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योगेंद्र यादव का सियासत छोडऩे का इरादा नहीं

आप से लगभग बाहर का रास्ता दिखा दिए जाने के बावजूद योगेंद्र यादव सार्वजनिक जीवन नहीं छोड़ेंगे, चाहे उन्हें जिस भी तरह की कठिनाइयों का सामना न्न्यों न करना पड़े.

असित जॉली
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  • 06 अप्रैल 2015,
  • अपडेटेड 5:19 PM IST

अपने शिक्षक पिता के इमरजेंसी विरोध से प्रेरणा पाकर मार्च, 1977 में महज 14 साल के एक लड़के ने जीवन में पहली बार ''लोकतंत्र के महोल्लास'' का अनुभव किया, जब बीबीसी की हिंदी सेवा ने कांग्रेस की जबरदस्त पराजय की खबर दी. यह एक सार्वजनिक उल्लास का क्षण था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चुनाव हार गई थीं और उनके बेटे और उत्तराधिकारी संजय गांधी भी अपनी सीट गंवा चुके थे. 

हालांकि कुछ ही समय बाद जनता पार्टी के बिखरने के कारण घोर निराशा का दौर भी शुरू हो गया. जनता पार्टी की आंतरिक कलह और फूट के बाद आखिरकार देश में आजादी के बाद किसी भी तरह के राजनैतिक बदलाव का पहला वास्तविक अवसर खत्म हो चुका था.

आज उस घटना के तकरीबन साढ़े तीन दशक बाद 52 वर्ष के योगेंद्र यादव यह सोचकर परेशान हैं कि आम आदमी पार्टी (आप) की चमत्कारी सफलता से उत्साहित हजारों युवा आज गुस्से में हैं और उसी तरह ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं, जैसे मोरारजी देसाई की सरकार के गिरने के बाद उन्हें महसूस हुआ था.

कथित तौर पर आप के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की असहमति को खत्म करने की कोशिशों के कारण पार्टी से बाहर किए गए योगेंद्र यादव के पास अब पार्टी में बने रहने की कोई खास वजह नहीं बची है. उन्हें सबसे ज्यादा यह सचाई कचोट रही है कि ''आज की कहानी में हम गद्दार हैं. आज हम खुद को वहीं खड़ा पा रहे हैं, जहां 1979 में देसाई, चरण सिंह, राजनारायण और चंद्रशेखर खड़े थे.''

मृदुभाषी और मिलनसार यादव से, जिन्हें एक दोस्त ने ''गहन विचारों से भरे-पूरे शशि थरूर'' तक कहा, झगडऩा असंभव-सा जान पड़ता है. उनसे मिलकर हमेशा यह भाव पैदा होता है कि उन पर भरोसा किया जा सकता है. यह सहजता और मन की शांति उन्हें बचपन के ''निःस्वार्थ प्यार भरे घरेलू माहौल'' और अकादमिक जगत में बिताए गए वर्षों से हासिल हुई है. उन्होंने 1987 में पंजाब विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग से अकादमिक जगत में अपनी यात्रा शुरू की. बाद में वे दिल्ली के सेंटर फॉर द स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) से जुड़े. इस बीच उन्होंने चुनाव विश्लेषण में हाथ आजमाया. भारत के बेहद उलझे चुनावी परिदृश्य में भविष्यवाणी करने के व्यवसाय को कुछ और धारदार बनाया, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में नीति-निर्माण में मदद की और राष्ट्रीय शिक्षा शोध और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की पाठ्य-पुस्तकों को नया रूप देने केलिए भी काम किया. लेकिन इन तमाम अकादमिक कामों से वे 2012 में आप की स्थापना के बाद से ही दूर हैं और अब उसमें लौटने का इरादा भी नहीं रखते.

राजनीति में उतरने का यह संक्रमण का दौर आसान नहीं रहा है? वे कहते हैं, ''वाकई (संक्रमण) आसान नहीं था.'' कॉलेज के क्लासरूम और टीवी स्टुडियो के अलावा यादव सामाजिक-राजनैतिक आंदोलनों से भी जुड़े रहे हैं. वे कहते हैं, ''मैं कभी विशुद्ध अकादमिक जगत का प्राणी नहीं रहा, बल्कि मैं हमेशा से एक राजनैतिक जीव रहा हूं, जो राजनीति विज्ञान के संसार में उम्मीद से ज्यादा ही टिका रहा.''

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 1983 की शुरुआत से ही वे समता युवजन सभा में सक्रिय हो गए और राममनोहर लोहिया के सहयोगी, ओडिसा के सोशलिस्ट नेता किशन पटनायक के साथ जुड़ गए. 1995 में जब पटनायक ने समाजवादी जन परिषद का गठन किया तो यादव ने उसका नीति दस्तावेज तैयार किया.

