
अतीक अहमद की हत्या को सालभर से ज्यादा समय हो चुका. ये ‘आजतक’ का कैमरा ही था जिसके जरिए पूरी दुनिया ने पुलिस सुरक्षा के बीच मीडिया से घिरे दो बड़े गैंगस्टर को कुछ युवकों द्वारा गोली मारकर मौत के घाट उतारते देखा. आज अतीक के महलनुमा घर समेत उसका खौफ भी खंडहर हो चुका. अब इस नाम से कोई नहीं कांपता, सिवाय तीन परिवारों के.
अतीक के शूटरों से जुड़े ये परिवार अनजान लोगों से मिलने पर मुस्कुराते नहीं, धड़ाक से दरवाजा भिड़ा देते हैं. कासगंज की ऐसी ही एक मां ने अधबंद दरवाजे की ओट से कहा- आप लोग पूछकर चले जाएंगे, हम बचे-खुचे भी तबाह हो जाएंगे.
कीचड़-गर्दभरे रास्ते से होते हुए हम कासगंज के एक मकान तक पहुंचते हैं. गांववालों का झुंड भी साथ चलता हुआ. उन्हीं की आवाज पर दरवाजा खुला, लेकिन अनजान चेहरे देखते ही तुरंत आधा बंद हो गया. आड़ से ही आवाज आती है- ‘इतनी रात आने का क्या परयोजन (मतलब)! घर में लड़के-बच्चे हैं. बिजली गुल है. तुम जाओ.’
मनुहार पर किवाड़ तो खुले लेकिन जबान नहीं. बुत जैसा चेहरा लिए मां कहती है- बड़ा लड़का तो गंवा ही दिया. अब जो बाकी है, तुमसे बातचीत में वो भी छिन जाएगा. आवाज में कच्चे घर की दीवारों से भी ज्यादा सीलन.
कासगंज की ये अम्मा उन शूटर्स में से एक की मां है, जिन्होंने गैंगस्टर अतीक अहमद को मारा. ये हत्यारे जुर्म की दुनिया में जाना-पहचाना चेहरा नहीं. कथित तौर पर नाम के लिए ही उन्होंने ऐसा काम किया. वे तो जेल में हैं, लेकिन पीछे छूटे परिवारों की कैद किसी पुलिसिया रिकॉर्ड में दर्ज नहीं. उत्तर प्रदेश के तीन जिलों में लगभग अंडरग्राउंड जिंदगी जी रहे ये लोग हर नए चेहरे से डरते और पुराने चेहरे से बचते हैं. इन्हीं लोगों को हमने टटोला.
हमारा पहला पड़ाव था हमीरपुर का वो गांव, जहां शूटर सनी सिंह रहता था.
उसके घर तक पहुंचाने का जिम्मा लेते हुए स्थानीय शख्स कहता है- ‘सीधे-सादे लोग हैं. चींटी मारते भी डरें ऐसे. अब इतने बड़े लंदफंद में फंस गए.’ फिर कुछ ठहरकर- ‘काम छूटने से भाई शराबी हो गया. बच्चे भूखों मरते हैं. कोई बात करने जाए तो पैसे मांगता है लेकिन मुंह नहीं खोलता. आप भी परख लीजिए.’
गली के मुहाने पर दो छोटे-छोटे मकान. इन्हीं में एक घर वो था, जहां पहले सनी रहता था.
घटना के बाद दो कमरों के घर में पुलिस चौकी बन गई, जिसका काम बगल में बसे सनी के परिवार की सेफ्टी था. अब घर खाली पड़ा है. बे-ताला दरवाजा. कुंडी सरकाकर अंदर जाएं तो पुलिस की मौजूदगी के निशान दिखते हैं. टूटी कुर्सियां, छूटी बोतलें और दीमक खाया तखत. घर के असल मालिक की यहां कोई छाप नहीं. न कोई तस्वीर. न बर्तन. न ही कोई तौलिया-कपड़ा. खाली और खुले पड़े इस घर में कोई नहीं आता. चोर-उचक्के तक नहीं.
सामने ही सनी के घरवाले रहते हैं. भाई-भाभी और बच्चे. दरवाजा खुलते ही मैं पहले और अकेले कमरे में खड़ी हूं. चीकट-झूलते हुए खटोले पर सालभर का बच्चा सोया हुआ. बड़े भाई पिंटू इसी के एक कोने में खुद बैठते हुए मुझे दूसरा कोना दिखा देते हैं.
