
देश में अगले साल होने वाले आम चुनाव को लेकर सियासी बिसात बिछने लगी है. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के खिलाफ विपक्ष की रणनीति क्या हो, इसे लेकर 23 जून को बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी दलों की बड़ी बैठक है. बैठक से पहले उत्तर प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (सपा) ने '80 हराओ, बीजेपी हटाओ' का नारा दे दिया है.
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने '80 हराओ, बीजेपी हटाओ' के नारे के साथ ही पीडीए की भी बात की है. अखिलेश यादव ने कहा है कि 2024 में एनडीए को पीडीए हराएगा. पीडीए मतलब पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक. अखिलेश के इस नारे से साफ है कि सपा ने भी ये मान लिया है कि यादव और मुस्लिम वोट बैंक के सहारे बीजेपी से पार पाना मुश्किल है.
इसे अखिलेश यादव के फ्रंटफुट पर खेलने की रणनीति बताया जा रहा है. यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की ओर से 80 बनाम 20 की लड़ाई वाले बयान छाए रहे थे. बीजेपी की ओर से विधानसभा चुनाव के दौरान किए गए इसी वार को लेकर अब अखिलेश चुनावी पलटवार करते दिखते हैं.
क्या है अखिलेश यादव का पीडीए समीकरण
पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक. ताकत की बात करें तो अनुमानों के मुताबिक यूपी में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की आबादी करीब 41 फीसदी है जिसमें करीब 10 फीसदी यादव हैं. दलित आबादी करीब 21 फीसदी और अल्पसंख्यक आबादी भी करीब 20 फीसदी होने का अनुमान है. ऐसे में देखें तो यूपी में कुल करीब 82 फीसदी आबादी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यकों की है.
अखिलेश के पीडीए पर क्यों उठ रहे सवाल
अखिलेश के पीडीए वाले बयान को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती ने तुकबंदी करार दिया है. 2019 का लोकसभा चुनाव परिणाम भी सामने है जब बसपा के साथ गठबंधन के बावजूद सपा को कोई लाभ नहीं मिला था. 2022 के विधानसभा चुनावों की बात करें तो अल्पसंख्यकों और यादवों के 80 फीसदी वोट के बावजूद अखिलेश सरकार बनाने में नाकाम रहे. अखिलेश यादव लोकसभा चुनाव में वाकई 80 फीसदी आबादी वाले पीडीए के आधे वोट हासिल कर लेते हैं तो बीजेपी की राह मुश्किल हो जाएगी. लेकिन सवाल ये है कि ऐसा होगा कैसे?
यूनिफाइड हिंदू वोट बैंक की काट है पीडीए?
ये सर्वविदित है कि कभी ब्राह्मण और बनियों की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी का किसी एक जाति-वर्ग से हटकर हर जाति-हर वर्ग में वोट है. बीजेपी की इस मजबूत कड़ी की काट के लिए ही अखिलेश यादव पीडीए की बात कर रहे हैं. रामपुर और आजमगढ़ जैसी लोकसभा सीटें उपचुनाव में गंवाने के बाद शायद सपा के थिंक टैंक को ये समझ आ गया है कि बीजेपी से पार पाना है तो बस यादव-मुस्लिम वोट बैंक के सहारे नहीं रहा जा सकता.
वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर नागेंद्र पाठक कहते हैं कि पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक, ये आज कोई नए तो आए नहीं हैं. पहले से ही हैं. यादव वोटर तो सपा के साथ ही है लेकिन नॉन यादव ओबीसी के बीच पार्टी की पकड़ ना के बराबर है. वे कहते हैं कि कुछ चुनावों के एग्जिट पोल में वोटिंग पैटर्न देखें तो पी (पिछड़ा) के नॉन यादव वोटर्स और डी (दलित) के नॉन जाटव वोट में बीजेपी सेंध लगा चुकी है. ए (अल्पसंख्यकों) में पसमंदा मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने के लिए भी बीजेपी जी-जान से जुटी है.
