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किसने लूटी नेताजी की विरासत?

गोपनीय सरकारी दस्तावेजों से नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जुटाए खजाने के गायब होने के रहस्य का खुलासा हुआ. सबसे हैरान करने वाली सचाई यह है कि उस समय नेहरू सरकार को इस गायब युद्ध कोष के बारे में चेतावनी मिली थी लेकिन उसने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की

संदीप उन्नीथन
  • नई दिल्ली,
  • 18 मई 2015,
  • अपडेटेड 3:01 PM IST

शायद देश के सबसे शुरुआती घोटाले के राज पिछली आधी सदी से साउथ ब्लॉक की अलमारियों में बंद हैं और उन पर सरकारी गोपनीयता कानून का ताला जड़ा है. ये सैकड़ों पीले पड़ते दस्तावेज गंभीर संदेह पैदा करते हैं कि आजादी के सशस्त्र संघर्ष की खातिर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के इकट्ठा किए नकदी, सोना और जेवरात के खजाने पर हाथ साफ कर दिया गया.

प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) और विदेश मंत्रालय में गोपनीय “नेताजी फाइल्स” में “आजाद हिंद फौज के खजाने” की जानकारियां हैं. ये बरसों की गोपनीय रिपोर्टें, चिट्ठियां और टेलीग्राम हैं. इनमें कुछ भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के लालच और मौकापरस्ती की कहानी बंद हैं, जिन्होंने आजाद हिंद की अस्थायी सरकार के खजाने को लूट लिया था. यह संदिग्ध लूट 1945 में विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्य के फौरन बाद हुई थी. लेकिन आज कहानी में चौंकाने वाला मोड़ आजाद हिंद फौज के सैकड़ों करोड़ रुपए के खजाने का गायब होना नहीं है. आश्चर्यजनक यह है कि उस वक्त की सरकार इस बारे में जानती थी, लेकिन उसने किया कुछ नहीं. इंडिया टुडे को मिले गोपनीय दस्तावेजों से खुलासा होता है कि नेहरू सरकार ने 1947 से 1953 के बीच टोक्यो स्थित दूतावास के तीन प्रमुखों की बार-बार भेजी गई चेतावनियों को अनदेखा कर दिया. विदेश मंत्रालय में अवर सचिव (बाद में विदेश सचिव) आर.डी. साठे ने 1951 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को, जो विदेश मंत्री भी थे, सख्त चेतावनी भरा पत्र लिखा कि नेताजी सैगोन (अब हो ची मिन्ह सिटी) वियतनाम में सोने के आभूषणों और बेशकीमती हीरे-जवाहरात का विशाल खजाना छोड़कर गए थे. साठे ने लिखा कि यह खजाना संदिग्ध षड्यंत्रकारियों ने गायब कर दिया है.

इन सभी चेतावनियों को अनदेखा कर दिया गया. कोई जांच नहीं बैठाई गई. इससे भी बदतर यह कि आजाद हिंद फौज के जिस शख्स पर इन राजनयिकों को गबन में शामिल होने का शक था, उसे शानदार सरकारी पद से नवाजा गया.

ये विस्फोटक खुलासे उन 37 फाइलों में बंद हैं, जिन्हें पीएमओ पिछले एक दशक से ज्यादा वक्त से गोपनीयता सूची से हटाने से इनकार करता रहा है. सरकार की दलील रही है कि इन्हें गोपनीयता सूची से हटाना जनहित में नहीं है. लेकिन यह दलील अब विश्वसनीय नहीं हैः राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखे गोपनीयता से मुक्त कागजात बताते हैं कि नेहरू सरकार ने बोस परिवार की जासूसी करवाई थी और यह जासूसी 1947 से 1968 तक दो दशकों तक चली थी.

