जब मैं पत्रकार बन गया तो मेरी दादी ने मुझसे पूछा था कि कितनी सैलरी मिलेगी? दादी की चिंता इतनी ही थी कि उनके बेटे के बेटे को कितने पैसे हर महीने मिलेंगे. इतने पैसे तो मिलेंगे न जिसमें उसका परिवार ठीक से पल जाए. दादी की चिंता जायज़ थी. जिन दिनों संजय सिन्हा ने पत्रकार बनने का फैसला लिया था, उन दिनों पत्रकार वही बनते थे, जो कुछ और नहीं कर सकते थे. अस्सी के दशक में हिंदी पत्रकारिता में अधिकतर लोग वही आए थे, जो जेपी आंदोलन के नाकाम सिपाही थे. उनकी पढ़ाई बीच में छूट गई थी और वो आईएएस, आईपीएस या कोई दूसरी महान नौकरी में जाने की योग्यता खो चुके थे, तो पत्रकारिता में चले आए. सुनिए पूरी कहानी.......