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रबी की फसल पर बेमौसम बरसात की मार के बीच जब 22 अप्रैल को भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने मानसून पूर्वानुमान में सामान्य से कम यानी 93 फीसदी बारिश की बात कही, तो किसान से लेकर देश के प्रधान तक, सबको धक्का लगा. खासकर तब, जब निजी क्षेत्र की कंपनी स्काइमेट ने एक पखवाड़े पहले 6 अप्रैल को ही मानसून में सामान्य से थोड़ी ज्यादा यानी 102 फीसदी बारिश का पूर्वानुमान जताया था. फासला तब और बढ़ गया जब 2 जून को मौसम विभाग ने यही अनुमान घटाकर 88 फीसदी कर दिया. मौसम की भविष्यवाणी में दो एजेंसियों के आकलन में थोड़ा-बहुत अंतर होना सामान्य बात है, लेकिन मौसम विभाग से पहले अपना पूर्वानुमान पेश करती आई स्काइमेट और मौसम विभाग के अनुमान में इतना बड़ा अंतर एक दिलचस्प बहस के लिए काफी था.
सबसे पहले दोनों एजेंसियों की ताकत के बारे में जान लेना जरूरी है. मौसम विभाग के पास देश भर में फैले मौसम विज्ञान केंद्रों के जाल के साथ ही सैटेलाइट और अन्य तरह की सुविधाएं हैं. सरकारी एजेंसी दुनिया के 192 देशों, संयुक्त राष्ट्र और विकसित देशों की मौसम एजेंसियों के साथ डाटा साझा करती है. वैज्ञानिकों के 400 से अधिक पदों वाले मौसम विभाग के अलावा पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के वैज्ञानिकों और अन्य विभागों के बीच रिसर्च चलती रहती है. देश के सबसे बेहतरीन सुपर कंप्यूटर भी सरकार ने मौसम के लिए रख छोड़े हैं. भारतीय मौसम विभाग के महानिदेशक लक्ष्मण सिंह राठौर कहते हैं, ''आप इतना समझ लीजिए कि मौसम पूर्वानुमान के मामले में भारत दुनिया के किसी भी देश से पीछे नहीं है. बल्कि कई मामलों में हमने अमेरिकी एजेंसियों से बेहतर पूर्वानुमान व्यक्त किए हैं.''
दूसरी तरफ स्काइमेट के पास छोटी, लेकिन फुर्तीली सेना है. पूर्वानुमान व्यक्त करने वाली इसकी टीम में 25 के करीब वैज्ञानिक हैं. यहां मौसम पूर्वानुमान की कमान वायु सेना के मौसम विभाग के मुखिया रहे एयर वाइस मार्शल (रिटायर्ड) जी.पी. शर्मा संभालते हैं. शर्मा भी मानते हैं कि मौसम विभाग की तुलना में कंपनी का बुनियादी ढांचा बहुत छोटा है. उनके पास उतने तेज सुपर कंप्यूटर भी नहीं हैं. देश भर में उनके पास 2,500 से अधिक ऑबजर्वेटरी हैं, लेकिन मानसून का पूर्वानुमान जताने में इनकी उपयोगिता सीमित है. मानसून पूर्वानुमान के लिए स्काइमेट ग्लोबल एजेंसियों से डाटा लेती है और जरूरत के हिसाब से सैटेलाइट तस्वीरें खरीदती है. इस सबके बावजूद शर्मा कहते हैं, ''मौसम का पूर्वानुमान कंप्यूटर की क्षमता और डाटा जेनरेशन के अलावा लंबे अनुभव और बेहतर वर्क कल्चर की दरकार रखता है. हम यहीं बाकी लोगों को मात देते हैं.''
ये प्रवृत्तियां दोनों एजेंसियों के पूर्वानुमान के स्वरूप को तय करने में अहम भूमिका निभाती हैं. अपने पूर्वानुमानों में 4 फीसदी की घट-बढ़ की गुंजाइश मानकर चलने वाली दोनों एजेंसियों के पूर्वानुमान 2013 और 2014 में एक दूसरे से बहुत अलग नहीं थे. लेकिन इस बार जब मौसम विभाग जून में 88 फीसदी वर्षा का पूर्वानुमान लेकर आया तो उसने यह भी कहा कि जुलाई में 92 फीसदी और अगस्त में 90 फीसदी बारिश होगी. जून के बारे में मौसम विभाग ने अलग से कोई पूर्वानुमान नहीं जताया और सितंबर का पूर्वानुमान वह अगस्त के पहले हफ्ते में बताएगा. यानी विभाग फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है.
