
उत्तर प्रदेश का चुनाव अपने शबाब पर हो और मुसलमान वोटरों के मिज़ाज की
चर्चा न हो! गली के नुक्कड़ से सियासी दलों के वॉर रूम तक इस मिज़ाज को
भांपने के दावे होते हैं, फिर भी जैसे कोई हिंदू या किसी दूसरे फिरके के
वोटर का मन नहीं पढ़ सकता, वैसे ही यहां भी नहीं भांप पाता. हां, कुछ
मोटे-मोटे अंदाज जरूर लगाए जाते हैं. और ऐसा ही अंदाज लगाने के फेर में
दिल्ली से लखनऊ के सफर में अमरोहा के पास एक चुनावी मजमा दिख गया. बीएसपी
के प्रत्याशी नौशाद इंजीनियर वोट मांग रहे थे. भीड़ में मुसलमानों की बड़ी
संख्या होना स्वाभाविक ही था, क्योंकि यूपी की इस पट्टी में मुस्लिम आबादी
का घनत्व सबसे ज्यादा है.
जो हाल अमरोहा की सड़क पर इस बुजुर्ग जोड़ी का था, वही हाल 27
जनवरी को लखनऊ के पांच कालिदास मार्ग में था. यहां यह तय किया जाना था कि
राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी जब पहली बार एक साथ सड़क पर उतरे तो
उनका रूट प्लान क्या हो? सपा और कांग्रेस के कुछ स्थानीय नेता लखनऊ पूर्व,
उत्तर विधानसभा क्षेत्रों से रोड शो करवाने का दबाव डाल रहे थे. लेकिन सपा
की ओर से मुख्य प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी और सचिव एस.आर.एस. यादव और
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के दूत धीरज श्रीवास्तव में इस बात पर
सहमति बनी कि 29 जनवरी का रोड शो शहर के उस 12 किमी रास्ते से गुजरे, जहां
मुसलमानों की खासी आबादी है. असल में रणनीतिकार राहुल गांधी और अखिलेश यादव
के रोड शो को कैसरबाग, अमीनाबाद, मौलवीगंज, नक्खास, चौक जैसे मुस्लिमबहुल
इलाकों से गुजारकर फौरन यह अंदाजा लगा लेना चाहते थे कि इस तबके ने
सपा-कांग्रेस गठबंधन को कितना पसंद किया है? करीब चार घंटे तक चले रोड शो
और उसके बाद चौक के घंटाघर में अखिलेश-राहुल की सभा में उमड़ी भीड़ को इस बात
का संकेत माना गया कि भले ही मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश को मुस्लिम
विरोधी बताया हो, लेकिन लखनऊ के मुसलमानों के एक हिस्से को यह साथ पसंद आ
रहा है.
यानी 19.3 फीसदी मुस्लिम आबादी को
अपनी तरफ खींचने के लिए सपा-कांग्रेस गठबंधन और बीएसपी ने खम ठोक दिया है.
2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न जीतने वाली मायावती ने बीएसपी के
मुस्लिम चेहरे नसीमुद्दीन सिद्दीकी को पश्चिमी यूपी की कमान सौंपकर दंगा
पीड़ित मुसलमानों की रहनुमाई शुरू कर दी थी. विधानसभा में बीएसपी ने 100
मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं, जिनमें 60 फीसदी पश्चिमी यूपी में हैं.
मुस्लिम मतदाताओं के राजनैतिक जुड़ाव का अध्ययन कर रहे डॉ. मोहम्मद सज्जाद
बताते हैं, ''पश्चिमी यूपी के गांव में रहने वाला पिछड़ा मुसलमान शहर में
रहने वाले की तुलना में इस बार अलग ढंग से सोच रहा है.
ग्रामीण
मुस्लिम मतदाताओं का झुकाव बीएसपी की तरफ है तो शहर में रहने वाला
सपा-कांग्रेस गठबंधन को भी देख रहा है." इस बात की बानगी मेरठ जिले की
किठौर विधानसभा सीट पर कुछ इस तरह मिली. चाय की दुकान पर एक सज्जन से पूछा
कि यहां तो साइकल मजबूत होगी, तो उन्होंने तपाक से कहा, ''हाथी भी किसी से
कम नहीं है." उनकी बात में दम था क्योंकि अगर सपा की तरफ से मंत्री शाहिद
मंजूर खुद चुनाव मैदान में हैं, तो बीएसपी की तरफ से राज्यसभा सांसद मुनकाद
अली भी अपने घर की सीट किसी को खैरात में देने को राजी नहीं हैं. दोनों
नेताओं के पास समुदाय में अपने-अपने समर्थक तो हैं ही.
