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झुग्गी में रही, सड़क पर फूल बेचे, अब ये लड़की सोशल मीडिया पर छाई!

सोशल मीडिया पर एक लड़की की खूब चर्चा हो रही है. इनका नाम सरिता माली है. उन्होंने जेएनयू के बारे में कहा कि यहां आकर जिंदगियां बदल सकती हैं.

मुंबई के झोपड़पट्टी में रहती थी ये लड़की अब जाएंगी अमेरिका (Credit- Sarita Mali/ Facebook) मुंबई के झोपड़पट्टी में रहती थी ये लड़की अब जाएंगी अमेरिका (Credit- Sarita Mali/ Facebook)
श्रीधर कुमार
  • नई दिल्ली,
  • 09 मई 2022,
  • अपडेटेड 11:33 AM IST
  • सरिता ने जेएनयू की जमकर तारीफ की
  • 20 साल की उम्र में JNU आई थीं सरिता

सोशल मीडिया पर एक लड़की का पोस्ट वायरल हो रहा है. इस पोस्ट में लड़की ने अपने अब तक के सफर के बारे में बताया है. उन्होंने बताया कि एक समय वह कैसे सड़क किनारे फूल बेचा करती थीं. झोपड़पट्टी में रहती थीं. फिर वह जेएनयू तक पहुंची. और अब वह आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जा रही हैं.

लड़की का नाम सरिता माली है. वह 28 साल की हैं. सरिता ने बताया कि उनका परिवार मूल रूप से यूपी के जौनपुर का रहने वाला है. लेकिन उनके पिता चाइल्ड लेबर बनकर मुंबई चले गए थे. सरिता का जन्म और परवरिश मुंबई के स्लम में हुई. 10 बाई 12 की जगह पर उनके परिवार के छह लोग रहा करते थे. सरिता ने कहा कि ग्रेजुएशन की पढ़ाई तक वह स्लम में ही रहीं. इसके बाद वह जेएनयू आ गईं.

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सरिता को मिला 'चांसलर फ़ेलोशिप'
सरिता ने अपने बारे बताते हुए लिखा- अमेरिका के दो विश्वविद्यालयों में मेरा चयन हुआ है, पहला- यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया और दूसरा- यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंग्टन. मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया को वरीयता दी है. इस यूनिवर्सिटी ने मेरी मेरिट और अकादमिक रिकॉर्ड के आधार पर मुझे अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फ़ेलोशिप में से एक 'चांसलर फ़ेलोशिप' दी है.

मुंबई की झोपड़पट्टी, जेएनयू, कैलिफ़ोर्निया, चांसलर फ़ेलोशिप,अमेरिका और हिंदी साहित्य... कुछ सफ़र के अंत में हम भावुक हो उठते हैं. क्योंकि ये ऐसा सफ़र है जहां मंजिल की चाह से अधिक उसके साथ की चाह सुकून देती हैं. हो सकता है, आपको यह कहानी अविश्वसनीय लगे लेकिन यह मेरी कहानी है. मेरी अपनी कहानी. मैं जिस वंचित समाज से आई हूं, वो भारत के करोड़ों लोगों की नियति है. लेकिन आज यह एक सफल कहानी इसलिए बन पाई है, क्योंकि मैं यहां तक पहुंची हूं.

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‘मेरे पिताजी सिग्नल्स पर खड़े होकर फूल बेचते हैं’

सरिता के माता-पिता


जब आप किसी अंधकारमय समाज में पैदा होते हैं, तो उम्मीद की वह मधम रौशनी जो दूर से रह-रहकर आपके जीवन में टिमटिमाती रहती है, वही आपका सहारा बनती है. मैं भी उसी टिमटिमाती हुई शिक्षा रूपी रौशनी के पीछे चल पड़ी. मैं ऐसे समाज में पैदा हुई जहां भुखमरी, हिंसा, अपराध, गरीबी और व्यवस्था का अत्याचार, हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा था.

