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पड़ोसी चीन की मारक पारंपरिक पनडुब्बी दक्षिण चीन समुद्र में हेनान द्वीप पर स्थित अपने बेस से इस साल 31 मार्च को रवाना हुई. यह युआन श्रेणी की '335' पनडुब्बी थी, जो टॉरपीडो, एंटी-शिप मिसाइलों और एयर-इंडिपेंडेंट प्रोपल्शन से लैस थी, जो इसकी पानी के भीतर मजबूती से टिके रहने की क्षमता में जबरदस्त वृद्धि कर देती है. पखवाड़े भर बाद यह अदन की खाड़ी में दाखिल हुई. लेकिन यह 335 का पहला पड़ाव ही था, जिसने साउथ ब्लॉक के सुरक्षा प्रतिष्ठान का ध्यान खींचा. 22 मई को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीजिंग यात्रा को पूरा हुए एक हफ्ते से भी कम समय हुआ था, इस विशाल पनडुब्बी ने कराची बंदरगाह में प्रवेश किया.
सरकारी सूत्रों ने इंडिया टुडे से इस बात की तस्दीक की कि पनडुब्बी 335 ने सैन्य शब्दावली में 'ऑपरेशनल टर्न अराउंड' या परिचालन से जुड़े कायापलट के लिए यानी ईंधन तथा रसद लेने के लिए और अपने 65 सदस्यों के चालक जत्थे को विश्राम देने के लिए कराची में एक हफ्ते का समय गुजारा.
नौसेना प्रमुख एडमिरल आर.के. धवन ने 28 मई को नई दिल्ली में रिपोर्टरों से कहा कि भारत हिंद महासागर में चीनी नौसेना की गतिविधियों पर 'बारीक' नजर रख रहा है. उन्होंने दुनिया के सबसे अहम महासागर में नए आला खेल की शुरुआत की ओर इशारा किया. अगर शीत युद्ध के दौरान अटलांटिक महासागर में सोवियत नौसेना की नाटो देशों को जासूसी करनी पड़ती थी तो 21वीं सदी में समूचे एशिया-प्रशांत में चीनी नौसेना की विस्तार हासिल करती मौजूदगी पर कई देशों को निगाह रखनी पड़ रही है.
यह जासूसी और निगरानी का खेल है, जिसमें भारत को खुफिया सूचनाएं अमेरिका से मिल रही हैं, जिसे चीन की समुद्री महत्वाकांक्षाओं को देखते हुए 2011 में एशिया-प्रशांत महासागर की तरफ एक बार फिर नए सिरे से रणनीतिक संतुलन कायम करने के लिए कदम उठाने पड़े थे. पिछले साल अमेरिका ने खुफिया जानकारी दी थी कि उसके ड्रोन ने चीन की हान-श्रेणी की परमाणु ताकत से लैस हमलावर पनडुब्बी को अदन की खाड़ी में देखा था. पनडुब्बी 335 इसी आपसी सहयोग का नतीजा हो सकती है, लेकिन भारतीय अधिकारियों ने इसकी तस्दीक करने से इनकार कर दिया. नौसैन्य सहयोग उस रक्षा ढांचा समझौते की बुनियादों में से एक है, जिस पर 3 जून को अमेरिकी रक्षा सचिव एश्टन कार्टर और उनके भारतीय समकक्ष मनोहर पर्रीकर ने दस्तखत किए हैं. अहम बात यह है कि कार्टर ने अपनी यात्रा की शुरुआत विशाखापत्तनम स्थित नौसेना के पूर्वी नौसैन्य कमान अड्डे से की, जो भारत का सबसे बड़ा नौसैनिक अड्डा और उसकी 'ऐक्ट ईस्ट' नीति के लिए बेहद अहम है.
26 मई को चीन ने बीजिंग में अपना रक्षा श्वेत पत्र जारी किया. पिछले तीन दशक में यह सिर्फ तीसरा ऐसा दस्तावेज है. इसमें संकेत मिला कि पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की नौसेना अपनी पहले की 'तटीय समुद्री प्रतिरक्षा' की नीति से हटकर 'मुक्त समुद्री सुरक्षा' की तरफ बढ़ रही है. पिछली बार चीन इतना आगे 16वीं सदी में तब बढ़ा था, जब एडमिरल झेंग ही मिंग साम्राज्य के बेड़ों को हिंद महासागर में ले आए थे.