डॉक्टर पाठक कहते हैं कि अखिलेश का पीडीए समीकरण बीजेपी के ताजा समीकरण तोड़ने की ताजा कोशिश भर है. बसपा के साथ गठबंधन के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा को लाभ नहीं मिल सका. हां, बीजेपी को मामूली नुकसान जरूर हुआ था इससे. शायद यही अखिलेश की नई रणनीति के पीछे की वजह भी हो. सपा नेताओं के ध्यान में जरूर ये भी होगा कि यादव (10 फीसदी) और मुस्लिम (20 फीसदी) वोट में से करीब 80 फीसदी पहले से ही उसके साथ है. ऐसे में अगर वो शेष 58 फीसदी वोट में से 15-16 फीसदी वोट भी काट पाती है तो बीजेपी की मुश्किलें बढ़ जाएंगी.
नॉन यादव ओबीसी, दलित वोटर्स को साथ लाने की कोशिश
सपा के लिए यादव-मुस्लिम की पार्टी का टैग हटाना भी बड़ी चुनौती है. अखिलेश यादव की हाल की सियासत देखें तो इस टैग से बाहर निकलने की छटपटाहट साफ झलकती भी है. एक तरफ रामचरितमानस को लेकर स्वामी प्रसाद मौर्य की टिप्पणी के बाद अखिलेश का मौन और दूसरी तरफ नैमिषारण्य से पार्टी के चुनाव अभियान का आगाज करना. सामाजिक न्याय के मुद्दे पर आंदोलन खड़ा करने की कोशिश हो या दलितों को पार्टी से जोड़ने के लिए मान्यवर कांशीराम अभियान, अखिलेश जातीय वोटिंग पैटर्न को बदलने, नया समीकरण गढ़ने की कोशिश में हैं लेकिन उनके सामने नॉन यादव ओबीसी और दलित वोटर्स को साथ लाने की कठिन चुनौती है.
2019 में आरक्षित सीटों पर क्या रहा परिणाम
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरे थे फिर भी बीजेपी 62 और उसकी गठबंधन सहयोगी अपना दल दो सीटें जीतने में सफल रही थी. बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन को 80 में से 64 सीटों पर जीत मिली थी. बसपा ने बाद में वोट ट्रांसफर न होने का दावा करते हुए सपा से गठबंधन तोड़ लिया था.
यूपी में लोकसभा की आरक्षित सीटों की बात करें तो परिणाम बीजेपी के पक्ष में नजर आते हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी की 80 में से 17 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थीं. 17 आरक्षित सीटों में से 15 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी. तब सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरी मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) दो सीटें जीतने में सफल रही थी. सात आरक्षित सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली सपा को निराशा ही हाथ लगी थी. साल 2014 की अपेक्षा एनडीए को 2019 में नौ सीट का नुकसान हुआ तो वहीं बसपा शून्य से 10 सीटों पर पहुंचने में सफल रही. वहीं, सपा पांच सीटें जीत सकी थी.
अखिलेश क्यों लगा रहे जोर, क्या दिख रही उम्मीद
लोकसभा चुनाव 2019 में सपा-बसपा गठबंधन के नतीजे भले ही निराशाजनक रहे हों, अखिलेश यादव को उम्मीद की किरण यूपी विधानसभा चुनाव के पिछले परिणामों में नजर आ रही है. 2012 के यूपी चुनाव में सपा ने 85 आरक्षित सीटों में से 58 सीटें जीती थीं. तब बसपा 15 और बीजेपी को कांग्रेस से भी कम तीन सीटों पर जीत मिली थी. 2017 में बीजेपी ने 86 आरक्षित सीटों में से 70 सीटें जीतीं लेकिन 2022 में बीजेपी को पांच सीटों का नुकसान उठाना पड़ा था. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर 2012 के प्रदर्शन, 2017 की तुलना में बीजेपी की सुरक्षित सीटों में आई कमी... ये कई पहलू हैं जिनकी वजह से अखिलेश को 2024 के लिए उम्मीद की किरण नजर आ रही है.