
शुक्रवार 21 अक्तूबर की रात तक साइरस मिस्त्री और उनकी वफादार टोली के लिए सब कुछ रोजमर्रा की तरह सामान्य चल रहा था. टाटा समूह की कार्यकारी परिषद (जीईसी) के अधिकतर सदस्यों को, जो मिस्त्री के भरोसेमंद थे, अपने बॉस की आसन्न बरखास्तगी के बारे में रत्ती भर का भी अंदेशा न था. अभी करीब महीने भर पहले ही मिस्त्री ने इस रिपोर्टर के साथ एक मुलाकात में किसी दूसरे ही संदर्भ में बातचीत के दौरान बताया था कि कैसे टाटा समूह सम्मानजनक विदाई देने में विश्वास करता है. जाहिर है, वे निहायत अलहदा संदर्भ में बात कर रहे थे. उनकी टीम के एक अन्य सदस्य ने विस्तार से बताया था कि टाटा में यह कैसे आश्वस्त किया जाता है कि अगर किसी बड़े अधिकारी को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए कहा ही जाना है, तो उसकी प्रतिष्ठा के साथ कोई खिलवाड़ न होने पाए.
यह इस बात का संकेत था कि मिस्त्री ने टाटा ट्रस्ट की ओर से मिल रहे संकेतों को ठीक से पढ़ पाने में कितनी गलती की. टाटा ट्रस्ट के प्रमुख मिस्त्री के पूर्ववर्ती रतन टाटा हैं और टाटा संस के बोर्ड के फैसलों में टाटा ट्रस्ट की बहुत बड़ी भूमिका होती है. टाटा ग्रुप की होल्डिंग कंपनी टाटा संस ही है. जिस अटपटे तरीके से अपने एजेंडे में ''कोई और मामला" संबोधित करते हुए बोर्ड ने अपने चेयरमैन को हटाया, वह टाटा समूह की अच्छी छवि पेश नहीं करता. इस समूह ने चीजों को हमेशा बड़े सलीके से अंजाम देने में फख्र महसूस किया है. यह फैसला भले ही कानूनसम्मत हो, लेकिन एक ऐसे समूह के लिए इतने वरिष्ठ अधिकारी को हटाने का ऐसा तरीका शायद उतना नैतिक नहीं, जिसने हमेशा न सिर्फ सही काम बल्कि हर काम को सही तरीके से करने का दंभ भरा हो. मिस्त्री ने बोर्ड को कड़े शब्दों में एक चिट्ठी लिखी जिसमें उनके शब्द थे, ''मुझे बस इतना ही कहना है कि निदेशक बोर्ड ने कोई प्रतिष्ठाजनक काम नहीं किया है...अपने चेयरमैन को बिना कोई कारण बताए और उसे अपना बचाव करने का मौका दिए बगैर हटाना... शायद कॉर्पोरेट इतिहास के पन्नों में अपनी तरह की अलग मिसाल होगी."
सब तरफ से पड़ताल कर लिए जाने के बाद यही तथ्य निकलकर आता है कि मिस्त्री को हटाए जाने की सूचना इतवार, 23 अक्तूबर को टाटा संस के बोर्ड के ही एक सदस्य ने दी. सूत्रों की मानें तो उनसे कहा गया था कि अगर वे फौरन इस्तीफा दे देते हैं तो उन्हें सम्मानजनक तरीके से जाने दिया जाएगा. यह प्रस्ताव उनको वाकई दिया गया था या नहीं, इसकी स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं की जा सकी है. सूत्रों का यह भी कहना है कि मिस्त्री को यह समझ लेना चाहिए था कि उनका समय पूरा हो चुका था क्योंकि इस बारे में उन्हें करीब साल भर पहले ट्रस्ट की ओर से सूचना दी जा चुकी थी कि वे उसकी उम्मीद पर खरे नहीं उतर रहे हैं. मिस्त्री ने बोर्ड की बैठक में अपना पक्ष रखकर जोखिम उठाने का फैसला किया. उन्हें इस बात का कतई इल्म न था कि टाटा ट्रस्ट—एक तरह से रतन टाटा ही समझें—कम से कम एकाध महीने पहले से इस काम की तैयारी में जुटा हुआ था. सभी सदस्यों को बोर्ड की बैठक से पहले ही इस बारे में बताया जा चुका था और यहां तक कि फैसले के संबंध में कानूनी सलाह भी ली जा चुकी थी. मिस्त्री को या तो खुद ही इस्तीफा दे देना था या फिर बैठक के एजेंडे में ''कोई और मामला" के तहत बोर्ड के एक प्रस्ताव के जरिए उन्हें हटा दिया जाना था. और जैसा कि बाद में देखने में भी आया, बोर्ड के दो सदस्यों ने मतदान नहीं किया, बाकी सभी ने उन्हें हटाने के पक्ष में अपने वोट डाले. जब तक कोई उत्तराधिकारी नहीं मिल जाता, खुद रतन टाटा अंतरिम चेयरमैन की भूमिका निभाते रहेंगे. हालांकि कमेटी को नया चेयरमैन खोजने के लिए चार महीने का वक्त दिया गया है.
