
वही आदर्श मौसम/ और मन में कुछ टूटता-सा/ अनुभव से जानता हूं कि यह वसंत है... इस ठंड के मौसम में 'वसंत' पर यह कविता कैसे याद हो आई? इसलिए कि इसके लेखक रघुवीर सहाय का जन्म और मृत्यु दोनों इसी दिसंबर में हुए थे. 9 दिसंबर, 1929 को लखनऊ में जन्म और 30 दिसंबर, 1990 को दिल्ली में मौत. इस समय के बीच रघुवीर सहाय ने क्या-क्या नहीं लिखा. वह एक बड़े रचनाकार थे. साहित्य और पत्रकारिता को एक साथ साधने वाले अद्भुत लेखक. रघुवीर सहाय की रचनाएं आधुनिक समय की धड़कनों का जीवंत दस्तावेज हैं. उन्होंने लेख के अलावा कविता, कहानी, निबंध सभी लिखे और इन सबमें उनके तेवर के क्या कहने.
लखनऊ विश्वविद्यालय से 1949 में अंग्रेज़ी साहित्य में एमए करने से पहले ही रघुवीर सहाय साहित्य सृजन और पत्रकारिता करने लगे थे. स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करने के बाद रोजी-रोटी के जुगाड़ में दिल्ली चले आए. यहां उन्हें नौकरी मिली, और यहीं शादी भी की. पत्नी और पहचान के साथ-साथ यहीं वह समकालीन हिन्दी कविता के महत्त्वपूर्ण स्तम्भ बने. आलम यह था कि कभी उनके साहित्य में पत्रकारिता आ जाती, तो कभी उनकी पत्रकारिता पर साहित्य हावी हो जाता. ‘अधिनायक’ कविता में उसकी एक बानगी देखें:
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चँवर के साथ
तोप छुड़ा कर ढोल बजा कर
जय-जय कौन कराता है
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा
उनके
तमगे कौन लगाता है
कौन कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है
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रघुवीर सहाय दूसरा सप्तक के कवि थे. उनकी कविताएं आज़ादी के बाद 60 के दशक से शुरू हुए दौर की तस्वीर को समग्रता में पेश करती हैं. एक ऐसा भारत जो आगे बढ़ने के साथ ही गैर बराबरी, अन्याय और सबल वर्ग की एक नए तरह की गुलामी से जूझ रहा था. इसीलिए उनकी समूची काव्य-यात्रा का लक्ष्य ऐसी जनतांत्रिक व्यवस्था का निर्माण करना था, जिसमें भूख, शोषण, अन्याय, हत्या, आत्महत्या, विषमता, दासता, राजनीतिक संप्रभुता, जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग के चलते कोई भेदभाव न हो. वह चाहते थे कि जिन आशाओं और सपनों से आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी, उन्हें साकार किया जाए. बतौर पत्रकार, संपादक उन्होंने नेताओं और शासक वर्ग के दोहरे चेहरे और चरित्र को बेहद नजदीक से देखा था. इस विषय को लेकर लिखी उनकी कविता ‘आपकी हंसी’ आज भी बेहद मौजूं है. उसके तेवर आप स्वयं देखें:
निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हंसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कह कर आप हंसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कह कर आप हंसे
कितने आप सुरक्षित होंगे
मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पा कर
फिर से आप हंसे
रघुवीर सहाय ने लंबे समय तक संवाददाता, संपादक, समीक्षक और संस्कृति लेखक के तौर पर उन मुद्दों, विषयों को छुआ, जिन पर तब तक साहित्य जगत में बहुत कम लिखा गया था. उन्होंने आम आदमी की पीड़ा अपने अंदाज में ज़ाहिर की. 'आत्महत्या के विरुद्ध' अपने संकलन की 36 कविताओं के जरिए उन्होंने मानव द्वंद्व और लालच का बखूबी चित्रण किया. रघुवीर सहाय बहुत बड़े और लंबे समय तक याद रखे जाने वाले कवि हैं. उन्होंने साहित्य में अक्सर अजनबीयत और अकेलेपन को लेकर लिखी जाने वाली कविताओं से परे जाकर उन मुद्दों को छुआ, जो जीवन और जीवंतता से सीधे जुड़े थे. सहाय केवल राजनीति पर कटाक्ष करने वाले कवि नहीं थे. उनकी कविताओं में पत्रकारिता के तेवर और अख़बारी तजुर्बा साफ-साफ दिखाई देता था.
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एक तरह से भाषा और शिल्प के मामले में रघुवीर सहाय की कविताएं नागार्जुन की याद दिलाती हैं. उस दौर के तीन शीर्ष नामों में मुक्तिबोध, शमशेर के साथ रघुवीर भी शामिल थे. पर इन तीनों की अपनी-अपनी खासियतें थीं. गजानन माधव मुक्तिबोध जहां फंतासी बुनने के लिए जाने जाते थे और शमशेर बहादुर सिंह अपनी शायरी गुनने के लिए, वहीं रघुवीर सहाय अपने विषय, भाषा और शिल्प के लिए लोकप्रिय थे. स्त्री विमर्श के बारे में लिखी ‘नारी’ नामक कविता में इसकी बानगी देखिएः
नारी बिचारी है
पुरुष की मारी है
तन से क्षुधित है
मन से मुदित है
लपक कर झपक कर
अंत में चित है
यह अचरज की बात नहीं कि राजकमल प्रकाशन ने 6 खंडों में जब रघुवीर सहाय रचनावली छापी तो उसका परिचय देते हुए लिखा, ‘छह खंडों में प्रकाशित उनकी रचनावली में आज का समय संपूर्णता में परिभाषित हुआ है. अपनी अद्वितीय सर्जनशीलता के कारण रघुवीर सहाय ऐसे कालजयी रचनाकारों में हैं, जिनकी प्रासंगिकता समय बीतने के साथ बढ़ती ही जाती है. अपने नए कथ्य और शिल्प के कारण रघुवीर सहाय ने हिंदी कविता को नया रूप दिया.’ तय है ऐसे लोग और उनकी कविताएं हमेशा कालजयी हैं. उन्हें रचनाओं की गिनती और उनकी लोकप्रियता से ज्यादा उनकी प्रासंगिकता से आंका जाना चाहिए, और रघुवीर सहाय इस कसौटी पर खरे हैं.