
आह, बेचारे वादी, जेलों में अपने दिन काट रहे लोग.” उनकी आवाज थोड़ी-सी कंपकंपाई. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ देखा और कहा, “विकास और तरक्की के नाम पर मैं आपसे गुजारिश करता हूं कि मौके की नजाकत को समझें और देखें कि आलोचना करना ही काफी नहीं है.” वाक्य अधूरा छूट गया, शब्दों के बीच के ठहराव लंबे हो गए. एक झटके में सिर उठे और आंखें फैल गईं. यह उस शख्स की आवाज थी, जो अपनी जुबां को अपने जज्बात जाहिर करने से रोकने की जद्दोजहद कर रहा था. मगर यह महज कोई शख्स नहीं था. मंच पर खड़े यह देश के 43वें प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर थे. उनके जबड़े भिंचे हुए थे, नजरें फिरी हुई थीं, उनका हाथ अपनी आंखों को पोंछने के लिए रूमाल की तलाश में जेब में था. दिल्ली के विज्ञान भवन में 25 अप्रैल को सन्नाटा छा गया, हैरान-परेशान लोग एक दूसरे की ओर देखने लगे. प्रधानमंत्री मंच पर बैठे गंभीर नजरों से देख रहे थे.
दरअसल, प्रधान न्यायाधीश को कुल 37 मिनट और चार सेकंड लगे जब उन्होंने राष्ट्र को चौंककर ध्यान देने के लिए मजबूर कर दिया. यह ठीक उतना ही वक्त है जिसमें देश भर में न्यायाधीश औसतन 15 सुनवाइयां पूरी कर लेते हैं और सात मुकदमों का फैसला कर देते हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यस्ततम अदालतों के जज एक मुकदमे की सुनवाई में औसत 2.5 मिनट खर्च करते हैं और तकरीबन पांच मिनट में एक मुकदमे का फैसला सुना देते हैं. इसलिए नहीं कि हमारे जज किसी हड़बड़ी में हैं, बल्कि इसलिए कि देश में जजों की इस कदर कमी है कि वे एक मुकदमे को इससे ज्यादा वक्त बमुश्किल ही दे सकते हैं. जैसा कि 3 मार्च, 2016 को लोकसभा में जिक्र किया गया था, हाइकोर्टों में 44 फीसदी, निचली अदालतों में 25 फीसदी और सुप्रीम कोर्ट में 19 फीसदी जजों की कमी है.
चार नेक सचाइयां
प्रधान न्यायाधीश की तकरीर में दलील के चार पहलू थे. एक, जजों पर मुकदमों का भारी बोझ है. दो, न्यायपालिका के खाली पदों को नहीं भरा जा रहा है. तीन, नियुक्ति की प्रक्रिया अबूझ वजहों से सरकार के स्तर पर अटकी हुई है. चार, इंसाफ के पहियों को सुचारू रूप से नहीं घुमाया जाएगा, तो उसकी मार सबसे ज्यादा आम आदमी को झेलनी पड़ेगी. विधि आयोग 1987 से ही चीख रहा है, उसके साथ पिछले 29 साल में बने 15 प्रधान न्यायाधीश भी गुहार लगाते आ रहे हैं कि अदालतों और जजों की संख्या में भारी बढ़ोतरी करने की सख्त जरूरत है, तभी इंसाफ का असल मायने होगा. मगर इस जरूरत का सुर्खियां बनना भी बंद हो गया था. इंसाफ के तकाजे के प्रति प्रधान न्यायाधीश की जज्बाती अपील से यह फिर सुर्खियों में आ गया है. उसी दिन बाद में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रधान न्यायाधीश ने कहा, “जज्बाती होना कमजोरी की निशानी है, किसी को जज्बाती नहीं होना चाहिए... मगर न्यायपालिका के प्रति कुछ प्रतिबद्धता भी होती है.”