बोर्ड की बैठक के फौरन बाद मिस्त्री को हटाए जाने जैसे सक्चत फैसले के सीधे ऐलान ने कॉर्पोरेट समुदाय में सदमे की लहर पैदा कर दी. यह एक ऐसे शख्स की अचानक हुई बर्खास्तगी थी, जिसे खुद रतन टाटा ने साल भर की तलाश के बाद अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और जिसने दिसंबर 2012 में चेयरमैन का पद औपचारिक रूप से ग्रहण करने से पहले उनके करीब रहते हुए करीब साल भर तक काम किया. उनके इस पद को ग्रहण करते वक्त टाटा ने कहा था कि मिस्त्री ''उनके अपने आदमी" हैं. मिस्त्री ने शायद इस बात को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया.
बोर्ड के इस फैसले से कुछ बातों की ओर साफ तौर पर नजर जाती है. पहली तो यही कि टाटा समूह में किसी का निष्कासन आम तौर पर इतना अटपटा नहीं होता—या कह सकते हैं कि लंबे समय से ऐसा कुछ देखने में नहीं आया. समूह में इससे पहले विवादास्पद विदाई उस वक्त दिखी थी जब रतन टाटा के 1991 में पहली दफा टाटा संस के चेयरमैन का कार्यभार संभालने के कुछ साल बाद उनकी उस दौर के समूह के क्षत्रपों रूसी मोदी, दरबारी सेठ, अजित केरकर और ननी पालखीवाला के साथ खुलकर झगड़ा हुआ था (तब भी इस काम को बड़े सलीके से अंजाम दिया गया था. अवकाश प्राप्ति की उम्र सीमा को घटाकर क्षत्रपों को ''रिटायर" कर दिया गया था. उनके चले जाने के बाद टाटा संस ने अवकाश प्राप्ति की उम्र सीमा को फिर से बढ़ा दिया).
दूसरी बात यह थी कि मिस्त्री कई वजहों से टाटा संस के बोर्ड में काफी गहरे घुसे हुए थे, इसके बावजूद उन्हें हटाया गया. टाटा संस का चेयरमैन होने के अलावा वे 2006 यानी अपने पिता के रिटायर होने के बाद से ही बोर्ड के भीतर शपूरजी पालनजी परिवार के कारोबारी हितों की नुमाइंदगी करने वाले निदेशक भी थे—टाटा संस के 18.5 फीसदी शेयर इसी परिवार के पास हैं और इस तरह से यह सबसे बड़ा शेयरधारक है. टाटा संस का चेयरमैन और समूह की अधिकतर सूचीबद्ध कंपनियों का चेयरमैन होने के नाते मिस्त्री टाटा संस के उन शेयरों की भी नुमाइंदगी करते थे जो इन कंपनियों के पास थे और जो कुल शेयरों के 13 फीसदी के आसपास बैठते हैं.
इतना ही नहीं, इससे पहले भी वे टाटा के साथ काम कर रहे थे और टाटा की कुछ कंपनियों के बोर्ड में निदेशक भी रहे थे. उनकी बहन अलू रतन टाटा के सौतेले भाई नोएल के साथ ब्याही हैं. इसके बावजूद कुल मिलाकर यह समूह के गठन के बाद से टाटा संस के एक चेयरमैन के लिए सबसे छोटी अवधि साबित हुई. साइरस ने 44 साल की उम्र में कमान थामी थी और अपनी उम्र की 48वीं दहलीज पर कदम रखते ही वे वहां से विदा कर दिए गए. उनका कार्यकाल एन. सकलातवाला के छह साल के कार्यकाल से भी कम रहा है जो 1932 से 1938 के बीच इस पद पर रहे. इसमें दूसरा तथ्य यह भी है कि सकलातवाला को हटाया नहीं गया था, बल्कि उनकी मौत हो गई थी. संयोग से, सकलातवाला ऐसे दूसरे चेयरमैन थे जिनका उपनाम टाटा नहीं है.
सोमवार 24 अक्तूबर की शाम तक कुछ और सूचनाएं सामने आईं. एक सूचना यह थी कि समूह की कार्यकारी परिषद को तत्काल प्रभाव से बरखास्त किया गया है, जिसमें मधु कण्णन, मुकुंद राजन, निर्मल्य कुमार और हरीश भट्ट शामिल हैं. इन्हें आगे रखा जाएगा या फिर जाने के लिए कहा जाएगा, इस बारे में अभी कुछ भी पता नहीं है. हालांकि कुछ रिपोर्टों की मानें तो टाटा के पुराने कर्मचारी मुकुंद राजन और हरीश भट्ट को रखा जा सकता है जबकि दूसरों को जाने के लिए कहा जा सकता है.
