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लगभग दो दशकों से अधिक समय 1992 में संशोधित 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ही शिक्षा के क्षेत्र में केंद्र सरकार की दिशा-निर्देशक बनी हुई है. इसके पहले 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाई गई थी, जो आजादी के बाद शिक्षा के मामले में पहली राष्ट्रीय पहल थी. हालांकि अंग्रेजी राज के दौरान भी वर्धा शिक्षा योजना (महात्मा गांधी की नई तालीम) ने 1938 में एक ''राष्ट्रीय नीति" का मसौदा तैयार किया और प्रांतीय सरकारों से उस पर अमल करने की सिफारिश की. कैब (सीएबीई) कमेटी की ''युद्ध के बाद भारत में शिक्षा के विकास की योजना" पर 1944 की रिपोर्ट (सरजेंट प्लान) में शिक्षा के ''भारतीयकरण," प्राथमिक शिक्षा को सबके लिए सुलभ बनाने और शिक्षा की कुल गुणवत्ता को सुधारने पर जोर दिया गया था.
यूं तो 1986-92 की शिक्षा नीति विचार और अवधारणा के मामले में काफी व्यापक है लेकिन उससे शिक्षा क्षेत्र में माकूल नतीजे नहीं निकले हैं. तमाम तरह के लक्ष्यों और कार्यक्रमों के बावजूद देश में शिक्षा का मामला सबसे लचर है. ज्यादातर उद्देश्य और लक्ष्य आंशिक रूप से भी नहीं हासिल किए जा सके हैं. इसकी बड़ी वजह यह है कि न कोई व्यावहारिक रूपरेखा है और न संचालन संबंधी विशिष्ट नियम-कायदे. और तो और, गांव/ब्लॉक से ही हर स्तर पर भारी राजनीतिकरण के साथ भ्रष्टाचार का दायरा इस हद तक बढ़ गया है कि शिक्षा का कोई पहलू इससे अछूता नहीं रह गया है. पिछले करीब तीन दशकों की तो यही सबसे अहम कहानी है.
लोकतंत्र में शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य विकास के शायद दो सबसे अहम प्रतीक हैं. पिछले दशकों की हकीकत यही है कि इन क्षेत्रों की ओर रत्ती भर भी ध्यान नहीं दिया गया है. सो, आज, दुर्भाग्य से, जमीनी हकीकत उससे कतई अलग है जिसे इस नीति का उद्देश्य बताया गया था. स्कूलों में और उच्चतर शिक्षा संस्थानों दोनों में दाखिले तेजी से बढ़े हैं लेकिन उसके साथ कई बेहद अनचाहे नए मामलों में भी इजाफा हुआ है. स्कूली व्यवस्था में बुनियादी सुविधाओं में इजाफा हुआ है लेकिन पढ़ाई की गुणवत्ता में मामूली फर्क भी नहीं आया है. यही नहीं, लगातार कई अध्ययनों से पता चलता है कि स्कूली पढ़ाई के नतीजों में चिंताजनक गिरावट आई है. सरकारी स्कूल न्यूनतम गुणवत्ता की शिक्षा देने में भी नाकाम रहे हैं. नतीजतन, ग्रामीण इलाकों में भी निजी या ''सहायताप्राप्त" स्कूल बड़े पैमाने पर खुल गए हैं लेकिन ये भी कोई मार्के का नतीजा नहीं दे पाए हैं. निजी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की भी बाढ़ आ गई है, जिनमें ज्यादातर कोई खास फर्क नहीं है और इनसे मिलने वाली डिग्री पर कई वाजिब सवाल उठ चुके हैं. शिक्षा की उपलब्धता और दाखिले के मामले में काफी प्रगति तो हुई है लेकिन अब नई चिंता शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर बढ़ती जा रही है. ''समावेशी" शिक्षा व्यवस्था का मुद्दा तो कहीं दूर छूट गया है.
राष्ट्रीय शिक्षा शोध और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी), एनजीओ प्रथम (एएसईआर), और गुजरात सरकार के संचालन में चलने वाला ''गुणोत्सव" भी पिछले करीब 15 साल से पढ़ाई और नीतियों पर अमल के स्तर के आकलन में जुटे हुए हैं. उनके ताजा अध्ययन बेहद निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं. मसलन, एएसईआर, 2014 के मुताबिक आठवीं कक्षा के 25 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा के पाठ नहीं पढ़ सकते, ग्रामीण स्कूलों में दूसरी कक्षा के ऐसे छात्रों की संख्या 2010 में 13.4 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 32.5 प्रतिशत हो गई है जिन्हें अक्षर ज्ञान तक नहीं है. सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के स्तर में 2010 से 2012 के बीच तेजी से गिरावट आई है. पांचवीं कक्षा के आधे बच्चे ऐसी बुनियादी बातें भी नहीं सीख पाए थे, जो उन्हें दूसरी कक्षा में सीख लेनी चाहिए थी. करीब 50 प्रतिशत बच्चे गणित की बुनियादी बातें सीखे बगैर आठ साल की स्कूली पढ़ाई पूरी कर लेते हैं. इसके बाद यह बताने के लिए किसी विशेष टिप्पणी की दरकार नहीं है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था भारी दुर्दशा की शिकार है और उसमें फौरन सुधार के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है.
शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून की वजह से स्कूलों में दाखिलों के साथ बुनियादी संरचना पर भी जोर बढ़ा है, लेकिन अब नए गंभीर मुद्दे उभर आए हैं जिनका हल तलाशना जरूरी है. खासकर ''फेल न करने की नीति" पर दोबारा विचार करने की जरूरत है. यह आश्वस्त किया जाना चाहिए कि यह वैकल्पिक हो और समझदारी के साथ अमल किया जाए.
शिक्षा व्यवस्था में, स्कूल और उच्चतर शिक्षा दोनों के स्तर पर निजी क्षेत्र की भागीदारी के संबंध में कोई स्पष्ट नीति नहीं है. इस मामले में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरीके अपनाए जाने की गुंजाइश तो है लेकिन सरकारी और निजी क्षेत्र की भूमिकाएं स्पष्ट नहीं हैं. सिद्धांत रूप में हमारी व्यवस्था यह मंत्र जपती दिखती है कि शिक्षा श्कारोबार्य नहीं है, कि किसी शिक्षा संस्थान का उद्देश्य मुनाफा कमाना ही नहीं होना चाहिए. लेकिन सार्वजनिक जीवन के दूसरे तमाम क्षेत्रों की ही तरह हकीकत इन मंत्रों से बिल्कुल जुदा है. पिछले दो दशकों में उच्चतर शिक्षा संस्थानों में भारी वृद्धि दरअसल ''कैपिटेशन फीस" के चलन पर आधारित है, जो काले धन और संदिग्ध वित्तीय लेन-देन पर पलती है. यह भी तथ्य है कि कई तथाकथित ''धर्मार्थ शिक्षण ट्रस्टों" का मकसद विशुद्ध पैसा कमाना ही है और ज्यादातर मामलों में राजनैतिक बिरादरी के साथ सांठगांठ या उसकी शह से इनका कारोबार चलता है. ये सब घटनाक्रम गंभीर और अति कठोर सुधारों के तकाजे की याद दिलाते हैं.
अकादमिक शोध की गुणवत्ता, कुल दाखिले और नतीजे दोनों ही मामलों में उम्मीद से काफी कमतर है. अकादमिक क्षेत्र में सक्रियता और तेजी के लिए नए विचारों और शोध की दरकार है. इस क्षेत्र में विशेष ध्यान देने की जरूरत है जो हमारी अर्थव्यवस्था में काफी योगदान कर सकता है.
हर महत्वाकांक्षी समाज में मां-बाप की स्वाभाविक चाहत यही होगी कि उनके बच्चे ''अच्छी शिक्षा" पाएं. हालांकि रोजगार के क्षेत्र के लिए हुनर के विकास और उसके समकक्ष अकादमिक मानक स्थापित करने की गंभीर औपचारिक कोशिशें नहीं हुई हैं. इसका यह भी मतलब है कि डिग्री के साथ आगे बढऩे के रास्ते मुहैया नहीं हैं. गुणवत्तापूर्ण रोजगारपरक प्रशिक्षणों को सम्मानजनक हैसियत दिलाने और उनको समाज में स्वीकार्य बनाने का माहौल तैयार करने के लिए भी फौरन ध्यान देने की जरूरत है.
एक बड़ा और नया पहलू सूचना और संचार तकनीक का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल है. सूचनाओं के आदान-प्रदान, हुनर में इजाफे और कई तरह के मामलों में अब नई तकनीक उपलब्ध है लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में अभी तक पर्याप्त ढंग से इनका उपयोग नहीं किया जा सका है. गुणवत्ता में सुधार, शिक्षकों की तैयारी, कक्षा में शिक्षक की मददगार तकनीक और कोचिंग के लिए तकनीक में इजाफे की प्रचुर संभावनाएं हैं. इस दिशा में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए. छात्रों की पढ़ाई के स्तर, छात्रों के प्रदर्शन से शिक्षकों के प्रदर्शन को जोडऩे, अलग-अलग स्कूलों की प्रगति को जांचने जैसे अनगिनत चीजें ''बिग डाटा" से की जा सकती हैं. बेशक, तकनीक बड़े पैमाने पर भारत में पहुंची है पर भारतीय स्थितियों के अनुरूप उसे साधने की कोशिश अभी नहीं हुई है.
खुशकिस्मती से, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, खासकर मानव संसाधन विकास मंत्री ने शिक्षा क्षेत्र के पुनर्जीवन के लिए बड़े कदम उठाए हैं और वे जल्दी ही नई शिक्षा नीति की घोषणा करने का इरादा रखती हैं. यह बेहद स्वागतयोग्य कदम है. उम्मीद की जाती है कि नई पहल शिक्षा क्षेत्र को नई दिशा देगी, शिक्षा के मानकों में भारी गिरावट को रोकेगी, और बेहतर गुणवत्तापूर्ण मानकों की राह प्रशस्त करेगी. शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाने, हर स्तर पर राजनैतिक दखलअंदाजी को खत्म करने या कम से कम करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति ही भारत को एक ही पीढ़ी में विश्व स्तर पर पहुंचा सकती है. सो, नई नीति के दांव ऊंचे हैं, इसी से तय होगा कि भारत इस सदी में विश्व गुरु बनेगा या नहीं.
(लेखक पूर्व कैबिनेट सचिव हैं और नई शिक्षा नीति पर विशेषज्ञ समिति के अगुआ रहे हैं. समिति अपनी रिपोर्ट सौंप चुकी है.)