जाने-माने कानूनविद् राम जेठमलानी कहते हैं, “यह सरकारों की जानी-बूझी लापरवाही ही है जिसने न्यायपालिका को इस कदर अभावों की हालत में धकेल दिया है.” वे यह भी कहते हैं, “न्यायपालिका को बजट आवंटनों का महज 0.5 फीसदी ही मिलता है.” प्रधान न्यायाधीश के आंसुओं ने प्रधानमंत्री का भी ध्यान खींचा. 25 अप्रैल को उस आयोजन में मोदी का बोलना तय नहीं था. मगर मोदी ने माइक्रोफोन हाथ में लिया और कहा कि वे प्रधान न्यायाधीश का दर्द समझते हैं. उन्होंने प्रधान न्यायाधीश और उनके वरिष्ठ जजों को अपने और अपनी कैबिनेट के साथियों के साथ बंद कमरे में एक बैठक के लिए आमंत्रित किया, “आइए देखें कि अतीत के बोझ को कम करके आगे कैसे बढ़ा जाए.”
कठोर कार्यनीति
प्रधान न्यायाधीश ने सुप्रीम कोर्ट के वकीलों को भी हैरत में डाल दिया. मृदुभाषी और धैर्यवान न्यायमूर्ति ठाकुर गुस्सैल और आगबबूला होने के लिए भी जाने जाते हैं. वकील ऐसे अनगिनत मौकों की जिक्र करते हैं, जब उन्होंने ऊंचे और रसूखदार लोगों को आड़े हाथों लिया. वे बताते हैं, “वरिष्ठ वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल सहारा प्रमुख सुब्रत राय की रिहाई की अपील कर रहे थे और प्रधान न्यायाधीश ने उनसे कहा, “तथ्यों और कानूनों के आधार पर तर्क दें, हर वक्त हमें भाषण न दें.” वे बीसीसीआइ में सुधार, शारदा घोटाले और यहां तक कि गंगा सफाई के प्रधानमंत्री के प्रिय प्रोजेक्ट का भी हवाला देते हैं. सरकारी वकीलों से उनका यह कहना खासा मशहूर है कि “आपकी कार्ययोजना से तो 200 साल में भी गंगा साफ नहीं होगी.”
कड़ाई से निपटने की उनकी इस प्रतिष्ठा ने निचली पंक्तियों तक में असमंजस और मतभेद पैदा कर दिए हैं. कुछ वकीलों ने गहरी निराशा जाहिर की, “हमारे संविधान में प्रधान न्यायाधीश की बेहद अहम जगह है. उन्हें प्रधानमंत्री के सामने रोना नहीं चाहिए था.” तो कुछ इस सदमे को जज्ब नहीं कर सके, “प्रधान न्यायाधीश अपनी सख्ती के लिए जाने जाते हैं. अदालत में उनके सामने वरिष्ठ वकीलों को भी पसीना आ जाता है.” कुछ वकीलों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार को अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए परम आदेश या मैनडैमस जारी कर सकता था. दूसरे बताते हैं कि किस तरह इसे “न्यायिक अति के तौर पर देखा गया होगा. वहीं, कुछ वकीलों का यह भी मानना है कि यह रणनीतिक तेवर था, “हमें जजों की जरूरत है. पूर्णविराम. एक बेइंतहा जरूरत की तरफ लोगों का ध्यान खींचने का अकेला तरीका, खासकर तब जब एनजेएसी को लेकर अपनी हार के बाद मोदी सरकार न्यायिक सुधारों की तमाम कोशिशों को ठप करने पर तुली है.”
अति की प्रेतछाया
विचित्र बात यह है कि इस लम्हे ने मोदी सरकार और न्यायपालिका के बीच उथलपुथल से भरे साल की रही-सही कसर भी पूरी कर दी. पिछले साल 5 अप्रैल को ठीक इसी मंच से टकराव शुरू हुआ था. देश की कार्यपालिका के प्रमुख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक इसी जगह न्यायापालिका को आड़े हाथों लिया था और वह भी सार्वजनिक तौर पर. उन्होंने कहा था, “हिंदुस्तान की न्यायपालिका तमाम स्तरों पर ताकतवर होती जा रही है, वहीं यह भी जरूरी है कि वह लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए मुकम्मल भी बने.”