लेकिन आप में शामिल होने के फैसले के बाद ही वे पूरी तरह से राजनीति में उतरे. हालांकि वे यह भी खुलासा करते हैं कि पार्टी की स्थापना के समय से ही केजरीवाल से मतभेद उभरने लगे थे. वे कहते हैं, ''पार्टी के गठन के समय ही मुझे यह एहसास होने लगा था कि अरविंद मेरी उपस्थिति से असहज महसूस करते हैं.'' वे ऐसी कई घटनाएं याद करते हैं. मसलन, 2012 के शुरू में यादव के बनाए विजन डाक्युमेंट को केजरीवाल ने एक झटके में खारिज कर दिया था. फिर आप के गठन के साथ देश भर में यात्राएं करने की यादव की सलाह भी नहीं मानी थी.
फिर भी वे पार्टी में सक्रिय रहे क्योंकि ''हमेशा से मेरी पन्न्की राय रही है कि सार्वजनिक जीवन में रिश्ते पेचीदे होते हैं और अगर आप उन्हें निभा नहीं सकते तो किसी टीम का हिस्सा नहीं बन सकते. ऐसे में सार्वजनिक जीवन में रहने का कोई औचित्य भी नहीं है.'' हालांकि केजरीवाल से उनके मतभेद तभी तीखे हुए, जब लोकसभा चुनावों में पराजय के बाद केजरीवाल का इरादा कांग्रेस से दोबारा गठजोड़ करके दिल्ली में फिर से सरकार बनाने का था.

पार्टी में केजरीवाल और उनके समर्थकों के साथ रिश्ते ''कठिन और तनावपूर्ण हो गए और प्रशांत भूषण के मामले में असंभव की हद तक जा पहुंचे.'' फिर भी यादव जहां तक संभव हो, रिश्तों को लंबा और टिकाऊ बनाए रहने की कोशिश करते रहे. खासकर फरवरी, 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों तक, जिसमें उनके भीतर का चुनाव विश्लेषक देख सकता था कि ''अरविंद ने लोकसभा चुनाव की हार की निराशा को आप की निश्चित जीत में बदल दिया है.'' 

अब वे आप से लगभग बाहर हैं, लेकिन बकौल यादव, अकादमिक जगत में लौटने का उनका कतई इरादा नहीं है. उन्होंने इंडिया टुडे से एक अप्रैल को कहा, ''अब तक मेरा जीवन उसी की तैयारी में लगा रहा है, जहां मैं आज हूं. लिहाजा मैं इसे इतनी जल्दी छोडऩे का इरादा नहीं रखता. इस मौजूदा झटके से तो एकदम नहीं.'' वे यह भी बताते हैं कि सीएसडीएस से अपनी छुट्टी उन्होंने पहले ही एक साल के लिए बढ़ा ली है.

यादव स्वीकार करते हैं कि उन्हें या भूषण का आगे की राह के बारे में कोई स्पष्ट विचार नहीं है. व्यक्तिगत रूप से वे कानूनी रास्ते पर जाने के खिलाफ हैं. वे कहते हैं, ''हम इसे शेरे-पंजाब ढाबा और असली शेरे-पंजाब ढाबा की लड़ाई में नहीं बदल सकते. मैं मानता हूं कि आंदोलन पर कुछ लोगों ने कब्जा जमा लिया है और उसकी मूल भावना कुचल दी गई है. फिर भी राजनैतिक लड़ाइयां अदालतों में नहीं लड़ी जातीं.''

राजनीति विज्ञानी से राजनैतिक नेता बने यादव इस आशंका को भी खारिज कर देते हैं कि बाहर वे अकेले पड़ जाएंगे या आप में हाशिए पर ढकेल दिए जाएंगे. वे कहते हैं, ''प्रशांत और मैं, दोनों ने किनारे कर दिए जाने का विकल्प ही चुना. आखिर हमारे पास मुंह बंद रखने का सुंदर विकल्प तो मौजूद ही था. यकीन मानिए, उससे हमें सुंदर तोहफे हाथ लग गए होते. क्या नहीं?''

यादव ने 1993 में पंजाब विश्वविद्यालय की फैकल्टी से यह सोचकर इस्तीफा दे दिया था कि वे हरियाणा के रेवाड़ी के अपने गांव सहरनवास में जाकर रहेंगे और काम करेंगे. लेकिन इस बार उनका इरादा लोगों के बीच रहने का है, जहां वे अपनी असली जगह देखते हैं. 

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