
पिछली एक चैथाई सदी से भारत के लगभग सभी नवनिर्वाचित प्रधानमंत्रियों ने पद संभालने के बाद पहले वर्ष में विदेश और सुरक्षा नीतियों के संचालन पर अपनी विशिष्ट छाप छोडऩे पर काफी ध्यान केंद्रित किया है. 1991 में जब नरसिंह राव ने पद ग्रहण किया, तब देश दिवालिया था, उसका विदेशी मुद्रा भंडार चिंताजनक स्तर पर कम था और उसका प्रमुख सैन्य साथी, सोवियत संघ, टूट रहा था. यह राव का कूटनीतिक कौशल ही था, जिसके बूते वह बाहरी दुनिया के साथ आर्थिक संबंधों का नया प्रतिमान स्थापित करने में सफल हो गए. सबसे उल्लेखनीय थी उनकी अभिनव श्लुक ईस्ट्य नीति, जो भारत को पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं से जोड़ती थी.
अटल बिहारी वाजपेयी ने धमाकेदार अंदाज में सत्ता संभाली, वे न सिर्फ भारत को परमाणु ताकत बना ले गए, बल्कि उन्होंने अमेरिका के नेतृत्व वाले वैश्विक आर्थिक प्रतिबंधों को विफल करने के लिए वैश्विक शन्न्ड्ढितयों के साथ संबंधों का संचालन भी चतुराई से किया. करगिल की ऊंचाइयों से पाकिस्तानी सेना को उखाड़ फेंकना और अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को नियंत्रण रेखा की श्पवित्रता्य का सक्वमान करने के लिए मजबूर करवाना, उनके यादगार कदम थे. इसी तरह, पदभार ग्रहण करने के बाद जल्द ही मनमोहन सिंह ने जॉर्ज बुश प्रशासन के साथ परमाणु करार का रास्ता साफ किया, जिससे भारत के खिलाफ वैश्विक परमाणु प्रतिबंध खत्म हो गए. उन्होंने चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ के साथ भी समझदारी से समझौता किया, जिससे सीमा मुद्दे हल करने के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों की रूपरेखा तैयार हुई.
जब नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली, तब भारत एक गंभीर आर्थिक मंदी से गुजर रहा था, जो वित्तीय फिजूलखर्ची, आर्थिक कुप्रबंधन और सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से पैदा हुई थी. जब भारत की अंतरराष्ट्रीय साख कम रह गई थी, तब भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसी बदमिजाज और बेचैन हो रहे थे और चीन तेजी से एशिया भर में भारत के प्रभाव को नष्ट करता जा रहा था. मोदी ने पद ग्रहण के दिन से ही विदेश नीति में सक्रिय दृष्टिकोण अपनाने का फैसला किया. सार्क (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) के सभी पड़ोसी देशों के शासनाध्यक्षों को उनके शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया गया, ताकि वे सार्क नेताओं से व्यन्न्ड्ढितगत रूप से अलग-अलग परिचित हो सकें. यह उक्वमीद जरूर थी कि मित्रवत क्वयांमार के नेतृत्व को भी आमंत्रित किया गया होता, जिसके साथ हमारी थल और समुद्री सीमाएं मिलती हैं.
इस पहल के बाद जल्द ही चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भारत दौरा हुआकृएक यात्रा जिस पर लद्दाख में एक और चीनी सैन्य घुसपैठ भारी पड़ गई थी.