झेंग के लकड़ी से बने बेशकीमती जहाजों की जगह अब अत्याधुनिक मिसाइल विध्वंसक जहाजों और असहज पड़ोसियों को चिंता में डालने वाली गुप्त पनडुब्बियों ने ले ली है. पिछले साल फरवरी से चीन ने हिंद महासागर में चार पनडुब्बियां तैनात की हैं, जिनमें ऐसी 60 पनडुब्बियों के उसके बेड़े की हरेक बड़ी श्रेणी की पनडुब्बी है. अक्तूबर 2008 से उसने समुद्री लुटेरों के खिलाफ 20 गश्ती दलों में अपने युद्धपोत और पनडुब्बियां तैनात की हैं और ऐसी हरेक गश्त तीन लंबे थकान भरे महीनों तक चलती हैं.
नई दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में रणनीतिक अध्ययनों के प्रोफेसर ब्रह्म चेलानी कहते हैं, "चीन हिंद महासागर क्षेत्र में अपने रणनीतिक प्रयास बढ़ाने पर आमादा है. पिछली शरद ऋतु में चीनी पनडुब्बियां जब कोलंबो गोदी में खड़ी थीं, यह 600 साल में सबसे ज्यादा दूरी पर की गई तैनाती थी. अब जब चीन पाकिस्तान को पनडुब्बियां बेचने की और ग्वादर को नौसैन्य चौकी में बदलने की योजना बना रहा है, तो चीनी जलपोतों के पाकिस्तानी बंदरगाहों पर डेरा डालने की संभावनाएं बढ़ रही हैं."
इन घटनाक्रमों की तैयारी लंबे समय से चल रही थी. मई, 2001 में तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने इस्लामाबाद में एक प्रेस कांफ्रेंस में जुबान फिसलने की वजह से कह दिया था कि चीन को ग्वादर बंदरगाह का विकास करने देने के पीछे मुख्य मकसद भारत की परमाणु पनडुब्बियों का मुकाबला करना है. उन्होंने कहा था, "जब और जैसे जरूरत होगी, चीनी नौसेना किसी को भी माकूल जवाब देने के लिए ग्वादर में रहेगी." तकरीबन 14 साल बाद मुशर्रफ का सपना सच होने के नजदीक है. विश्लेषकों का कहना है कि चीनी पनडुब्बियों की बिक्री का भारत की 80 फीसदी से ज्यादा ऊर्जा आपूर्तियों पर असर पड़ेगा, जो पश्चिम एशिया के रास्ते आती हैं. चीन मलक्का कशमकश को लेकर परेशान रहता है—जहां उसके 80 फीसदी तेल आयात मलक्का जलडमरूमध्य के रास्ते आता है और इन्हें नौसैन्य गतिरोध से कभी भी रोका जा सकता है. मेजर जनरल जी.डी. बख्शी (सेवानिवृत्त) कहते हैं, "चीन ने संकेत दे दिए हैं कि वह अब भारत के लिए पश्चिम एशिया संकट पैदा कर रहा है. जंग में अगर आप मलक्का जलडमरूमध्य की नाकाबंदी करने की कोशिश करोगे, तो वे ग्वादर से आपकी ऊर्जा आपूर्ति के रास्तों को रोक देंगे."
पाकिस्तान की यात्रा के लिए युआन-श्रेणी की पनडुब्बी का चुनाव अचानक नहीं था. 31 मार्च को पाकिस्तान के रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों ने नेशनल असेंबली की स्थायी समिति को बताया कि उन्होंने आठ युआन-श्रेणी की पनडुब्बियां खरीदने का फैसला किया है. उन्होंने कीमत का खुलासा नहीं किया, मगर विश्लेषकों का अनुमान है कि यह 4-5 अरब डॉलर की पड़ेगी. यह दो देशों के बीच सबसे बड़ा रक्षा सौदा है. पाकिस्तानी नौसेना फ्रांस-निर्मित पांच पनडुब्बियों के बेड़े का संचालन कर रही है, जिसमें तीन आधुनिक अगोस्ता 90बी भी शामिल हैं. वह 15 ऐसे ही जलपोतों के बेड़े को पानी में उतारने की भी उम्मीद कर रही है. स्ट्रेटजिक फोर्सेज के पूर्व कमांडर वाइस एडमिरल विजय शंकर (सेवानिवृत्त) कहते हैं, "चीन की पनडुब्बी निर्माण टेक्नोलॉजी संदिग्ध है और पाकिस्तानी खरीदने से पहले इस नाव की अच्छी तरह से पड़ताल करना चाहेंगे."
