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जल-प्रबंधन: पानी की फिर से प्रतिष्ठा

जलसंकट वाले इलाकों में जलस्रोतों को स्वावलंबी ढंग से जिंदा कर रही एक संस्था.

मनु कौशिक
  • जयपुर,
  • 01 फरवरी 2013,
  • अपडेटेड 10:59 AM IST

राजस्थान में अलवर जिले के पैडिय़ाला गांव के प्रभात मीणा तीन साल पहले तक अपनी छह एकड़ काश्त में सिर्फ आधा एकड़ जोतते थे. सात बच्चों वाले कुल नौ लोगों के परिवार का पेट भर रहे मीणा के लिए यह एक तरह की मजबूरी थी क्योंकि इलाके में पानी

की जबरदस्त कमी थी. आज वे बाकी साढ़े पांच एकड़ में भी खेती कर रहे हैं और इसका श्रेय अलवर के एनजीओ तरुण भारत संघ को जाता है. पिछले तीन साल में मीणा के गांव में भूजल स्तर धीरे-धीरे बढ़ा है. इसकी वजह यह है कि संघ ने पास में बहने वाली अरवारी नदी में जान फूंक दी. पिछले दो दशक में तरुण भारत संघ ने इस नदी को जिंदा करने के लिए 500 वर्ग किमी के इलाके में कुल 402 चेक डैम आदि बनाए, जिससे कि गांवों को ट्यूबवेल और बोरवेल के माध्यम से पानी मुहैया हो सके. पानी आने के बाद पैडिय़ाला की तस्वीर बदली हुई है. मीणा कहते हैं, ''पहले हम जो कुछ उपजा पाते थे, वही खाते थे. आज बाजार में बेचने भर का पैदा करता और 70,000 रु. सालाना कमा रहा हूं. ''

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तरुण भारत संघ वैसे तो 1975 से काम कर रहा है, लेकिन पिछले दो दशक में उसकी गतिविधियां तेज हुई हैं. इसके अध्यक्ष राजेंद्र सिंह का मानना था कि लोगों तक पानी पहुंचा दिया जाए तो उनकी आजीविका पर फर्क डाला जा सकता है. इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने जल संरक्षण पर काम केंद्रित किया. इन वर्षों के दौरान संघ ने भूजल को शुद्ध करने के लिए वर्षा जल संग्रहण के ढांचे बनाए और राजस्थान के 1,200 बंजर होते गांवों की पारिस्थितिकी को बहाल किया है. उसने 2002 में काम का विस्तार उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और झारखंड में किया है.

संघ ने सात नदियों को जीवित किया है, पारिस्थितिकी को बहाल किया है, खेतों की उपज बढ़ाई है और इस तरह लोगों की आय में इजाफा हुआ है. इससे हरियाली में 30 फीसदी का इजाफा हुआ है और कुछ इलाकों में तो खेती की जमीन 20 फीसदी से बढ़कर 80 फीसदी हो गई है. पशुपालकों के लिए चारे का पैदावार भी बढ़ गई है.

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राजेंद्र सिंह कहते हैं, ''हम तो बस लोगों के काम में उनकी मदद भर कर रहे हैं. हमारे सारे प्रयास गांवों की सक्रिय भागीदारी से ही संभव हो सके हैं. हम पानी के प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में बरसों पुराने पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. '' इन तरीकों में भंडारण टैंक, एनीकट, तालाब और चेकडैम बनाना शुमार है. राजेंद्र सिंह प्रशिक्षित आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं और उन्होंने करियर की शुरुआत सरकारी कार्यक्रम में स्वैच्छिक स्वास्थ्य सेवा कर्मी के तौर पर शुरू की थी, जिसके बाद वे जल प्रबंधन के काम में जुड़े. उन्हें 2001 में सामुदायिक नेतृत्व के लिए रैमन मैग्सायसाय पुरस्कार मिल चुका है.

तरुण भारत संघ ने अब तक अधिकांश काम अनौपचारिक तरीके से किया है. जलसंकट वाले गांवों से अगर सिंह की टीम के पास कोई अनुरोध आता है तो वे वहां की मिट्टी और इलाके की जांच करने और पानी की जरूरतों का अंदाजा लगाने के बाद लोगों को संगठित करते हैं. आर्थिक जिम्मा कौन कितना उठाएगा, इसकी योजना बनती है, फिर जल संग्रहण ढांचे का निर्माण शुरू होता है. गांव खुद ही पैसा जुटाकर मजदूरी और सामग्री की लागत निकालते हैं. सिंह कहते हैं, ''आर्थिक स्वावलंबन जरूरी है, सरकार के आने से भ्रष्टाचार आ जाएगा. ''

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किसी भी परियोजना के लिए उनकी संस्था 30 से 50 फीसदी का अनुदान देती है. इसके लिए संस्था को स्वीडिश इंटरनेशनल डेवलपमेंट को-ऑपरेशन एजेंसी से अनुदान मिलता है. सिंह कहते हैं, ''हमने कई बड़े संस्थानों से मदद लेने से मना कर दिया है. वे स्थानीय लोगों को शामिल नहीं करते. यह हमारे मॉडल के विपरीत है. ''

दुनिया भर में पानी की उपलब्धता का मौजूदा प्रति व्यक्ति मानक 1,700 घन मीटर सालाना है जिससे हम काफी नीचे हैं. राजेंद्र सिंह के जल संग्रहण के काम को व्यापक स्तर पर अपनाया जाए, तो हम पानी की कमी को दुरुस्त करने की दिशा में कुछ कदम आगे जा सकते हैं. 

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