इंडिया टुडे के इस जासूसी के खुलासे के तीन दिन बाद 13 अप्रैल को नेताजी के भाई के पड़पोते सूर्यकुमार बोस बर्लिन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले थे. परिवार के गुस्से की जगह अब इस पक्की मांग ने ले ली है कि सरकार के तहखाने में बंद 150 से ज्यादा “नेताजी फाइल्स” के ऊपर से गोपनीयता का परदा हटाया जाए.

9 मई को प्रधानमंत्री ने बोस परिवार के सदस्यों को इन फाइलों को गोपनीयता सूची से हटाने का भरोसा दिलाया था. मोदी ने कोलकाता में परिवार के सदस्यों से कहा, “इसे लोगों की मांग न कहें, यह राष्ट्र का दायित्व है.” लेकिन ये गैर-मामूली खुलासे, जिनमें कुछ का जिक्र लेखक अनुज धर की किताब इंडियाज बिगेस्ट कवर-अप में भी हुआ है, बताते हैं कि सरकार के पास छिपाने के लिए बहुत कुछ था.

आजाद हिंद फौज का खजाना
29 जनवरी, 1945 को जापान के कब्जे वाले बर्मा की राजधानी रंगून में रह रहे भारतीय हफ्ते भर लंबा जश्न मना रहे थे. यह आजाद हिंद की अस्थायी सरकार के मुखिया नेताजी का 48वां जन्मदिन था. यह दूसरे जन्मदिनों से काफी अलग था. ह्यू टोये की लिखी उनकी जीवनी द स्प्रिंगिंग टाइगर-द इंडियन नेशनल आर्मी ऐंड नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मुताबिक, उस दिन “जय हिंद” का नारा देने वाले और अपनी टुकड़ियों से दिल्ली कूच करने का आह्वान करने वाले फौलादी देशभक्त नेताजी को “कमोबेश उनकी इच्छा के खिलाफ” सोने से तोला गया था. 2 करोड़ रुपए से ज्यादा का चंदा इकट्ठा किया गया, जिसमें 80 किलो से ज्यादा सोना था.

धन जुटाने की मुहिम आजाद हिंद फौज के लिए नई नहीं थी. नेताजी चाहते थे कि उनकी दो साल पुरानी प्रवासी सरकार अपने सैनिकों की आर्थिक जरूरतों के लिए जापानियों के भरोसे कम-से-कम रहे. इसके लिए उन्होंने अपने जापानी सहयोगियों के जीते हुए पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों में रहने वाले तकरीबन बीस लाख हिंदुस्तानियों का रुख किया. उन्हें अपनी शख्सियत की ताकत, जज्बाती तकरीरों और हिंदुस्तान की आजादी के प्रति कौम के जज्बे का पूरा भरोसा था, जिसके दम पर वे उनसे चंदा देने के लिए कह सके. 2010 की अपनी किताब चर्चिल्स सीक्रेट वॉर में मधुश्री मुखर्जी ने लिखा है, “उनके भाषण के बाद गृहिणियां उठकर आगे आतीं, अपने सोने के बाजूबंद और गले के हार उतारतीं और आजादी के यज्ञ में न्योछावर कर देतीं.” अखबारों में बताया गया कि 21 अगस्त, 1944 को रंगून में ऐसी ही एक जनसभा में हीराबेन बेतानी ने अपने 1.5 लाख रु. मूल्य के 13 सोने के गले के हार दे दिए और एक करोड़पति हबीब साहिब ने अपनी पूरी एक करोड़ रु. की जायदाद नेताजी के कोष में दान कर दी. एक और दानदाता रंगून के कारोबारी वी.के. चलैया नाडर ने आजाद हिंद बैंक में 42 करोड़ रुपए और 2,800 सोने के सिक्के जमा करवा दिए.