बर्खास्तगी जिस तीव्रता से हुई, उससे मिस्त्री खुद सदमे में आ गए. बोर्ड को भेजी गई चिट्ठी में उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया के बारे में लिखा कि वे ''इतने सदमे में हैं कि उसे शब्दों में जाहिर नहीं किया जा सकता्य्य और यह कदम ''कॉर्पोरेट इतिहास में अप्रत्याशित" है. प्रतिक्रिया के लिए हालांकि वे उपलब्ध नहीं थे लेकिन महीने भर पहले इस रिपोर्टर से उन्होंने एक बातचीत के दौरान कहा था कि टाटा में तभी किसी व्यक्ति या कंपनी को हटाया जाता है जब हर विकल्प आजमा लिया जाता है, हां, नैतिकता जैसे मुद्दों पर समझौता किया गया हो, तब यह अपवाद हो सकता है. (और अभी तक तो यही समझ में आ रहा है कि मिस्त्री को अनैतिक कार्यों के लिए नहीं हटाया गया. ऐसा लगता है कि उन्हें इसलिए हटाया गया क्योंकि वे कारोबारी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पा रहे थे). जैसे-जैसे और विवरण आते जा रहे हैं, यह बात साफ होती जा रही है कि टाटा और मिस्त्री के बीच कई चीजों पर मतभेद थे. मिस्त्री अपनी चिट्ठी में कहते हैं कि उनकी सहमति न होने के बावजूद उन्हें दो विमानन कारोबारों (विस्तारा और एयर एशिया इंडिया) में कंपनी के निवेश के लिए मजबूर किया गया क्योंकि टाटा ''एयरलाइन क्षेत्र के प्रति खास झुकाव" रखते हैं.
मिस्त्री की चिट्ठी आगे कहती है कि उन्हें विरासत में कर्ज से लदा एक कारोबार चलाने को मिला था जिसके तहत इंडियन होटल्स कंपनी, टाटा मोटर्स लिमिटेड की सवारी वाहन इकाई, टाटा स्टील लिमिटेड का यूरोपीय कारोबार और साथ ही टाटा पावर तथा टाटा डोकोमो कंपनियां घाटे में चल रही थीं. उनके पत्र में लिखा है कि इन इकाइयों में 1.96 खरब रुपये—समूह की कुल संपत्ति से ज्यादा—झोंकने के बावजूद आने वाले कुछ समय में इनका 1.18 खरब रु. बकाया माफ किए जाने की जरूरत पड़ेगी.
साइरस अपनी चिट्ठी में रतन टाटा की ओर से लगातार किए गए हस्तक्षेप का भी हवाला देते हैं और कहते हैं कि समूह का कायाकल्प करने के लिए उन्हें कभी भी अपने तरीके से काम करने की छूट नहीं दी गई.
बढ़ता टकराव
मिस्त्री और जीईसी के सदस्यों को इस अनिष्ट का भले ही कोई एहसास न रहा हो, लेकिन समूह के भीतर तनाव लगातार बढ़ रहा था. मिस्त्री ने जिम्मेदारी संभालने के बाद शुरुआत में शीर्ष प्रबंधन में कोई बदलाव नहीं किया था लेकिन समय बीतने के साथ उन्होंने समूह की कंपनियों की देखरेख के लिए पूरी तरह से एक नया ढांचा खड़ा कर डाला. पहला कदम जीईसी का गठन था जो सिर्फ उन्हें ही रिपोर्ट करती और समूह तथा उसकी कंपनियों की रणनीतिक दिशा के मामले में जिसकी अहम भूमिका होनी थी. जीईसी के सदस्य टाटा संस के बोर्ड के सदस्य नहीं थे. रतन टाटा के दिनों के मुकाबले यह ग्रुप के ढांचे में एक अहम फर्क था. जीईसी के सदस्य अपेक्षाकृत युवा भी थे जिनकी उम्र 45 से 55 के बीच होगी. ये लोग उन पुराने लोगों की जगह ले रहे थे जो समूह में दशकों से बने हुए थे और जो अब साठ या सत्तर के पार हो चुके थे. इस तरह की एक बदली हुई जीईसी ने जब कमान संभाली, वह वक्त टाटा संस के कई पुराने लोगों के रिटायर होने का था जो समूचे समूह में अपनी भूमिका निभाते थे. इनमें जे.जे. ईरानी, एन.ए. सूनावाला और आर.के. कृष्णकुमार तो मिस्त्री के चेयरमैन बनते ही रिटायर हो गए. फिर किशोर चैकर और आर. गोपालकृष्णन भी रिटायर हुए. (इनमें ज्यादातर हालांकि ट्रस्टों से अब भी जुड़े हुए हैं). समूह के स्तर पर वित्त का काम देखने वाले इशात हुसैन भी जाने की तैयारी में लगे हुए थे (टाटा के मातहत समूह स्तर की दो इकाइयां थीं—रणनीतिक नियोजन और विचार के लिए ग्रुप कॉर्पोरेट काउंसिल तथा योजनाओं को लागू करने के लिए ग्रुप एक्जिक्यूटिव ऑफिस. इनके लोग चेयरमैन को रिपोर्ट करते थे हालांकि ज्यादातर टाटा संस के निदेशक भी थे).
जीईसी के अलावा मिस्त्री ने टीईबीएम यानी टाटा बिजनेस एक्सेलेंस मॉडल (अमेरिका में मैल्कम बाल्डरिज नेशनल क्वालिटी अवॉर्ड की तर्ज पर तैयार) का भी इस्तेमाल किया. टीईबीएम कंपनियों के सालाना मूल्यांकन का एक ढांचा था. मिस्त्री और जीईसी के सदस्यों का मानना था कि कंपनियों के प्रबंधन और टीईबीएम के बीच आपसी बातचीत हमेशा साफ-सुथरी नहीं रही.