ऐसे में
लोगों के ज्यादा करीब पहुंचने के लिए बीएसपी ने 20 पन्नों की लाल किताब
छपवाई है. इसका शीर्षक है ''मुस्लिम समाज का सच्चा हितैषी कौन? फैसला आप
करें." मुस्लिम-बहुल विधानसभा सीटों में हो रही बैठकों में बांटी जा रही इस
किताब में सपा सरकार के दौरान हुए दंगों और बीजेपी सरकार के दौरान बाबरी
मस्जिद ध्वंस जैसे मुद्दों को उठाया गया है.
उधर,
पूर्वांचल में बुनकरों की बेहतरी के लिए काम कर रहे स्वयंसेवी डॉ. अरशद
मंसूरी बताते हैं, ''पूर्वी जिलों में मुस्लिम आबादी का पिछड़ापन मुख्य
मुद्दा है. यूपी में सक्रिय बड़े राजनैतिक दल इस तबके के साथ संवाद स्थापित
करने में फिलहाल नाकाम ही साबित हुए हैं." इसी खालीपन ने पसमांदा मुसलमानों
के बीच छोटे दलों की गुंजाइश पैदा की है. इसी पिछड़ेपन को भरने के लिए आल
इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआइएमआइएम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और
हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी यूपी के चुनावी महासमर में कूद पड़े हैं.
एआइएमआइएम ने अब तक 80 विधानसभा सीटों पर अपने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे
हैं.
सपा में किनारे किए गए, संभल से चार बार के सांसद रहे शफीकुर
रहमान बर्क एआइएमआइएम में शामिल हुए हैं. पश्चिमी यूपी के तुर्क मुसलमानों
में पैठ रखने वाले बर्क के पौत्र जियाउर रहमान बर्क को पार्टी ने संभल
विधानसभा सीट से अपना उम्मीदवार बनाया है. पिछले वर्ष फरवरी में हुए
बीकापुर, फैजाबाद के विधानसभा उपचुनाव में अप्रत्याशित ढंग से 12,000 से
अधिक वोट बटोरने वाली एआइएमआइएम को राजनैतिक विश्लेषक श्वोट कटवा्य के रूप
में देख रहे हैं.
इस धमा-चौकड़ी के बीच दारुल उलूम देवबंद ने
चुप्पी साध रखी है. दुनिया भर के मुसलमानों को वैचारिक दृष्टिकोण देने वाले
दारुल उलूम के दर तो खुले हैं, लेकिन राजनैतिक दृष्टिकोण के लिए नहीं.
दारुल उलूम (वक्फ) के शेखुल हदीस मौलाना सैयद अहमद खजिर शाह मसूदी कहते
हैं, ''उलेमा और गैर-सियासी मुस्लिम संगठनों से आप सिर्फ धार्मिक नेतृत्व
की अपेक्षा करें. इससे नुक्सान यह है कि मुसलमानों को सही सियासी दिशा नहीं
मिल पाती, लेकिन फायदा यह है कि ठोकरें खाकर मुसलमान सियासी तौर पर
होशियार हो रहे हैं." मौलाना अहमद लोकसभा में यूपी से मुसलमानों की
भागीदारी शून्य होने के पीछे भी इसी सियासी चाल को बड़ा कारण मानते हैं.
वे
स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि इस बार मुसलमान उत्तर प्रदेश में हर उस
प्रत्याशी को वोट करेंगे, जो सांप्रदायिक शक्तियों को हराने में सक्षम
होंगे. वे चाहे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी या कांग्रेस के ही
प्रत्याशी क्यों न हों. दिल्ली में कारोबार करने वाले मेरठ निवासी परवेज
जमील कहते हैं, ''हालांकि उत्तर प्रदेश में बिहार जैसा महागठबंधन नहीं है
और उन्हें मुख्यतः सपा-कांग्रेस और बीएसपी के बीच किसी एक चुनना है. लेकिन
मतदान से चंद रोज पहले वे किसी एक को सत्ता में पहुंचाने का फैसला कर राज्य
में बिहार जैसे नतीजे दे सकते हैं."
इनकी बात से फिर अमरोहा
वाली हसन-हुसैन की जोड़ी की याद आई. उन्होंने जोर देकर यह लिखने को कहा था,
''आप दिल्ली से सारे मीडिया में यह बात उठाइए कि मुसलमानों को अच्छे स्कूल
चाहिए. उन्हें ऊंची तालीम और नौकरियां चाहिए. हम दूसरों की तरह आगे बढऩा
चाहते हैं, हमारे बच्चों को मौका चाहिए." शायद यह चुनाव उनकी ये मुराद पूरी
कर सके.
(—साथ में एम. रियाज हाशमी)