नेताजी का युद्ध कोष 20वीं सदी में किसी भी हिंदुस्तानी नेता द्वारा इकट्ठा किया गया सबसे विशाल युद्ध कोष था. लेकिन 1945 आते-आते इसका कोई फायदा नहीं रह गया क्योंकि नए सिरे से उठ खड़ी हुई मित्र देशों की सेनाओं की बर्मा में बढ़त के आगे जापानी फौजें और आजाद हिंद फौज तितर-बितर हो गई. अब यह कुछ ही वक्त की बात थी कि आजाद हिंद बैंक के मुख्यालय और भारत कूच के लिए सबसे मौजूं जगह रंगून पर मित्र देशों की सेना का कब्जा हो जाता. नेताजी 24 अप्रैल, 1945 को लड़ाई से पीछे हटकर बैंकॉक आ गए और अस्थायी सरकार का खजाना भी साथ ले आए. वे अपने साथ कितना सोना लाए, इस बारे में अलग-अलग ब्योरे हैं. लड़ाई के फौरन बाद ब्रिटिश खुफिया एजेंसी ने आजाद हिंद बैंक के चेयरमैन दीनानाथ से पूछताछ की और उन्होंने बताया कि नेताजी 63.5 किलो सोना छोड़ गए थे. 

बैंकॉक में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग (आइआइएल) के प्रमुख देबनाथ दास ने 1956 में शाहनवाज आयोग को बताया था कि नेताजी ने 1 करोड़ रु. मूल्य का खजाना, जो ज्यादातर सोने के गहनों और सिल्लियों के रूप में था, 17 छोटे सीलबंद बक्सों में निकाला था. आजाद हिंद फौज के जनरल जगन्नाथ राव भोंसले ने भी बताया था कि नेताजी छह स्टील बक्सों में भरे हुए सोने के जेवर और नकदी लाए थे.

15 अगस्त, 1945 को जापान ने मित्र देशों के आगे समर्पण कर दिया. 40,000 सैनिकों की आजाद हिंद फौज ने भी बर्मा में मित्र देशों की फौजों के आगे समर्पण कर दिया. उसके अफसरों को राजद्रोह का मुकदमा चलाने के लिए लाल किले लाया गया.

नेताजी के लिए तो विंस्टन चर्चिल ने 1941 में और 1945 में मौत मुकर्रर कर दी थी और कहा था कि अगर वे पकड़े जाते हैं, तो उन्हें “ईंट की दीवार के सहारे खड़ा करके गोली मार दी” जाए. 18 अगस्त को नेताजी अपने सहयोगी हबीबुर रहमान के साथ सैगोन में मनचूरिया जाने वाले जापानी विमान पर सवार हुए, जहां से वे सोवियत संघ में दाखिल होने की कोशिश करते.

गायब हुआ खजाना
हबीबुर रहमान ने 1956 में शाहनवाज आयोग के सामने नेताजी के आखिरी घंटों का ब्योरा रखा था. नेताजी विमान हादसे में घायल हो गए थे, लेकिन जहाज के तेल में पूरी तरह भीग चुकी उनकी वर्दी ने आग पकड़ ली, जिससे वे गंभीर रूप से झुलस गए. हादसे के छह घंटे बाद एक जापानी सैनिक अस्पताल में उनकी मौत हो गई.

विमान हादसे में चमड़े की दो 18-18 इंच लंबी अटैचियां भी नष्ट हुईं, जिनमें आइएनए का सोना भरा हुआ था. हवाई अड्डे पर तैनात जापानी सैन्यकर्मियों ने खजाने का बचा हुआ करीब 11 किलो सोना बटोरा, उसे पेट्रोल के डिब्बों में सील किया और टोक्यो में इंपीरियल जापानी आर्मी के मुख्यालय भेज दिया. एक दूसरे बक्से में नेताजी के शरीर के अवशेष रखे गए और ताइवान के स्थानीय शवदाहगृह में अंतिम संस्कार किया गया.

नेताजी का बाकी युद्ध कोष कहां गया? यह अविश्वसनीय लगता है कि 63.5 किलो से ज्यादा सोना 11 किलो के जले हुए गहनों के ढेर में बदल सकता था. हार के हंगामे में सही-सही आंकड़ों का मिल पाना मुश्किल था. आइएनए और जापानियों ने दस्तावेजों को मित्र सेनाओं के हाथों में पड़ने से बचाने के लिए नष्ट कर दिया. इससे तस्वीर और उलझ गई. जांच आयोगों ने चश्मदीद गवाहों के बयानों पर भरोसा किया.