असल में समस्या यह थी कि टीईबीएम का काम उन प्रक्रियाओं की पहचान करना था जो अव्वल दर्जे की नहीं थीं. इसके अलावा क्या सुधार किए जा सकते हैं, यह भी उसे सुझाना था. लेकिन कंपनियों के वरिष्ठ प्रबंधन ने अक्सर पाया कि टीईबीएम के सदस्यों (और एक तरह से काउंसिल के ही कुछ सदस्यों) को कोई फीडबैक देते हुए या किसी प्रस्ताव को रखते हुए दरअसल बिजनेस डायनामिक्स का पर्याप्त ज्ञान नहीं है. टीसीएस, टाटा मोटर्स, टाटा स्टील, टाटा केमिकल्स, टाटा पावर और समूह की दूसरी बड़ी कंपनियों के कई आला अधिकारी जीईसी और टीईबीएम के सदस्यों के सुझावों पर असहज नजर आते थे. कंपनियों का प्रबंधन उन मुट्ठी भर लोगों से सलाह लेने का कोई अर्थ नहीं समझता था, जिनके पास खुद कंपनियां चलाने का व्यावहारिक अनुभव नहीं था.
समूह स्तर के अलावा साइरस कंपनियों के स्तर पर भी बदलाव ला रहे थे. चार साल से कम के उनके कार्यकाल में टाटा स्टील, टाटा मोटर्स और इंडियन होटल्स के सीईओ बदल दिए गए. टाटा स्टील के मामले में तो सीईओ रिटायर हो गया था जिसके चलते मिस्त्री को नया नाम सुझाना पड़ा लेकिन टाटा मोटर्स में नेतृत्व परिवर्तन का कारण कार्ल स्लिम का असमय निधन रहा. इंडियन होटल्स में रेमंड बिकसन ने इस्तीफा दे दिया. शायद मिस्त्री और बिकसन के बीच रणनीतिक नजरिए को लेकर एक मतभेद था. मोटर्स और होटल्स दोनों ही कारोबारों में मिस्त्री ने पदों को भरने के लिए बाहर के आदमी की तलाश शुरू की. माना जाता है कि बिकसन रतन टाटा के करीबी थे और उनकी विदाई तथा उनकी जगह राकेश शर्मा की नियुक्ति को स्वस्थ तरीके से नहीं लिया गया, हालांकि सूत्र ऐसा कहते हैं और स्वतंत्र रूप से इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है.
सूत्रों के मुताबिक टाटा से कुछ पुराने लोगों ने नए ढांचों को लेकर शिकायत की थी और मिस्त्री के बारे में भी कुछ बातें कही थीं. सूत्र बताते हैं कि आरंभ में टाटा इन बातों पर बहुत ध्यान नहीं देते थे लेकिन समय के साथ वे धीरे-धीरे इन्हें गंभीरता से लेने लगे.
बढ़ता गया अविश्वास
सूत्र बताते हैं कि मिस्त्री के चेयरमैन बनने के बाद कम से कम एक साल तक रतन टाटा के साथ उनके संबंध बेहतरीन रहे. टाटा के नियंत्रण में जितने भी ट्रस्ट हैं, मिस्त्री के समर्थन में उन्होंने उन सब के प्रभाव का इस्तेमाल किया. एक समय तो ऐसा आया जब वे मिस्त्री को ट्रस्टों में कोई भूमिका देने के बारे में सोच रहे थे और यहां तक पहुंच गए थे कि वे अपने अवकाश लेने के बाद कोई ऐसा रास्ता बनाना चाहते थे ताकि मिस्त्री इन ट्रस्टों के उनके उत्तराधिकारी बन सकें. (फिलहाल स्थिति कुल मिलाकर यह है कि रतन टाटा उन ट्रस्टों के आजीवन मुखिया बने रहेंगे जिन्होंने मिस्त्री को हटाने का काम किया है).
शुरुआती वर्ष में मिस्त्री सभी अहम मसलों पर रतन टाटा से आगे बढ़कर परामर्श लिया करते थे. हालांकि विरासत में मिली कुछ समस्याओं से निपटने के क्रम में दोनों के बीच मतभेद कायम हुए-मसलन, टाटा नैनो (जिसके बारे में मिस्त्री का मानना है कि अगर कार के कारोबार को बचाना है तो इसे बंद कर दिया जाना चाहिए); इंडियन होटल्स की ओर से देश और विदेश में की गई महंगी खरीदारियां जिन्हें घाटा उठाकर बेचना पड़ा; टाटा स्टील यूके के घाटे से निपटने के तरीके; टाटा डोकोमो का समूचा सौदा और अंततः टाटा पावर की इंडोनेशिया स्थित खदान जैसी कुछ परिसंपत्तियां.
टाटा ट्रस्ट के सूत्र बताते हैं कि कुछ समय बाद मिस्त्री ने ट्रस्ट को कई बड़े और अहम फैसलों की सूचना देनी बंद कर दी. ट्रस्ट का सीधा मतलब रतन टाटा से ही है. कभी-कभार तो फैसले ले लिए जाते, उसके बाद टाटा संस के बोर्ड को इसकी सूचना दी जाती थी.