हमें कीड़े-मकोड़ों के अतिरिक्त कुछ नहीं समझा जाता था, ऐसे समाज में मेरी उम्मीद, मेरे माता-पिता और मेरी पढ़ाई से जुड़ी थी. मेरे पिताजी मुंबई के सिग्नल्स पर खड़े होकर फूल बेचते हैं. मैं आज भी जब दिल्ली के सिग्नल्स पर गरीब बच्चों को गाड़ी के पीछे भागते हुए कुछ बेचते हुए देखती हूं, तो मुझे मेरा बचपन याद आता और मन में यह सवाल उठता है कि क्या ये बच्चे कभी पढ़ पाएंगे? इनका आनेवाला भविष्य कैसा होगा? 

साल 2014 में जेएनयू पहुंचीं सरिता
जब हम सब भाई-बहन त्योहारों पर पापा के साथ सड़क के किनारे बैठकर फूल बेचते थे, तब हम भी गाड़ी वालों के पीछे ऐसे ही फूल लेकर दौड़ते थे. पापा उस समय हमें समझाते थे कि हमारी पढ़ाई ही हमें इस श्राप से मुक्ति दिला सकती है. अगर हम नहीं पढेंगे तो हमारा पूरा जीवन खुद को जिन्दा रखने के लिए संघर्ष करने और भोजन की व्यवस्था करने में बीत जायेगा. 

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हम इस देश और समाज को कुछ नहीं दे पायेंगे और उनकी तरह अनपढ़ रहकर समाज में अपमानित होते रहेंगे. मैं यह सब नहीं कहना चाहती हूं, लेकिन मैं यह भी नहीं चाहती कि सड़क किनारे फूल बेचते किसी बच्चे की उम्मीद टूटे, उसका हौसला ख़त्म हो. इसी भूख, अत्याचार, अपमान और आसपास होते अपराध को देखते हुए 2014 में मैं जेएनयू हिंदी साहित्य में मास्टर्स करने आई. सही पढ़ा आपने 'जेएनयू' वही जेएनयू जिसे कई लोग बंद करने की मांग करते हैं, जिसे आतंकवादी, देशद्रोही, देशविरोधी पता नहीं क्या-क्या कहते हैं.

‘जेएनयू ने मुझे सबसे पहले इंसान बनाया’
लेकिन जब मैं इन शब्दों को सुनती हूं, तो भीतर एक उम्मीद टूटती है. कुछ ऐसी ज़िंदगियां यहां आकर बदल सकती हैं, और बाहर जाकर अपने समाज को कुछ दे सकती हैं, यह सुनने के बाद मैं उनको ख़त्म होते हुए देखती हूं. यहां के शानदार अकादमिक जगत, शिक्षकों और प्रगतिशील छात्र राजनीति ने मुझे इस देश को सही अर्थो में समझने और मेरे अपने समाज को देखने की नई दृष्टि दी. 

जेएनयू ने मुझे सबसे पहले इंसान बनाया. यहां की प्रगतिशील छात्र राजनीति जो न केवल किसान-मजदूर, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, गरीबों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के हक़ के लिए आवाज उठाती है, उनके लिए अहिंसक प्रतिरोध करने का साहस भी देती है. जेएनयू ने मुझे वह इंसान बनाया, जो समाज में व्याप्त हर तरह के शोषण के खिलाफ बोल सके. मैं बेहद उत्साहित हूं कि जेएनयू ने अब तक जो कुछ सिखाया उसे आगे अपने शोध के माध्यम से पूरे विश्व को देने का एक मौका मुझे मिला है.

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2014 में 20 साल की उम्र में मैं JNU मास्टर्स करने आई थी और अब यहां से MA, M.PhiL की डिग्री लेकर इस वर्ष PhD जमा करने के बाद मुझे अमेरिका में दोबारा PhD करने और वहां पढ़ाने का मौका मिला है. पढाई को लेकर हमेशा मेरे भीतर एक जूनून रहा है. 22 साल की उम्र में मैंने शोध की दुनिया में कदम रखा था. खुश हूं कि यह सफ़र आगे 7 वर्षों के लिए अनवरत जारी रहेगा.

पोस्ट के अंत में सरिता ने उन लोगों का नाम भी लिखा है. जिन्होंने इस सफर में उनका साथ दिया. सरिता के पोस्ट पर लोग उन्हें बधाइयां दे रहे हैं. उनके सफर को प्रेरणादायक बता रहे हैं. और उन्हें उनके आगे के सफर के लिए शुभकामनाएं भी दे रहे हैं.

 

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