1978 में मोरारजी देसाई सरकार के लिए 18 पन्नों का एक नोट तैयार किया गया था. इसमें नेताजी के निजी सेवक कुंदन सिंह के हवाले से कहा गया कि खजाना “चार स्टील के बक्सों में बंद था, जिनमें हिंदुस्तानी औरतों के आम तौर पर पहने जाने वाले गहने, घड़ियों की चेन, गले के हार, चूड़ियां, कंगन, कान की बालियां, पाउंड और गिन्नियां तथा कुछ सोने की सिल्लियां थीं.” इसमें एडोल्फ हिटलर का भेंट किया हुआ एक सोने का सिगरेट केस भी था. नेताजी के बैंकॉक से सैगोन के लिए रवाना होने से पहले इन बक्सों की जांच की गई थी. बैंकॉक में आइआइएल के एक नेता पंडित रघुनाथ शर्मा ने कहा कि नेताजी अपने साथ एक करोड़ रुपए मूल्य से ज्यादा का सोना और बेशकीमती चीजें ले गए थे. साफतौर पर खजाना विमान हादसे में जले चमड़े के दो सूटकेसों से कहीं ज्यादा था. यह जानने वाले एक शख्स एस.ए. अय्यर थे, जो पत्रकार से आजाद हिंद सरकार में प्रचार मंत्री बनाए गए थे. अय्यर आखिरी कुछ दिनों में नेताजी के साथ थे. 22 अगस्त, 1945 को उन्होंने सैगोन से टोक्यो के लिए उड़ान भरी, जहां वे टोक्यो में आइआइएल के पूर्व अध्यक्ष एम. राममूर्ति से मिले और उनके साथ जाकर जापानी सेना से दो बक्से प्राप्त किए. उन्होंने नेताजी की अस्थियां टोक्यो के रेंकोजी मंदिर में रखवा दीं. खजाना मूर्ति ने रख लिया.

सुप्रीम एलाइड कमांडर, दक्षिण-पूर्व एशिया के मुख्यालय में तैनात एक सैन्य प्रतिगुप्तचर अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन फिगेस ने 25 अगस्त, 1946 को अपने वरिष्ठ अधिकारी लॉर्ड लुईस माउंटबेटन को एक रिपोर्ट सौंपी. फिगेस, जिसे 1997 की एक श्रद्धांजलि में “सुभाष चंद्र बोस की अगुआई में बनाई गई जापान समर्थक इंडियन नेशनल आर्मी को सफलतापूर्वक तहस-नहस करने” का श्रेय दिया गया है, इस नतीजे पर पहुंचा कि नेताजी फोरमोसा (अब ताइवान) में एक विमान हादसे में मारे गए थे.

टोक्यो से चेतावनी
टोक्यो में इंडियन लिआजों मिशन के पहले मुखिया, सर बेनेगल रामा राव ने 4 दिसंबर, 1947 को एक चौंकाने वाला आरोप लगाया. विदेश मंत्रालय को लिखी एक चिट्ठी में राव ने आरोप लगाया कि मूर्ति ने आइआइएल के धन का गबन कर लिया है और नेताजी के साथ रही बेशकीमती चीजों को हड़प लिया है. स्थानीय हिंदुस्तानियों के शिकायत करने के बाद राजदूत ने यह चिट्ठी लिखी थी. जापानी मीडिया में उस वक्त खबरें आई थीं कि राममूर्ति और उनके छोटे भाई जे. मूर्ति किस तरह आलीशान जिंदगी बसर करते हैं और दो सेडान गाड़ियों में घूमते हैं, जो युद्ध से जर्जर जापान में अनोखी बात थी. टोक्यो की इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष को मिशन से जो औपचारिक जवाब मिला, वह यह था कि भारत सरकार आइएनए की निधियों में दिलचस्पी नहीं ले सकती. आइएनए के खजाने में भारत सरकार ने चार साल बाद मई, 1951 में दिलचस्पी ली, जब असाधारण तौर पर जिद्दी राजनयिक के.के. चेट्टूर इंडियन लिआजों मिशन के प्रमुख बनकर टोक्यो गए. भारत ने उस वक्त तक जापान के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित नहीं किए थे.