एक तरीके से यह ऐसी घटना थी जिसने भारतीय लोकतंत्र के दो स्तंभों के बीच महीनों चलने वाली तकरारों और टकरावों की शुरुआत कर दी थी. यह आखिरकार प्रधानमंत्री की एक अहम विधायी कोशिश की नाकामी की तरफ ले गई. सरकार ने वरिष्ठ जजों के हाथों अपने फायदे के हिसाब से साथी जजों को चुनने वाली कॉलेजियम प्रणाली की जगह लेने के लिए छह सदस्यों का एक एनजेएसी बना दिया. इस नए आयोग से ऊंची अदालतों में नियुक्तियों और दूसरे नैतिकता से जुड़े मुद्दों को प्रभावित करने की ताकत कार्यपालिका को मिल जाती. ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी ऑफ वारविक में कानून के प्रोफेसर उपेंद्र बख्शी कहते हैं, “सरकार ने भले ही इसे गले उतार लिया हो, मगर साफ है कि न्यायपालिका और सियासी तबके के बीच टकराव अभी खत्म नहीं हुआ है.”
बात सिर्फ एनजेएसी की ही नहीं है. न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अति के बीच की महीन रेखा तब तक न्यायपालिका को परेशान करती रहेगी, जब तक कि वह तेजी से अपना घर दुरुस्त नहीं करती. प्रमुख न्यायविद् फली एस. नरीमन सवाल करते हैं कि उन्हें कैसे नियुक्त किया जाता है? वे क्यों नियुक्त किए जाते हैं? उनकी कमियां क्या हैं? वे कहते हैं, “उनसे पूछिए और वे कहेंगे, “इससे आपका कोई लेना-देना नहीं है. हम जानते हैं कि न्यायपालिका के लिए क्या अच्छा है.” इसकी जड़ में बेशक कॉलेजियम प्रणाली ही है. अति के आरोपों की जड़ भी जांच और मुकदमों को हांकने की शीर्ष अदालत की इच्छा में है. एनजेएसी की नाकामी को केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के लक्रजों में “अनिर्वाचितों की निरंकुशता” के तौर पर देखा गया था.
प्रधान न्यायाधीश इस बात को जानते हैं. 2 दिसंबर, 2015 को बागडोर संभालते वक्त उन्होंने कहा था, “न्यायपालिका अपने हाल के वक्त की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रही है.” एनजेएसी कानून को रद्द करने से लोगों के मन में यह धारणा बनी कि न्यायपालिका ने जजों को नियुक्त करने का अधिकार हासिल कर लिया है. अब उसे देश भर की अदालतों में खाली पड़े पदों को भरने और उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने की जरूरत है. “मुख्य न्यायाधीशों और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को पदोन्नति के लिए लोगों को चुनते वक्त अपनी अंतरात्मा की आवाज के मुताबिक ही चलना चाहिए.”
कुछ तो हो दुरुस्त
न्यायिक नियुक्तियों को आसान और कारगर बनाने के लिए प्रधान न्यायाधीश ने जनवरी में एक संवैधानिक अदालत की स्थापना की थी ताकि संविधान की व्याख्या करने से जुड़े लंबित मामलों का बोझ कम किया जा सके. मगर फरवरी तक चीजें सही दिशा में नहीं जा रही थीं और प्रधान न्यायाधीश न्यायिक नियुक्तियों के लेकर “हाथ पर हाथ धरे बैठने के लिए्य सरकार को दोषी ठहराते हुए “सरकार के कामकाज का ऑडिट करवाने” का आह्वान कर रहे थे. मार्च से प्रधान न्यायाधीश सवाल उठाने लगे कि खुफिया ब्यूरो को सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के सिफारिश किए गए जजों की तस्दीक करने में महीनों लंबा वक्त क्यों लगना चाहिए. सरकार के पास महीनों से लंबित पड़े 170 जजों की नियुक्ति के प्रस्तावों की तरफ इशारा करते हुए, जब इनमें से 90 फीसदी मौजूदा जज ही हैं, 9 अप्रैल को प्रधान न्यायाधीश ने पूछा था कि “प्रधानमंत्री कार्यालय आइबी से रिपोर्ट 15 दिनों के भीतर देने के लिए क्यों नहीं कह सकता?”