सूत्र बताते हैं कि चार ऐसे बड़े फैसले थे जिनके चलते विशेष रूप से असंतोष पैदा हुआरू टाटा स्टील यूके की बिक्री, वेलस्पन एनर्जी की नवीकरणीय परिसंपत्तियों की खरीद का फैसला, टाटा और उसके साझीदार डोकोमो के बीच झगड़ा तथा समूह के कर्ज कम करने के लिए अन्य वैश्विक परिसंपत्तियों की बिक्री की खातिर मिस्त्री के किए गए प्रयास. एक धारणा यह भी थी कि मिस्त्री का धड़ा विशुद्ध मुनाफे की लाइन पर चलने का हामी था और ऐसी किसी भी चीज को बेच देने पर आमादा था जिससे मुनाफा न आ रहा हो. लेकिन इस रिपोर्टर से बातचीत के दौरान मिस्त्री ने जोर देकर कहा था कि उनका नजरिया ऐसा नहीं था. (उन्होंने इशारा किया था कि अगर मामला आंकड़ों का ही होता तो ऐसे में टाटा मोटर्स के घरेलू कारोबार को जारी रखने का कोई मतलब नहीं बनता था लेकिन वे इसे मुनाफे में जाता देख रहे थे और जानते थे कि आने वाले वर्षों में इसकी स्थिति क्या होगी, इसी के चलते उन्होंने इसे बचाए रखने का फैसला लिया).
यूके के स्टील परिचालन की बिक्री को लेकर ज्यादा असंतोष इस बात से था कि टाटा को ऐसा लगा कि फैसला टाटा संस के बोर्ड और ट्रस्ट से परामर्श के बगैर लिया गया. उस वक्त 2007 में टाटा ने जब यूके के कोरस समूह का अधिग्रहण 12 अरब डॉलर में किया था तब यह किसी भी भारतीय कंपनी द्वारा की गई सबसे बड़ी विदेशी खरीद माना गया था. यह बात अलग है कि नए मालिकों के लिए बहुत जल्द यह नया कारोबार सिरदर्द बन गया. सबसे पहले तो 2008 में आई आर्थिक मंदी के चलते यूरोप में मांग में गिरावट आ गई और लागत बढऩे लगी. सीईओ बदलकर कारोबार को पटरी पर लाने की कोशिश की गई और मिस्त्री का कहना था कि 2014 तक ऐसा लग रहा था कि इसे बचाया जा सकेगा, लेकिन उसी साल से चीन में आई आर्थिक सुस्ती ने स्टील के दाम और मांग को औंधे मुंह गिरा दिया, चीन ने इसका क्षमता से ज्यादा उत्पादन कर दिया था. एक वक्त ऐसा आया जब इसका असर घरेलू परिचालन पर भी पडऩे की आशंका पैदा हो गई जहां से अब भी मुनाफा आ रहा था. आखिरकार 2016 में टाटा स्टील अपने इस विदेशी कारोबार के लिए खरीदार ढूंढने में जुट गया.
टाटा ट्रस्ट के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि मिस्त्री ने टाटा स्टील यूके के मामले में जल्दी हथियार डाल दिए और इसे अगर दो और बिक्री के फैसलों के साथ मिलाकर देखा जाए—दो बेशकीमती परिसंपत्तियां जो इंडिया होटल्स ने न्यूयॉर्क में खरीदी थीं, साथ ही इंडोनेशिया में कोयला खदान जैसी वैश्विक परिसंपत्तियां वगैरह—तो इससे अधिग्रहीत परिसंपत्तियों के प्रति टाटा समूह की दीर्घकालिक वचनबद्धताओं के बारे में गलत संदेश गया. जाहिर तौर पर यही बात ट्रस्टों और पूर्व चेयरमैन के बीच अविश्वास का स्रोत बनी.
टकराव का एक और मुद्दा वेलस्पन वैकल्पिक ऊर्जा की परिसंपत्तियों की टाटा पावर द्वारा की गई महंगी खरीद रही. टाटा पावर वित्तीय मानकों पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहा था और मिस्त्री के खिलाफ एक आरोप यह है कि उन्होंने टाटा संस बोर्ड को विश्वास में लिए बगैर बोली की प्रक्रिया को मंजूरी दे दी. जीईसी के सदस्य इस बात पर जोर देते हैं कि यह फैसला कंपनी का था जो समूह के स्तर पर लिया गया था. मिस्त्री और अन्य ने इसमें केवल सहयोगी भूमिका अदा की थी. वे कहते हैं टाटा ट्रस्टों से परामर्श के बगैर यह फैसला नहीं किया गया था और कंपनी में सभी को इसकी खबर थी. ट्रस्टों की मानें तो कर्ज कटौती के लिए मिस्त्री का स्टील और होटल के कारोबार को बेचना उसकी आंखों में चुभ गया था—साथ ही ऊर्जा क्षेत्र में की गई इतनी बड़ी खरीद ने सबकी भौंहें तान दी थीं.
टाटा डोकोमो का मामला थोड़ा जटिल है. सूत्र बताते हैं कि दोनों के बीच डोकोमो के साथ समझौता करने को लेकर मतभेद थे. टाटा टेलिसर्विसेज ने जापान की एनटीटी डोकोमो के साथ 2008 में गठजोड़ किया था जब रतन टाटा चेयरमैन हुआ करते थे. डोकोमो ने 2.2 अरब डॉलर का निवेश किया था जिसके बदले उसने 25 फीसदी हिस्सेदारी ली थी और प्रदर्शन के लक्ष्य स्पष्ट थे. सौदा कहता है कि अगर ये लक्ष्य कारगर नहीं रहे या डोकोमो को इस समझौते से निकलने की इच्छा हुई, तो उसे कम से कम आधी राशि यानी 1.1 अरब डॉलर प्राप्त होगी, जो उसने निवेश की थी.