चेट्टूर ने निराशा के साथ अय्यर की वापसी का जिक्र किया. वे तब बॉम्बे राज्य की सरकार के डायरेक्टर ऑफ पब्लिसिटी बन गए थे. सात साल बाद अब अय्यर वापस टोक्यो जा रहे थे. उन्होंने दावा किया कि वे छुट्टियां मनाने जा रहे थे, जबकि असल में एक गुप्त काम से जा रहे थे.

नई दिल्ली के विदेश कार्यालय के साथ एक के बाद एक तार के आदान-प्रदान में चेट्टूर ने पहली बार “आइएनए ट्रेजर” शब्द का इस्तेमाल किया, जो उसके बाद से ही सरकारी कागजों में नियमित तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा.

अय्यर ने टोक्यो में चेट्टूर से कहा कि भारत सरकार ने उन्हें दोहरा काम सौंपा है&यह तस्दीक करना कि रेंकोजी मंदिर में रखी गई अस्थियां नेताजी की हैं और दुर्घटनाग्रस्त विमान से प्राप्त किए गए सोने के जेवरों को वापस हासिल करना. विदेश मंत्रालय को एक गोपनीय खत में चेट्टूर ने लिखा कि “स्थानीय हिंदुस्तानी अय्यर की वापसी और इन दोनों भाइयों (मूर्ति) के साथ उनके संबंधों को लेकर गुस्से से उबल” रहे हैं, क्योंकि “राममूर्ति और अय्यर, दोनों का नेताजी के इकट्ठे किए गए सोने और जेवर-गहनों के रहस्यमय ढंग से गायब होने से कुछ न कुछ संबंध जरूर है.”

लेकिन अय्यर पहले ही एक हैरतअंगेज कारनामा कर चुके थे. उन्होंने चेट्टूर को इत्तिला दी थी कि आइएनए के खजाने का कुछ हिस्सा बचा हुआ है, जो 1945 से ही राममूर्ति के कब्जे में है. अक्तूबर, 1951 में भारतीय दूतावास ने आइएनए खजाने का बचा हुआ हिस्सा राममूर्ति के घर से बरामद कर लिया. राजदूत चेट्टूर को अय्यर-राममूर्ति की कहानी पर अब भी भरोसा नहीं था. नई दिल्ली को एक तार में उन्होंने अपनी आशंकाएं लिख भेजीं. चेट्टूर मानते थे कि अय्यर 1945 में शांति संधि के जल्दी पूरा होने की आशंका में टोक्यो इसलिए आए थे, ताकि “लूट के माल का बंटवारा कर सकें और उसका एक छोटा-सा हिस्सा सरकार को सौंपकर खुद अपनी और श्री राममूर्ति की अंतरात्मा को बोझ से मुक्त कर सकें. इस उम्मीद में कि ऐसा करके वह जांच को भूल-भुलैया में डालने में कामयाब हो जाएंगे.”

22 जून, 1951 को नई दिल्ली को भेजे अपने एक अंतिम संदेश में चेट्टूर ने “नेताजी की संग्रहीत चीजों” के गायब होने की जांच करने की पेशकश की थी.

