खुल गया.
उपन्यासों की झड़ी
पिता ने सुबह कहा, ‘‘बहोत अच्छा लिखा है तैने. यह दिमाग में कहां से आ गई?’’ पिता स्क्रिप्ट लेकर प्रेस में कंपोजिंग सिखाने ले गए. वहां मानो उनकी किस्मत उनका इंतजार कर रही थी. नामी उपन्यासकारों के नकली उपन्यास छापने वाले लक्ष्मी पॉकेट बुक्स के मालिक जंग बहादुर वहां अपने किसी उपन्यास का प्रूफ देखने आए थे. थोड़ी देर इंतजार करने के बाद वे पास में रखी स्क्रिप्ट को पढऩे लगे. चंद पन्ने पढ़कर बोले कि यह ठीक-सा लग रहा है, ‘‘इसे पूरी पढऩे के लिए ले जाऊं?’’ वे तीन-चार घंटे बाद लौटे और वेद प्रकाश के पिता से पूछा, ‘‘लिखा किसने है? बहुत बढिय़ा लिखा है.’’ जब उन्हें हकीकत बताई गई तो बोले, ‘‘पहले बता देते तो पढ़ता ही नहीं.’’
फिर जंग बहादुर ने उन्हें अपने ऑफिस बुलाया और टेबल पर 100 रु. रखते हुए कहा, ‘‘और लिख, मैं तुझे हर नॉवेल के 100 रु. दूंगा.’’ उन्होंने सोचा कि राइटर को और क्या चाहिए, उपन्यास छपेगा, नाम के साथ फोटो छपेगी. लेकिन जंग बहादुर ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया, ‘‘फोटू-वोटू की कोई बात नहीं, यह जो है तेरे नाम से नहीं छपने वाला. यह वेद प्रकाश कांबोज के नाम से छपेगा.’’ उन्होंने टेबल से स्क्रिप्ट सरकाई और घर चले गए.
दिसंबर, 1972 में उन्हें लगा कि जंग बहादुर सही कह रहे थे. सीक्रेट फाइल नामक उपन्यास वेद प्रकाश कांबोज के नाम से छपा. एक के बाद एक उपन्यास से ‘नकली’ कांबोज की लोकप्रियता बढऩे लगी. माधुरी प्रकाशन ने नाम छापा लेकिन पूरा नहीं. उधर जंग बहादुर ने आग के बेटे (1973) के मुखपृष्ठ पर वेद प्रकाश शर्मा का पूरा नाम छापा लेकिन फोटो फिर भी नहीं छपी. लेकिन उसी साल ज्योति प्रकाशन और माधुरी प्रकाशन दोनों ने नाम के साथ फोटो भी छापना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे उनके उपन्यास 50,000 और फिर एक लाख छपने लगे. उनके सौवें नॉवेल कैदी नं. 100 की 2,50,000 प्रतियां छपीं.
इसके बाद उन्होंने 1985 में खुद अपना प्रकाशन शुरू किया: तुलसी पॉकेट बुक्स. उनके कुल 176 उन्यासों में से 70 इसी ने छापे हैं. लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा लोकप्रियता 1993 में वर्दी वाला गुंडा से मिली जिसके बारे में उनका दावा है कि 15 लाख प्रतियां पहली बार छापी गई थीं. इस उपन्यास ने तहलका मचा दिया था.
पाठकों की नब्ज पर पकड़
और आम बोलचाल की भाषा में लिखने वाले वेद प्रकाश शर्मा देश में सबसे ज्यादा बिकाऊ लेखक बन गए. वे कहते हैं, ‘‘अखबारों और अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं से विषय चुनता हूं.’’ एक बार वे मेरठ में बेगमपुल के पास घूम रहे थे, ‘‘तभी एक दारोगा को कुछ लोगों पर ऐसे डंडे बरसाते देखा, मानो कोई गुंडा हो.’’ इस तरह वर्दीवाला गुंडा का विचार पनपा. एक बार पत्नी के साथ कश्मीर के पहलगांव में शाम को सन्नाटे में बीवी का हाथ थामकर जा रहे थे. डर लग रहा था और इस तरह हत्या एक सुहागिन की का प्लॉट सूझा.