संसद के शीत सत्र में उच्च न्यायालयों की वाणिज्यिक अदालतों, वाणिज्यिक विभागों और वाणिज्यिक अपीलीय विभाग अधिनियम, 2015 पारित कर दिया गया. इसका मकसद वाणिज्यिक मुकदमों से निपटने के तरीकों में बदलाव लाना और देरी को कम करना था. यह भी एक चुभने वाला मुद्दा रहा है-अलग से मानवबल और बुनियादी ढांचा दिए बगैर पहले ही बहुत सारे खाली पदों की दिक्कत से जूझ रही मौजूदा अदालतों में से नई अदालतें बनाई जा रही हैं.
दूसरा समाधान बार काउंसिल के लिए हो सकता है कि वह न्यायिक अकादमियों को ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करे. विभिन्न राज्यों में अकादमियों की स्थापना की जा रही है ताकि न्यायिक अधिकारियों और वकीलों को प्रशिक्षण दिया जा सके. एक अलग न्यायिक प्रशासनिक कॉर्प वह मानवबल भी मुहैया कर सकता है, जिसकी जरूरत है. शीर्ष अदालत ने न्यायपालिका की कुल शक्ति को पांच साल में 30,000 तक ले जाने का लक्ष्य तय किया है.
न्यायिक सुधारों की कुंजी आगे बढ़कर पहल करने में है. अदालतों से जितनी आसानी से स्थगन हासिल कर लिए जाते हैं, उसको नियंत्रित करने की जरूरत है. सुनवाई की तारीखों को आगे बढ़ाने से सिविल मुकदमों में देरी होती है. स्थगन के वाजिब आधारों को सीमित करके और कुछ आंतरिक नियमों के साथ-साथ प्रधान न्यायाधीश की सख्त हिदायतों से लंबित मुकदमों में अच्छी-खासी कमी लाई जा सकती है.
आधुनिक तरीकों और टेक्नोलॉजी को लाकर देरी की समस्या से बड़ी हद तक निजात पाई जा सकती है. सेवा से लेकर सम्मन तक और जमानत तक, न्याय प्रणाली में हर काम हाथ से किया जाता है. पचास फीसदी न्यायिक देरी सम्मन तालीम न होने, सम्मन की वैधता पर तर्क-वितर्क, मुनासिब पहचान वगैरह की वजह से होती है. छुट्टियों ने नहीं, पुराने जमाने के तौर-तरीकों ने अदालतों को जकड़ रखा है.
काम के घंटे बढ़ाने को लेकर क्या स्थिति है? सुप्रीम कोर्ट साल में 193 दिन, हाइकोर्ट 120 दिन और जिला कोर्ट 245 दिन काम करती हैं. एक दिग्गज न्यायाधीश ने कभी लिखा था कि जज होना “एक विशेषाधिकार, एक सुख और एक कर्तव्य” है. परेशानहाल और व्यथित प्रधान न्यायाधीश साफ तौर पर न तो हिंदुस्तानी जजों के भाईचारे के लिए और न ही देश के लिए अच्छा शगुन हैं. क्यों और कैसे पर बरसों बहसें चलती रहेंगी. इस बीच बेंगलूरू की कानूनी शोध संस्था दक्ष इंडिया के एक सर्वे का सिर्फ इंडिया टुडे को दिया गया डाटा इस गुत्थी के कुछ पहलुओं पर रोशनी डालता है.