आइएनए के खजाने के साथ गड़बड़ी की पहली विस्तृत चेतावनी महज कुछ ही महीनों बाद आई. यह दो पन्नों का गुप्त नोट था, जो आर.डी. साठे ने 1 नवंबर, 1951 को लिखा था. आइएनए ट्रेजर ऐंड देयर हैंडलिंग बाइ मेसर्स अय्यर ऐंड राममूर्ति शीर्षक इस नोट ने पूरी कहानी कह दी- सुदूर पूर्व में बसे हिंदुस्तानियों ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को उनकी जंग की तैयारियों के लिए अच्छी-खासी मात्रा में सोना और खजाना दिया था; इसमें से जो बचा हुआ था. वह था 11 किलो सोना और ढलवां लोहा मिला 3 किलो सोना और 300 ग्राम सोना, जो 1945 में अय्यर सैगोन से टोक्यो लाए थे. राममूर्ति से भारतीय अधिकारियों ने कई बार पूछताछ की, लेकिन उन्होंने खजाने की बात से साफ इनकार किया. साठे के मुताबिक, जापान में अय्यर की गतिविधियां संदिग्ध थीं. उन्होंने लिखा, “जो बात और भी ज्यादा अहम है, वह यह कि खजाने का बड़ा हिस्सा सैगोन में छोड़ दिया गया. उपलब्ध जानकारी के आधार पर यह बात बेहद अहम है कि 26 जनवरी, 1945 को नेताजी की संग्रहीत चीजों का वजन खुद उनके वजन से ज्यादा था.” साठे ने सैगोन से टोक्यो तक अय्यर की गतिविधियों पर उंगली उठाई और एक चश्मदीद गवाह का जिक्र किया, जिसने उनके कमरे में बक्से देखने का दावा किया था. साठे ने लिखा, “बाद में इन बक्सों का क्या हुआ, यह रहस्य ही है, क्योंकि अय्यर से हमें कुल 300 ग्राम सोना और करीब 260 रुपए मिले.”

साठे ने उस रिश्ते की तरफ भी इशारा किया, जिसने जापान में हिंदुस्तानियों को हैरानी में डाल रखा था. राममूर्ति की ब्रिटिश खुफिया अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल फिगेस के साथ नजदीकी. फिगेस अब टोक्यो में जनरल डगलस मैकआर्थर के अधिग्रहण मुख्यालय में ब्रिटिश लिआजों अफसर के तौर पर तैनात थे.

आखिर वह कौन-सी बात थी, जिससे कर्नल फिगेस और उनके तत्कालीन आइएनए दुश्मन के बीच इतनी गहरी साठगांठ थी? साठे के खत में एक अटकल भी थी.

उन्होंने लिखा, “खजाने को गलत ढंग से हड़प लिए जाने का शक 1946 में राममूर्ति की अमीरी से और भी गहरा हो जाता है, जब जापान के दूसरे तमाम भारतीय नागरिक भारी मुसीबतों से गुजर रहे थे. एक और सचाई, जिससे खजाने को गलत ढंग से हड़प लिए जाने का संकेत मिलता है, वह है टोक्यो के ब्रिटिश मिशन में मिलिटरी ऐटशे कर्नल फिगेस का अचानक पूरब की प्राच्य कलाकृतियों के विशेषज्ञ के रूप में उभरना और जानकारी के मुताबिक कर्नल का राममूर्ति को ब्रिटेन में बसने के लिए निमंत्रण देना.”

इस नोट पर जवाहरलाल नेहरू ने 5 नवंबर, 1951 को दस्तखत किए. तत्कालीन विदेश सचिव सुबिमल दत्त ने इस पर अपने दस्तखत करते हुए लिखा, “पीएम ने यह नोट देख लिया है. इसे संबंधित फाइल में रखा जा सकता है.”

प्रधानमंत्री का ध्यान साफ तौर पर पहले भारतीय आम चुनाव पर लगा हुआ था, जो उस साल अक्तूबर में शुरू हुए थे. चुनावों में कांग्रेस की भारी जीत तय थी. विपक्ष में कोई करिश्माई नेता नहीं था. सुभाष चंद्र बोस का क्या हुआ, यह अब भी साफ नहीं था. अफवाहें फैल रही थीं कि वे अभी जिंदा हो सकते हैं और विपक्षी दावेदार के तौर पर चुनौती देने के लिए भारत लौट सकते हैं, जिससे सरकार का शक और गहरा हो गया. शायद यह एक कारण रहा हो, जिससे इंटेलिजेंस ब्यूरो से बोस के परिवार के सदस्यों की जासूसी करवाई गई.