टाटा का टेलिकॉम कारोबार कारगर नहीं रहा और घाटा उठाता गया. जब डोकोमो ने अंततः बाहर निकलने की इच्छा जताई, तब शेयर के दाम इतना नीचे गिर चुके थे कि उसे 1.1 अरब डॉलर चुकाने का कोई तरीका नहीं था, सिवाय इसके कि टाटा उन शेयरों की खरीद को तैयार हो जाता. डोकोमो की बदकिस्मती ही कहें कि आरबीआइ और भारत सरकार ने टाटा द्वारा अदा की जा रही ऐसी राशि के खिलाफ अपना मत दे दिया जो शेयर की कीमत के अनुकूल नहीं थी, भले ही वह समझौते का अंग रही हो. (इसमें विदेशी मुद्रा की निकासी शामिल थी इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक का इस मामले में दखल रहा).
डोकोमो ने इसके बाद टाटा को ब्रिटेन में मध्यस्थता के मुकदमे में खींच लिया और 1 अरब डॉलर से ऊपर की राशि के हक में फैसला ले आया. टाटा ने कहा कि वह पैसे चुकाने का इच्छुक है बशर्ते भारत सरकार उसे इसकी अनुमति दे. अगर नहीं देती, तब ऐसा मुमकिन नहीं हो पाएगा.
रतन टाटा को ऐसा लगा कि मिस्त्री ऐसा कह कर टाटा की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचा रहे हैं जो आगे के सौदों पर असर डाल सकता है. इसके बजाए मिस्त्री का पक्ष थोड़ा कठोर रहा और वे कानूनी विकल्पों के पक्ष में खड़े रहे. इस मसले पर वास्तव में दोनों के बीच मतभेद रहा या नहीं, इसकी स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं की जा सकी है.
जीईसी के पूर्ववर्ती सदस्य इस बात को समझाने का बहुत जतन करते हैं कि यह धारणा ही गलत है कि मिस्त्री उन तमाम चीजों को बेचना चाहते थे जो टाटा ने खरीदी थीं और समूह को ज्यादा मुनाफाकारी बनाने के लिए मिस्त्री परिसंपत्तियों की बिक्री के काम में जुटे हुए थे. उनका दावा है कि बेचने का फैसला तो वास्तव में आखिरी विकल्प था जब बाकी सब कुछ नाकाम हो चुका हो. अनुपात के मामले में उनका मानना है कि साइरस के नेतृत्व में परिसंपत्तियों की बिक्री पिछली अवधियों से कोई खास अलग नहीं रही है.
अगर अविश्वास के ये कारण थे, तो बोर्ड की नई नियुक्तियों ने भी इसमें कुछ और बीज बोने का काम किया. मिस्त्री की अचानक बर्खास्तगी के कुछ महीने पहले ही टाटा संस के बोर्ड का विस्तार हुआ. इसका प्राथमिक कारण टाटा ट्रस्टों की बेहतर नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना था. आरंभ में टाटा संस के बोर्ड में रोनेन सेन, इशात हुसैन, विजय सिंह और फरीदा खंबाटा सदस्य थे. अगस्त के अंत में टीवीएस समूह के चेयरमैन वेणु श्रीनिवासन, पीरामल एंटरप्राइजेज के चेयरमैन अजय पीरामल और बेन कैपिटल के अमित चंद्रा को बोर्ड में शामिल कर लिया गया.
रिपोर्टें बताती हैं कि नए सदस्यों को मिस्त्री से परामर्श के बगैर शामिल किया गया. अंत में हुआ यों कि आखिरी बैठक में न तो नए सदस्यों ने और न ही पुराने लोगों ने मिस्त्री का पक्ष लिया. रिपोर्टों के मुताबिक दो सदस्य इशात हुसैन और फरीदा खंबाटा ने वोट नहीं डाले, लेकिन बाकी सब ने मिस्त्री को हटाने के पक्ष में मत दिया.
ज्यादा तेज या बहुत धीरे?
ट्रस्टों के सूत्र बताते हैं कि मिस्त्री काफी रुढ़िवादी और वित्तीय मामलों में बेहद सतर्क रवैए से काम लेते थे. उनके पास रतन टाटा की तरह कारोबार को बढ़ाने का नजरिया नहीं था. सूत्रों की माने तो उन्हें टाटा मोटर्स के नए प्रमुख को चुनने में कितना लंबा वक्त लगा जब कार्ल स्लिम की असमय मौत हो गई (मिस्त्री को नए प्रमुख के रूप में गुंतेर बुश्चेक को नियुक्त करने में दो साल का समय लगा). वे यह भी कहते हैं कि मिस्त्री के पद ग्रहण करने के बाद बाहरी तौर पर बहुत ज्यादा गतिविधियां देखने को नहीं मिल रही थीं—चाहे वह बड़े अधिग्रहण रहे हों या फिर बड़ी ग्रीनफील्ड परियोजनाओं की शक्ल में कोई काम.