पंख फैलाती पहुंच
इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी ने अॉस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका, कनाडा, चीन, जर्मनी, फ्रांस के सरकार प्रमुखों और उनके आसियान (दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का संगठन) के समकक्ष नेताओं को अपनी नेतृत्व क्षमता और वैश्विक एवं द्विपक्षीय मुद्दों की समझ से प्रभावित कर दिया है. इससे भी अहम बात यह है कि मोदी ने यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि (भारत से) भ्रष्टाचार, असंगतियों, देरी से मंजूरी और प्रतिगामी, पूर्वव्यापी कराधानों का युग खत्म हो गया है. मोदी सरकार ने जाहिर तौर पर इस बात को स्वीकार कर लिया है कि जब चीन खपत आधारित अर्थव्यवस्था बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, तो भारत उद्योगों में विदेशी निवेश के लिए संभावित आकर्षक ठिकाना हो सकता है. अभी यह देखना बाकी है कि क्या इसे, टेक्सटाइल जैसे रोजगारोन्मुखी और अहम क्षेत्रों में भी वास्तविकता में बदला जा सकेगा, क्योंकि वियतनाम और बांग्लादेश जैसे देश नए अवसरों का लाभ उठाने में हमसे आगे बढ़ते नजर आ रहे हैं.
इसके अलावा, क्या हमें इन्फ्रास्ट्रन्न्चर, पावर और ब्याज दरों के क्षेत्रों में आवश्यक तुलनात्मक बढ़त हासिल हैं, जो हाइ-टेक इंडस्ट्री में वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए अहम होता है? मोदी अमेरिका और फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, अॉस्ट्रेलिया और कनाडा जैसी अन्य पश्चिमी शन्न्ड्ढितयों के साथ हमारे संबंधों को एक नई शन्न्ड्ढित देने में सफल रहे हैं.
स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश बढ़ाने के उनके कदमों का स्वागत किया गया है. इसका नतीजा पेरिस में इस वर्ष के अंत में होने वाले जलवायु शिखर सक्वमेलन में सकारात्मक नतीजे में निकल सकता है. लेकिन जीवाश्म ईंधन पर हमारी बढ़ती निर्भरता को देखते हुए, यह देखने वाली बात होगी कि इसे हासिल कैसे किया जाएगा.
हमें इस बारे में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि आज की दुनिया में किसी भी विदेशी शन्न्ड्ढित पर विशेषतया अत्यधिक निर्भरता भारत के हित में नहीं है. मोदी ने ब्रिक्स जैसे समूहों के साथ अपने संबंधों को बरकरार रख कर, चीन के नेतृत्व वाले एशियाई बुनियादी ढांचे के निवेश बैंक में शामिल होकर, रूस के साथ संबंधों को पुष्ट बनाकर और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की सदस्यता के लिए तैयारी करके इस वास्तविकता को स्वीकार किया है.
चीन और खाड़ी की चुनौतियां
मोदी को अब दो प्रमुख चुनौतियों का सामना करना होगा. ये हैंकृदबंग चीन की हिंद महासागर के अपने पड़ोसी क्षेत्र में भारत के प्रभाव को कमजोर करने की प्रवृत्ति और हमारे पश्चिम में विकसित होता इस्लामी अतिवाद. इस्लामी दुनिया सांप्रदायिक (शिया-सुन्नी) और सञ्जयता से जुड़ी (अरबी-फारसी) प्रतिद्वंद्विता में तार-तार होती जा रही है. अब तेल समृद्ध खाड़ी क्षेत्र पर अधिक से अधिक ध्यान देना होगा, जहां 60 लाख भारतीय रहते हैं. राष्ट्रपति शी की पाकिस्तान यात्रा जाहिर तौर पर श्आर्थिक गलियारे्य के लिए थी, जो चीन के शिनजियांग प्रांत को पाकिस्तान के बलूचिस्तान तट पर ग्वादर पोर्ट के साथ जोड़ेगा, जिसे चीन को 40 साल के लिए पट्टे पर दे दिया गया है. चीन ने पाकिस्तान के साथ अपना सैनिक, परमाणु हथियारों और मिसाइलों के क्षेत्र में सहयोग बढ़ा दिया है, वह साथ ही चार लड़ाई के जहाज और आठ पनडुब्बियों की आपूर्ति करके पाकिस्तान की नौसेना को मजबूत बना रहा है.