नेताजी के विमान हादसे में मारे जाने के निर्णायक सबूत सरकार के आलोचकों को चुप करा सकते थे. यह सबूत अय्यर ने मुहैया करवाया. 26 सितंबर, 1951 को नेहरू ने विदेश सचिव दत्त को लिखा कि अय्यर एक जांच रिपोर्ट के साथ उनसे मिले थे. नेहरू ने आगे लिखा, अय्यर को “पूरा यकीन था कि उस मौके पर  सुभाष चंद्र बोस के मारे जाने को लेकर कतई कोई शुबहा नहीं है.”

अब यह पता चलता है कि चेट्टूर के शक सही थे. अय्यर सरकार की तरफ से एक गुप्त मिशन पर थे. 1952 में प्रधानमंत्री नेहरू ने संसद में अय्यर की रिपोर्ट का हवाला देते हुए पक्के तौर पर कहा कि नेताजी ताइपेई में एक विमान हादसे में सचमुच मारे गए थे.

आइएनए का खजाना या उसमें से जो कुछ भी बचा था, जापान से गोपनीय ढंग से भारत लाया गया. नेहरू ने इसका निरीक्षण किया और इसे “पुअर शो” करार दिया. उनके मंत्रिमंडल में एक छोटी-सी बहस हुई कि इसका क्या किया जाए. शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने सुझाव दिया कि सोना नेताजी के परिवार को दे दिया जाए. नेहरू ने इस सुझाव को खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि बोस परिवार ने विमान हादसे में नेताजी की मौत को स्वीकार नहीं किया है. दूसरे, जले हुए जेवर-गहने सरकार के पास सुरक्षित रखने चाहिए, क्योंकि ये विमान हादसे और उसमें लगी आग के सबूत थे. जेवर-गहनों को सील किया गया और दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय के हवाले कर दिया गया. 

अगले साल अय्यर को नेहरू की पांच साला योजना के लिए एकीकृत प्रचार कार्यक्रम का सलाहकार नियुक्त कर दिया गया. मामला बंद हो गया. क्या वह सचमुच बंद हो गया? जापान के भारतीय मिशन से चेतावनियों का तांता जारी रहा. 1955 में टोक्यो में राजदूत ए.के. डार ने एक और विस्फोटक आरोप लगाया. साउथ ब्लॉक को भेजे चार पन्नों के एक गुप्त नोट में डार ने फिर एक बार सार्वजनिक जांच की मांग की, जिससे अगर खजाना वापस नहीं भी मिला तो यह तो तय हो सकेगा कि संभावित दोषी कौन हैं और किसने इसे हड़प लिया है.

डार ने “तकरीबन 10 साल से भारत सरकार के उदासीन रवैए” का जिक्र किया, क्योंकि “इससे न केवल दोषी पक्षों को बगैर किसी आरोप के बच निकलने में मदद मिली, बल्कि इसलिए भी कि देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले एक महान नेता का सम्मान से नवाजा जाना टलता गया.”