दूसरी ओर कुछ ऐसे आलोचक भी हैं जिनका कहना है कि टाटा की विरासत को खत्म करने की दिशा में मिस्त्री काफी तेजी से आगे बढ़ रहे थे. वे इसके समर्थन में यूके स्थित टाटा स्टील के कारोबार की बिक्री, दूसरी परिसंपत्तियों को बेचे जाने तथा डोकोमो के साथ चली कानूनी जंग का हवाला देते हैं.
जहां तक मिस्त्री का सवाल है, वे शायद इस बात को जरूर मानेंगे कि वे काफी सतर्कता के साथ आगे बढ़ रहे थे और दूसरे समूहों की तरह उनके कदम तेज नहीं थे. जहां तक टाटा मोटर्स वाली बात है, दो साल के दौरान उन्होंने दर्जनों योग्य व्यक्तियों से उसके प्रमुख के पद के लिए मुलाकात की थी और अंत में बुश्चेक को चुना क्योंकि उन्हें ऐसा लगा कि बुश्चेक ''टाटा समूह की संस्कृति" के हिसाब से उपयुक्त प्रत्याशी होंगे.
बात दरअसल उलटी है. शायद यह दीर्घकालिक नजरिए को अपनाने और टाटा की संस्कृति के साथ कोई दखलंदाजी नहीं करने का मामला था जिसने मिस्त्री की मद्धम चाल वाली धारणा को जन्म दिया. जीईसी के एक तत्कालीन सदस्य बताते हैं, ''एकाध साल में हम समूह की 150वीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं. हमारे सारे फैसले उसी संदर्भ में लिए जाने होंगे कि हमें अभी बढऩा है और अगले 150 साल तक कायम रहना है." जीईसी के तत्कालीन सदस्यों के साथ हुई बैठकों में इस बात को बार-बार दोहराया जाता था.
विस्तार से देखें तो मिस्त्री के कार्यकाल में टाटा समूह का प्रदर्शन मिश्रित दिखता है. रतन टाटा के कार्यकाल में समूह का राजस्व 1991 से 2013 के बीच सीएजीआर पर 19.2 फीसदी की दर से बढ़ा था. हालांकि सबसे तीव्र वृद्धि 2001 से 2010 के बीच रही जब समूह ने विदेश में काफी आक्रामकता के साथ अपने कदम रखे और कई बड़े अधिग्रहणों को अंजाम दिया, जिनमें कोरस और जगुआर-लैंडरोवर अहम रहे, साथ ही वेबरेज क्षेत्र की खरीद भी शामिल रही. इसके बाद हालांकि 2008 की आर्थिक मंदी के मद्देनजर कोरस का अधिग्रहण समूह के गले की फांस बन गया.
साइरस के कार्यकाल में 2013 से 2016 के बीच वृद्धि दर आधे से भी कम हो गई और सीएजीआर के 8.5 फीसदी पर आकर टिक गई. दूसरी ओर वैश्विक अर्थव्यवस्था लडख़ड़ाई हुई थी और चीन की वृद्धि में नाटकीय गिरावट देखी जा रही थी. इसने टाटा स्टील और टाटा मोटर्स दोनों के परिचालन को प्रभावित किया. पहले के ऊंचे आधार के मुकाबले यह भी वृद्धि ही थी.
बोर्ड को लिखा मिस्त्री का पत्र साफ करता है कि उन्हें ऐसा अहसास था कि वे रतन टाटा के कार्यकाल में की गई कुछ कीमती गलतियों में फंस गए हैं जबकि उन्हें तेजी से कार्रवाई करने की आजादी भी नहीं दी जा रही थी.
जो भी वृद्धि हुई, उसका श्रेय दो कंपनियों को जाता है- टीसीएस (20 फीसदी से ज्यादा सीएजीआर) और रतन टाटा की खरीदी कंपनी जगुआर-लैंडरोवर. समूह की बाकी ज्यादातर कंपनियों की वृद्धि तीन से चार फीसदी के बीच रही और टाटा स्टील तो वृद्धि के मामले में वास्तव में संकुचित हो रही थी.
समूह के बतौर देखें तो मुनाफा भी कोई चमकदार नहीं रहा. दूसरी ओर कर्ज को मोटे तौर पर नियंत्रण में रखा गया और समूह ने सालाना 9 अरब डॉलर से 10 अरब डॉलर के बीच अपना पूंजीगत व्यय बनाए रखा, जिसमें अधिकतर हिस्सा क्षमता संवर्द्धन और नए निवेशों को गया.
दूसरी ओर समूह की कंपनियों का बाजार पूंजीकरण मार्च 2012 के करीब 4,34,000 करोड़ रु. से बढ़कर मार्च, 2016 में 759,000 करोड़ रु. तक पहुंच गया. साफ है कि बाजार में यह धारणा थी कि मिस्त्री अच्छा काम कर रहे हैं (हालांकि इस अवधि में सेंसेक्स भी बढ़ा, उसकी रक्रतार थोड़ा अलग रही).