अपनी इसी सूझ-बूझ की वजह से वे हिंदीभाषी क्षेत्र में युवाओं के पसंदीदा लेखक हैं. अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों में उनके दर्जनों नॉवेल पढ़ चुके मेरठ के डीएम नवदीप रिणवा कहते हैं, ‘‘उन्होंने हमें थ्रिल किया है.’’ उन्होंने अपने उपन्यासों में कहीं सेक्स का इस्तेमाल नहीं किया है, जिसकी वजह से बड़े-बूढ़े नॉवेल पढऩे से मना करते थे. मुंशी प्रेमचंद के प्रशंसक इस उपन्यासकार का कहना है, ‘‘हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम सस्ता साहित्य या पल्प लिटरेचर लिखते हैं. मैं विभिन्न सामाजिक मुद्दों को मनोरंजक तरीके से उठाकर उनका समाधान पेश करता हूं.’’
युवाओं और महिलाओं को उनका यह तरीका बेहद पसंद है और इतने बड़े वर्ग तक पहुंच रखने वाले इस उपन्यासकार को बॉलीवुड भला कैसे नजरअंदाज कर सकता था? 1985 में उनके उपन्यास बहू मांगे इंसाफ पर शशिलाल नायर के निर्देशन में बहू की आवाज फिल्म बनी. इसके दस साल बाद सबसे बड़ा खिलाड़ी (उपन्यास ‘‘लिल्लू’’) और 1999 में इंटरनेशनल खिलाड़ी बनी. मजेदार बात यह कि उन्होंने बाद की दो फिल्मों का स्क्रीनप्ले और डायलॉग खुद लिखे लेकिन सिर्फ फिल्म के लिए कोई कहानी कभी नहीं लिखी. बालाजी टेलीफिल्म्स का सीरियल केशव पंडित इसी नाम के नॉवेल पर आधारित है. हाल में उनका एक उपन्यास डायन आया है, जिसके बारे में उनका स्पष्ट कहना है कि इसका एकता की फिल्म एक थी डायन से कोई वास्ता नहीं है, हालांकि वे एकता की कंपनी के आइडिएटर हैं. सामाजिक मुद्दों पर फिल्म बनाने वाले आमिर खान ने हाल में उनसे मुलाकात की है और दोनों एक फिल्म पर काम कर रहे हैं.
अपनी कोठी की बगल में फैंसी लाइट्स के शोरूम बेसमेंट में तुलसी पॉकेट बुक्स के दफ्तर में बैठे वेद प्रकाश यादों में खो जाते हैं: ‘‘मेरे मामा ने मां से कहा कि तू किन चक्करों में पड़ी है? तू इन लड़कों को किसी हलवाई की दुकान पर भेज. वहां कमाएंगे तो दो पैसे लाएंगे, तो परिवार चलेगा. मां ने मामा को डांटकर भगा दिया, यह मेरा परिवार है मैं देख लूंगी. मेरे बच्चे पढ़ेंगे-लिखेंगे और मैं काम करूंगी.’’ उनकी मां गांव से आई अनपढ़ महिला थीं, लेकिन उनकी हिम्मत-हौसले को याद कर वेद प्रकाश की आंखें कुछ नम हो जाती हैं. वे कहते हैं, ‘‘मुझे मदर इंडिया फिल्म सबसे अच्छी लगती है.’’
जीवन और समाज को करीब से देखने वाले वेद प्रकाश की तीन बेटियां (करिश्मा, गरिमा और खुशबू) और उपन्यासकार बेटा शगुन शादीशुदा हैं. उनके उपन्यासों की पहली पाठक उनकी पत्नी मधु का कहना है, ‘‘बच्चे मुझसे ज्यादा उन्हीं से अटैच्ड हैं. वे इतना लिखने के बावजूद बहुत सोशल हैं.’’ बहू राधा भी इसकी तस्दीक करती हैं.
वेद प्रकाश चाहते हैं कि उन्हें ऐसे लेखक के रूप में याद किया जाए जो लोगों का मनोरंजन करते हुए उन्हें सामाजिक संदेश पहुंचा सका. आम लोगों की बोलचाल में सहज संवाद ही उनकी सबसे बड़ी पूंजी है.
-साथ में लोकेश पंडित