चेतावनियां और भी पर कार्रवाई नहीं
आइएनए के खजाने से जुड़े कागजात से उत्तर कम और प्रश्न ज्यादा हाथ लगते हैं. इन कागजों का अध्ययन करने वाले एक सेवानिवृत्त राजनयिक समझ नहीं पाते कि सरकार ने जांच का आदेश आखिर क्यों नहीं दिया. वे कहते हैं, “अगर हमें शक था कि खजाने को लूट लिया गया है तो जांच के लिए मित्र शक्तियों की मदद लेनी चाहिए थी.” आइएनए से जुड़े ज्यादातर मामले साफ तौर पर प्रधानमंत्री नेहरू की जानकारी में थे. यहां तक कि दूसरे मामलों में, जब पूर्व आइएनए के लोगों ने जंग के वक्त की अपनी धन-संपदा वापस लेने की कोशिश की तो उन्होंने दखल देने में कतई देरी नहीं की. नवंबर, 1952 में प्रधानमंत्री के प्रधान निजी सचिव बी.एन. कौल के दस्तखत से भेजे गए एक पत्र में नेहरू ने केंद्रीय राजस्व बोर्ड को निर्देश दिया था कि वह आइएनए के विशेष बल के उन पांच जवानों से बरामद किए गए 28 लाख रुपए नहीं लौटाए, जो 1944 में एक जापानी पनडुब्बी से ओडिसा के तट पर उतरे थे.  

जापान में बस गए दो प्रमुख हिंदुस्तानियों ने भी 1971 में न्यायमूर्ति जी.डी. खोसला की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच आयोग के सामने गवाही में दावा किया था कि खजाने का गबन कर लिया गया है. उन्होंने न्यायमूर्ति खोसला को जापान में मूर्ति बंधुओं के अचानक बहुत अमीर होने के बारे में बताया था. 

सरकार को अच्छी तरह पता था कि “आइएनए ट्रेजर” नाम से बंद फाइलों के खुलासे विस्फोटक साबित होंगे. 2006 में सरकार ने एक आइएनए ट्रेजर फाइल को पीएमओ के अनुभाग से “बाहर न जाए” का संवेदनशील तमगा हटाकर गोपनीयता से मुक्त कर दिया था.

यह फाइल 23(11)/56-57 अब राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखी है. हालांकि इसमें राजनयिकों चेट्टूर, साठे और डार की गुस्से से भरी रिपोर्टों के किसी भी जिक्र को पूरी तरह मिटा दिया गया है. यह फाइल केवल विमान हादसे में बचे 11 किलो सोने का जिक्र करती है, जो अब राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा है.

एस.ए. अय्यर के बेटे ब्रिगेडियर ए. त्यागराजन (सेवानिवृत्त), जो मुंबई में रहते हैं, इन अटकलों को खारिज कर देते हैं कि आइएनए के खजाने के गबन से उनके पिता का कुछ लेना-देना था. जे. मूर्ति के बेटे आनंद जे. मूर्ति, जो टोक्यो में रेस्तरांओं की शृंखला चलाते हैं, फाइलों में दर्ज आरोपों पर हैरानी जताते हैं. 

आइएनए खजाने के आखिरी दावेदारों में से एक की मृत्यु 2012 में हुई. रंगून में रहने वाले कारोबारी वी.के. चलैया नाडर के बेटे रामलिंगा नाडर ने उन 42 करोड़ रु. और 2,800 सोने के सिक्कों के लिए सरकार को याचिका दी थी, जो उनके पिता ने 1944 में रंगून के आजाद हिंद बैंक में जमा करवाए थे. उनके दामाद के.के.पी. कामराज कहते हैं, “2011 में आरबीआइ के अफसरों ने नाडर परिवार से कहा कि उनका आइएनए के खजाने से कोई लेना-देना नहीं है.”

प्रधानमंत्री के गोपनीयता सूची से हटाने के वादे ने इस मुद्दे को नया जीवनदान दे दिया है. नेताजी के भाई के पड़पोते और बोस परिवार के प्रवक्ता चंद्रा बोस ने इंडिया टुडे से कहा, “सभी सरकारी फाइलों को गोपनीयता सूची से हटाना जरूरी है, ताकि नेताजी के बारे में तमाम शकों को दूर किया जा सके और आइएनए के खजाने के रहस्यों का समाधान हो सके.” सवाल वही है, जो पिछली आधी से ज्यादा सदी से कायम है&सरकार सचाई का सामना कर सकती है या नहीं. -साथ में कविता मुरलीधरन

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