निश्चित रूप से मिस्त्री ने कोई घुड़दौड़ नहीं लगाई, लेकिन यह भी ध्यान में रखा जाना होगा कि उनके कार्यकाल में दुनिया बदल चुकी थी और मद्धम वृद्धि एक वैश्विक परिघटना की शक्ल ले चुकी थी.
एक लंबा इतिहास और भविष्य
तमाम खबरें ऐसी आ रही हैं कि मिस्त्री शायद कोई मुकदमा कर सकते हैं, लेकिन फिलहाल ऐसा लगता नहीं है. इस स्टोरी के प्रेस में जाते वक्त उनकी ओर से एक प्रेस विज्ञप्ति प्राप्त हुई है जो कहती है कि मीडिया को मुकदमेबाजी की अटकलों से दूर रहना चाहिए. साइरस मिस्त्री एक नितांत निजता में रहने वाले व्यक्ति हैं और ज्यादा प्रचार के भूखे नहीं हैं. उनका परिवार भी चमक-दमक से दूर रहने वाला है और वे मीडिया में किसी किस्म का प्रचार नहीं चाहते, चाहे अच्छा हो या बुरा. इसीलिए यह मानना मुश्किल है कि यह परिवार खुद को एक ऐसी कानूनी जंग में फंसने देगा जो उसे सुर्खियों के केंद्र में ला दे. उनके लीक हुए पत्र से अगर कोई भी संकेत मिलता है, तो वह केवल इतना ही है कि अपने किए काम के बारे में वे निदेशक बोर्ड और जनता को साफ-साफ बता देना चाहते हैं और पत्र के माध्यम से उन्होंने अपना पक्ष सबके सामने रख दिया है.
कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती. मामला अगर जनता के बीच नहीं लाने का फैसला किया गया है, तो उससे मामले का अंत नहीं हो जाता. शपूरजी पालनजी समूह कोई हलकी चीज नहीं है. यह कई अरब डॉलर वाला एक बड़ा कारोबार है जिसके पास अपने विशाल संसाधन मौजूद हैं. टाटा समूह के साथ उनका एक साझा इतिहास रहा है जिसकी शुरुआत उस वक्त हुई थी जब साइरस के दादा शपूरजी पालनजी ने टाटा में वे शेयर नहीं खरीदे थे, जो इस परिवार को टाटा संस का सबसे बड़ा शेयरधारक बनाते हैं.
टाटा समूह के आरंभिक दिनों में प्रतिष्ठित पारसी देनदार फ्रामरोज एदुलजी दिनशॉ अकसर इस समूह को उसकी परियोजनाओं के लिए कर्ज दिया करते थे. जब कर्ज चुकाना मुश्किल होता था तो उन्हें टाटा संस के शेयर दे दिए जाते थे. दिनशॉ टाटा परिवार के पुराने मित्र थे इसलिए उन्होंने कभी भी उसके शेयर बेचने के बारे में नहीं सोचा. इस दौरान शपूरजी पालनजी का परिवार मुंबई और कहें कि महाराष्ट्र के आदिम बिल्डरों में शामिल हो चुका था क्योंकि उसका काम बहुत साफ था. उसने टाटा की कई इमारतें बनवाई थीं. दिनशॉ का मकान भी इसी ने बनवाया था.
जब दिनशॉ का निधन हुआ, उस वक्त सकलातवाला टाटा संस के चेयरमैन थे और जेआरडी अब भी कतार में इंतजार कर रहे थे. शपूरजी पालनजी ने दिनशॉ एस्टेट से शेयर खरीद डाले. जेआरडी को इस बात की नाराजगी हुई. बाद के वर्षों में हालांकि एकीकरण और अन्य घटनाओं का कुछ ऐसा सिलसिला बना कि शपूरजी पालनजी परिवार टाटा संस का सबसे बड़ा शेयरधारक बन गया जो शेयर ट्रस्ट के पास नहीं थे.
इन बीते वर्षों में रिश्ते सुधरे. साइरस के पिता पालनजी मिस्त्री लंबे समय तक टाटा संस के निदेशक रहे, जिसके बाद साइरस ने कमान संभाली. पालनजी इतने संकोची स्वभाव के थे कि उन्हें टाटा के मुख्यालय बॉक्वबे हाउस का फैंटम कहा जाता था. उनकी परंपरा को साइरस ने बरकरार रखा जब तक कि वे रतन टाटा के उत्तराधिकारी नहीं चुन लिए गए. अब यह परिवार इस घटना पर कैसे प्रतिक्रिया देगा और देगा भी या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में है.
नए चेयरमैन को तमाम समस्याओं से निपटना होगा जो अटकी पड़ी हैं. अव्वल तो समूह के ऊपर कर्ज बहुत ज्यादा है और टाटा स्टील यूके तथा टाटा डोकोमो के मामले अब भी अधर में हैं. समूह की दूसरी कंपनियों को मुनाफे में लाना बाहर के माहौल को देखते हुए कठिन काम लगता है (हालांकि स्टील का घरेलू कारोबार ठीकठाक पैसा बना रहा है). कुछ नए कारोबार भी हैं जिनमें पैसा लगाया जाना है.
इस दौरान रतन टाटा की वापसी हो चुकी है और मुमकिन है कि नए चेयरमैन के आने से पहले वे इन समस्याओं से समूह को निजात दिला सकेंगे.
(साथ में राजीव दुबे और नेविन जॉन)