उक्वमीद है कि प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका, अॉस्ट्रेलिया, जापान और अन्य देशों के साथ सैन्य सहयोग बढ़ाने और संयुन्न्ड्ढत अञ्जयास करने पर चीनी आपत्तियों को उन्हें रोक सकने की अनुमति नहीं देंगे. इस मामले पर चीनी श्संवेदनशीलताओं्य के आगे झुकना नीचा देखना, खतरनाक और विनाशकारी होगा. जहां चीन भारत को हिंद महासागर में ही रोककर रखने का प्रयास कर रहा है, हमें उन नौ देशों के साथ साझेदारी विकसित करनी चाहिए जिनके साथ चीन के समुद्री सीमा विवाद हैकृसबसे विशेष रूप से जापान और वियतनाम के साथ. इसके अलावा, हमारी पूर्वी सीमाओं के पार लाखों बौद्ध लोगों तक पहुंचने के लिए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है.
इनमें से कुछ भी हमें चीन के साथ द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग बढ़ाने और चीन के साथ हमारी सीमा पर तनाव कम करने के उपाय करने से नहीं रोकता है. चीन के साथ संबंधों के संचालन में सहयोग और रोकथाम को तालमेल भरे अंदाज में मिश्रित किए जाने की जरूरत है. हम अमेरिका के नेतृत्व वाली उस पहल के उदड्ढ्भव की भी अनदेखी नहीं कर सकते हैं, जिसमें अफगानिस्तान में तालिबान के साथ सुलह की प्रक्रिया का समर्थन करने के लिए चीन और पाकिस्तान को प्रोत्साहित किया जाना है, जिसका नतीजा दक्षिणी अफगानिस्तान में तालिबान के नियंत्रण में वृद्धि में निकल सकता है.
पाकिस्तान पर अब भी विरोधाभास
पाकिस्तान से निबटने के मुद्दे पर नई दिल्ली में स्पष्टता, स्थिरता और नवीनता की कमी प्रतीत होती है. हमें निश्चित रूप से जमात-उद-दावा (जेयूडी) के प्रमुख जकी-उर-रहमान लखवी और डेविड कोलमैन हेडली के पहचाने गए आइएसआइ अधिकारियों के खिलाफ एक अमेरिकी अदालत में आपराधिक आरोप दाखिल करवाने की कोशिश में अमेरिकी कांग्रेस में जोरदार पैरवी करनी चाहिए थी. मुंबई में छह अमेरिकी नागरिकों की हत्या के कारण इस तरह का मुकदमा अमेरिकी कानूनों के तहत शुरू किया जा सकता है. इज्राएल और अमेरिका में शन्न्ड्ढितशाली यहूदी लॉबी दृढ़ता से इस तरह के कदम का समर्थन करती, क्योंकि 26@11 के हमले के दौरान यहूदियों को चुन-चुनकर निशाना बनाया गया था. ओबामा प्रशासन की अफगानिस्तान के प्रति नीतियों और पाकिस्तान को सैनिक सहायता को देखते हुए अमेरिकी कांग्रेस में हमारी पहुंच पर अब कहीं अधिक ध्यान देने की जरूरत है.
नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पार पाकिस्तानी घुसपैठों से निबटने के लिए सेना और सीमा सुरक्षा बल को पर्याप्त स्वायत्तता और अधिकार दिए गए हैं. ज्यादातर विश्लेषक इस बात से सहमत हैं कि नई दिल्ली को भारत के खिलाफ पाकिस्तान के आतंकवाद को समर्थन की भारी राजनैतिक और कूटनीतिक कीमत चुकाने की मुहिम जारी रखनी चाहिए. हमें अभी यही पता नहीं है कि पाकिस्तान के साथ वार्ता के आह्वान का जवाब देने में वास्तव में हमारी नीति क्या है. क्या हमें कम से कम सीमाओं पर शांति बनाए रखने के लिए डीजीएमओ (सैन्य अभियानों के लिए महानिदेशक) के बीच बैठकों के प्रस्ताव और लोगों से लोगों के बीच संपर्क को बढ़ावा देने के उपायों का प्रस्ताव देकर जवाब नहीं देना चाहिए? आतंकवाद को पाकिस्तान के सतत समर्थन को देखते हुए, स्पष्ट रूप से पुरानी श्समग्र वार्ता्य की वापसी नहीं हो सकती है, जिसमें आतंकवाद पर हमारी चिंताओं को हाशिए पर डाल दिया गया था.
