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1000 दिन तक भूख, फिर जहर... मौत के बाद शव सड़ न जाए, इसके लिए किस हद तक जाते थे भिक्षु?

प्राचीन जापानी भिक्षुओं को sokushinbutsu कहा जाता था. ये बिना भोजन और पानी के रहते थे. जब ऐसा करना मुश्किल हो जाता, तो जहर पीते थे. तीन साल तक भिक्षु एक खास तरह की डाइट लेते थे. वो नट्स और बीज खाते थे. शरीर की चर्बी कम करने के लिए शारीरिक गतिविधि में हिस्सा लेते थे.

दूर दूर से भिक्षुओं को देखने आते हैं लोग (तस्वीर- @skull_b0nes/X) दूर दूर से भिक्षुओं को देखने आते हैं लोग (तस्वीर- @skull_b0nes/X)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 07 जनवरी 2024,
  • अपडेटेड 7:00 PM IST

आपने साधु संतों के त्याग के बारे में काफी सुना होगा. जापान के भिक्षु भी खूब त्याग करते थे, इतना कि उसकी कोई हद नहीं थी. वो जीते जी खुद को ममीज में तब्दील कर लेते थे. इसके पीछे का उद्देश्य ये था कि मौत के बाद भी उनका शव सड़े न. आज भी लोग इन भिक्षुओं के शवों को दूर दूर से देखने के लिए यहां आते हैं. प्राचीन जापानी भिक्षुओं को sokushinbutsu कहा जाता है. ये बिना भोजन और पानी के रहते थे. जब ऐसा करना मुश्किल हो जाता, तो जहर पीते थे. ये शुगेंडो नामक बौद्ध धर्म की एक प्राचीन प्रथा का पालन करते थे.

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डेली स्टार ने अपनी रिपोर्ट में एटलस ऑब्स्कुरा के हवाले से बताया है, 'तीन साल तक भिक्षु एक खास तरह की डाइट लेते थे. वो नट्स और बीज खाते थे. शरीर की चर्बी कम करने के लिए शारीरिक गतिविधि में हिस्सा लेते थे. इसके अगले तीन साल वो छाल और जड़ें खाते थे. इसरे साथ ही वो उरुशी पेड़ के रस से बनी जहरीली चाय पीना शुरू कर देते थे. इसकी छाल में एक जहरीला तत्व होता है.' हालांकि इन सबके कारण भिक्षुओं को उलटी होती थी. शरीर में पानी की भारी कमी हो जाती थी.  

ऐसा कहा जाता है कि इससे भिक्षुओं को मौत के बाद अपने शरीर को संरक्षित करने में मदद मिलती थी, क्योंकि इससे शरीर के सभी कीड़े और परजीवी मर जाते थे, जो आमतौर पर शरीर के सड़ने का कारण बनते हैं. 1000 दिन यानी करीब तीन साल तक ऐसा करने के बाद भिक्षु 100 दिन के लिए भोजन और पानी का सेवन न करके केवल कम मात्रा में नमक वाला पानी पीते थे. इसके बाद वो अपनी मौत का इंतजार करने के लिए ध्यान करते थे. मौत को करीब आता देख भिक्षु अपने शिष्यों से कहते कि उन्हें तीन मीटर गहरे गड्ढे के नीचे एक बॉक्स में डाल दिया जाए.

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भिक्षु गहरे ताबूतों में ध्यान करते थे. साथ में हवा के लिए एक पाइप और घंटी होती थी. जब तक घंटी बजती तब तक इन्हें जीवित माना जाता. घंटी बजना बंद मतलब भिक्षु की मौत हो गई. हालांकि कुछ भिक्षुओं के शव संरक्षित नहीं रहे. जब ताबूत खोलकर देखा तो वो सड़ चुके थे. जिनके शव संरक्षित हुए उनकी भी पूजा नहीं होती. ऐसा माना जाता है कि भिक्षु नौवीं शताब्दी में कुकाई नाम के एक भिक्षु के जीवन जीने के तरीकों का पालन कर रहे थे, जिनका मानना ​​था कि भिक्षु मरते नहीं थे, बल्कि गहरे ध्यान की स्थिति में ताबूत में प्रवेश करते हैं. इनमें से 16 भिक्षुओं को माउंट युडोनो पर प्रसिद्ध दैनिची-बू मंदिर के शिन्न्योकाई शोनिन में रखा गया है. 

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