हालांकि पाकिस्तानी पनडुब्बियों को नौसेना में शामिल होने में अभी कई साल लगेंगे, लेकिन वे जब भी शामिल की जाएंगी, भारत को पनडुब्बी विरोधी जंग की तैयारियों में और ज्यादा निवेश करना होगा. भारतीय खुफिया अफसर मानते हैं कि युआन-श्रेणी की पनडुब्बियों से पाकिस्तान की रणनीतिक ताकत में कई गुना इजाफा हो सकता है और वह जवाबी हमले की क्षमता या समुद्र के भीतर से परमाणु हथियार छोडऩे की क्षमता से लैस हो जाएगा. पाकिस्तान ने जमीन से मार करने वाली क्रूज मिसाइल बाबर विकसित कर ली है, जो 500 से 700 किमी की दूरी तक मार कर सकती है और जिसका पहला परीक्षण 2005 में किया गया था. माना जाता है कि इन मिसाइलों के अग्रभाग पर प्लुटोनियम आधारित अतिसूक्ष्म परमाणु बम फिट किया जा सकता है, जिसकी वजह से इन्हें समुद्र के भीतर से छोड़ा जाना मुमकिन होगा. इससे उसकी पनडुब्बियों का बेड़ा भारत के तमाम समुद्र तटों को अपना निशाना बना सकेगा.
भारत के विकल्प
भारत सरकार चीन-पाकिस्तान की गलबहियों को व्यग्रता से देखती रही है, हालांकि ठीक इन्हीं दिनों वह चीन के साथ आर्थिक रिश्तों को बढ़ाने की कोशिशें भी करती रही है और इसके लिए उसने सीमा के विवादित मुद्दे को नेपथ्य में रख दिया है. अमेरिका लगातार कोशिश कर रहा है कि भारत दक्षिण चीन समुद्र में ज्यादा बढ़-चढ़कर सक्रिय भूमिका अदा करें, लेकिन भारत के इससे बचने की मुख्य वजह यह डर ही है कि कहीं चीन इससे नाराज न हो जाए. एक नौसेना अधिकारी कहते हैं, "दूसरे देशों की चीन के साथ इतनी विशाल सीमाएं नहीं हैं." ऐसा तब है, जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन ने पाकिस्तान के साथ अपने रणनीतिक सहयोग को बढ़ावा दिया है. मेजर जनरल बख्शी कहते हैं, "हू जिंताओ सरीखे पहले के राष्ट्रपतियों ने पाकिस्तान को बड़े हथियारों के हस्तांतरण से परहेज किया था, क्योंकि वे भारत को अमेरिका के पाले में धकेलना नहीं चाहते थे."
भारत ने हाल ही के हथियारों के हस्तांतरण पर तो चुप्पी साध रखी है, लेकिन 46 अरब डॉलर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का मुद्दा उसने उच्चतम स्तरों पर उठाया और अपना एतराज दर्ज किया है. इस गलियारे का मकसद चीन के शिनजियांग प्रांत को ग्वादर से जोडऩा है. 3,000 किमी लंबे गलियारे में बिजली संयंत्रों और औद्योगिक क्षेत्रों का नेटवर्क होगा. भारत के लिए यह चिंता की बात इसलिए है, क्योंकि यह पाकिस्तानी के कब्जे वाले कश्मीर से होकर गुजरेगा. 31 मई को नई दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि मोदी ने हाल ही की अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का मुद्दा उठाया. आने वाले दिनों में इस रणनीतिक गठबंधन से निबटने के लिए नई दिल्ली को सख्त लफ्जों से ज्यादा माकूल कोई चीज खोजनी पड़ेगी.