रक्षा बजट बढ़ाएं
निकट भविष्य में भारत न तो आर्थिक शन्न्ड्ढित में और न ही सैन्य शन्न्ड्ढित में चीन की बराबरी करने की स्थिति में है. चीन की अर्थव्यवस्था आकार में हमारी अर्थव्यवस्था से पांच गुना बड़ी है. चीन का सैनिक तोपखाना भारी-भरकम है और भारत के साथ अपनी सीमा पर चीन का बुनियादी ढांचा उसे हमारी तुलना में कहीं तेजी से सैनिकों को तैनात करने में सक्षम बनाता है. इसके अलावा, चिंता का एक अतिरिन्न्ड्ढत स्रोत हमारे रक्षा बजट में भारी-भरकम कटौती करके उसे सकल घरेलू उत्पाद के दो फीसदी से कम पर ले जाया जाना है. इसका पूंजीगत बजट ऐसा है, जो तोपखाने और टैंकरोधी मिसाइलों से लेकर तमाम तरह के हेलीकाप्टरों तक महत्वपूर्ण रक्षा उपकरणों की हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता है.
अब युद्धपोतों और पनडुब्बियों के निर्माण के लिए तो सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की संस्थाओं का एक सामंजस्य मिश्रण स्थापित कर लिया गया है, भारत के लिए अच्छा रहेगा कि वह ऐसा ही अन्य बलों के लिए भी करे, जिसकी शुरुआत 155 मिमी हॉवित्जर तोपों के निर्माण के साथ की जाए. इनकी तत्काल आवश्यकता है. हमारी वायु सेना की तेजी से घट रही शन्न्ड्ढित पर चिंताओं को कैसे दूर किया जाएगा, इस बारे में स्पष्टता कम प्रतीत होती है. मात्र 36 राफेल फाइटर्स खरीद लेना इस समस्या का कोई हल नहीं है. इसके अलावा, मार्क टूकृएलसीए की कई स्न्न्वाड्रनों का देश में ही शीघ्र निर्माण कर लेना अव्यावहारिक प्रतीत होता है.
स्वदेशी डिजाइन और उत्पादन क्षमताओं के विकास के साथ-साथ विदेशी निवेश पर उदारीकृत प्रक्रियाओं का होना जरूरी है, जो सिर्फ कलपुर्जों पर नहीं, बल्कि हथियार प्रणालियों पर भी लागू हो. इसमें विदेशी निवेशकों को भागीदार के रूप में, सार्वजनिक या निजी भारतीय कंपनियों को चुनने के लिए ज्यादा गुंजाइश हो. हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि रसद-आपूर्ति और गोलाबारी में चीनी श्रेष्ठता को सिर्फ बेहतर वायुशन्न्ड्ढित से निष्प्रभावी किया जा सकता है. भारत को प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त इस बात में निहित है कि चीन के विपरीत, भारत अमेरिकी और यूरोपीय उच्च तकनीक क्षमताओं तक पहुंच सकता है.
सैन्य और नागरिक अधिकारियों की एक-दूसरे के स्थान पर नियुन्न्ड्ढितयों के जरिए रक्षा मंत्रालय को पेशेवर बनाने पर नरेश चंद्रा समिति ने विस्तृत सिफारिशें की थीं. रक्षा मंत्री ने संकेत दिया है कि सरकार चीफ अॉफ डिफेंस स्टाफ की नियुन्न्ड्ढित के जरिए रक्षा पदानुक्रम में सुधारों का कार्य करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है. उक्वमीद की जानी चाहिए कि अफसरशाही से उनके प्रयासों में उस तरह अड़ंगे नहीं डाले जाएंगे, जैसा उनके एक पूर्ववर्ती के मामले में किया गया था.
(जी. पार्थसारथी पूर्व राजनयिक हैं)