इसके उलट स्काइमेट ने जोखिम लेते हुए मई में जारी पूर्वानुमान में कहा कि जून में 107 फीसदी, जुलाई में 104 फीसदी, अगस्त में 99 फीसदी और सितंबर में 96 फीसदी बारिश होगी. लेकिन पहले दो महीने में उसके पूर्वानुमान निशाने से भटक गए. जून में 107 फीसदी की जगह 116 फीसदी बारिश हुई, वहीं जुलाई में 23 तारीख तक सामान्य से 24 फीसदी कम बारिश हुई है. यानी जुलाई का उनका पूर्वानुमान निशाने से काफी दूर है. ऐसे में अगर कहीं अगस्त और सितंबर के उसके पूर्वानुमान सटीक बैठे तो 102 फीसदी औसत बारिश की भविष्यवाणी खतरे में पड़ जाएगी. लेकिन इस गणित को खारिज करते हुए स्काइमेट के सीईओ जतिन सिंह कहते हैं, ''जुलाई अभी बीता नहीं है. थोड़ा इंतजार करिए. हम 102 फीसदी बारिश के पूर्वानुमान पर कायम हैं.'' साथ ही वे कहते हैं कि जुलाई के पूर्वानुमान में 16 फीसदी घट-बढ़ की मॉडल गुंजाइश रहती है और हमारा अनुमान पूरे मानसून के लिए है. हो सकता है, उनकी दलील सही हो. लेकिन सवाल उठना लाजिमी है कि जब हर महीने के पूर्वानुमान में इतनी बड़ी मॉडल एरर की गुंजाइश है तो कंपनी ने हर महीने का पूर्वानुमान देने का जोखिम उठाया ही क्यों? और हर महीने का औसत बिगडऩे के बाद चारों महीनों का औसत सही भी बैठ जाए तो उसे तीर कहेंगे या तुक्का?
वैसे, पूर्वानुमानों से इतर जून में अतिरिक्त बारिश का मतलब है—बेहतर खेती. राठौर कहते हैं, ''1 जून से 23 जुलाई तक देश में 7 फीसदी कम बारिश हुई है, लेकिन जून की अतिरिक्त बारिश फसल बुआई के समय हुई, इसलिए किसान के लिए अच्छी है.'' वहीं, मथुरा के कृषि विशेषज्ञ दिलीप कुमार यादव कहते हैं, ''किसान को वर्षा का आंकड़ा नहीं, सही समय पर वर्षा चाहिए.'' यानी मैक्रो इकोनॉमी को अगर चार महीने की बारिश के औसत से मतलब है, तो खेती को वर्षा की टाइमिंग से मतलब है.
भविष्यवाणी के इस आक्रामक दौर में नेशनल सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्टिंग, नोएडा के एक वरिष्ठ मौसम विज्ञानी दक्षिण कोरिया के जोजो आइलैंड में बीते 22 जून को हुई वल्र्ड मीटियोरोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन की महत्वपूर्ण बैठक की याद दिलाते हैं. इस बैठक में वैज्ञानिकों ने माना कि पूरी दुनिया में उपलब्ध अब तक का सबसे अच्छा यानी कपल्ड डायनामिक मॉडल भी मानसून की बहुत सटीक भविष्यवाणी करने में नाकाम है. वे कहते हैं, ''वहां वैज्ञानिकों ने माना कि आप मानसून को सामान्य या कम-ज्यादा कह सकते हैं, लेकिन फीसदी में सटीक भविष्यवाणियां करना अभी संभव नहीं है.'' ऐसे में मानूसन का पूर्वानुमान लगाने वाली एजेंसियों को सोचना होगा कि कहीं बड़बोली भविष्यवाणियां उनकी साख पर संकट न खड़ा कर दें.