कई किस्तों में बातचीत हुई. कभी कैमरे पर. कभी उसके बगैर. बोलते हुए वे बार-बार तसल्ली करते हैं- आप बयान तो नहीं ले रहीं! हम कम पढ़े-लिखे लोग हैं. ऐसा मत कीजिएगा.
वे कहते हैं- हमको नहीं पता, क्या हुआ, क्या नहीं. उस रात समाचार में देखा तब जाना कि कुछ बड़ा कांड हो गया है. फिर पुलिस घर आ गई. सामने ही सनी के घर पर लगभग पूरा साल रही. हम कहीं भी जाते तो साथ चलती. सेफ्टी के लिए.
क्यों? आपको सेफ्टी की क्या जरूरत?
क्या पता! भाई उल्टा-सीधा कर गया. अब वो तो जेल में है. हम बच्चों को पाल-पोस तक नहीं पा रहे. चाय-समोसे का ठेला लगाते थे. वो भी बंद करना पड़ा. डर से घर ही पड़े रहते हैं. कोई ऊंच-नीच हो जाए.
भाई क्या हमेशा से ही ऐसा था?
हां. पांच-छह साल का था, जब डांटने पर घर से भाग गया. तब से बाहर ही बाहर रहा. कभी लौटा नहीं. गुस्सेवर तो था. लेकिन ऐसा कर डालेगा, सोचा नहीं था.
फिर ये सामने वाला मकान, सनी लौटा नहीं तो वहां कौन रहता था!
चुप्पी…’अब क्या बताएं.’ ‘नैना’...पत्नी को आवाज देते हुए कहते हैं- ‘तुम्हीं बात करो, हमको तो डर लग जाता है.’
अच्छा, छोड़िए. ये बताइए कि भाई से फिर मुलाकात हुई आपकी?
हां. मिलौनी (मुलाकात) में गए थे पिछले महीने. लेकिन कुछ बात नहीं हुई. बस उसने इतना ही कहा कि संभलकर रहना. कहीं बाहर आना-जाना मत. बाल-बच्चों को देखते रहना. जमाना खराब है. हमको रोना आ गया. कांड तो तुम कर गए. अब जमाना क्या खराब!
अभी घर का खर्च कैसे चल रहा है?
सब बेच-बूच दिया. पुलिसवाले साथ थे तो कभी-कभार काम पर चला जाता था. किसी दुकान में समोसे बना लिए. कहीं कुछ और. अब वो भी नहीं. उधार पर है सब.
अतीक को मारते हुए आपके भाई ने एक धार्मिक नारा लगाया था!
हां. बड़ा भगत (भक्त) था वो. यहां भी रहा तो हरदम पूजा-पाठ करता. गरम खून है. गलत देखा तो सही कर डाला.
अब पास ही खड़ी उनकी पत्नी कमान संभाल लेती हैं. ‘जब से सनी सिंह (वे देवर का पूरा नाम लेती हैं) ने ऐसा किया, स्थिति खराब होती चली गई. रिश्तेदार थोड़ी-बहुत मदद कर दें लेकिन जिंदगीभर कौन पालेगा. हमारे पास न खेत-न बाती. डर अलग.’
आपको क्या लगता है, सनी ने क्यों किया होगा ऐसा?
अब हम क्या बताएं. हम तो उससे कभी मिले ही नहीं. नौ साल हुए शादी को. वो न तब आया था, न बाल-बुतरू हुए, तब लौटा. अलग ही रहता. वो तो टीवी पर देखा तो पता लगा कि हमारे देवर हैं ये. इतना बड़ा काम कर गए चुपके ही चुपके.
इतना बड़ा काम मतलब?
जीवन में कभी पुलिस से आमना-सामना नहीं हुआ. फिर पुलिस साथ रहने लगी. कहीं जाओ तो साथ चलती. लोग देखते कि फलाने सिंह के भाई ने ऐसा काम कर दिया कि चार लोग आगे-पीछे फिर रहे हैं.
आपको पता है आपके देवर ने क्या किया, किसे मारा?
टीवी पर ही सब देखा. सही भी लगता है. पुलिसवाले भी कह रहे थे कि नाम हो गया तुम लोगों का. अब रुआब से रहा करो. डरो मत. लेकिन डर तो हो गया है. ये बाहर नहीं जाते. गए तो धड़का लगा रहता है. तीन छोटे बच्चे. मैं अकेली क्या कर लूंगी.
खर्चा-पानी कैसे चल रहा है आप लोगों का?
जैसे-तैसे हो रहा है. आज दोपहर खाया. रात का पता नहीं. बच्चों की फीस नहीं दे पा रहे. राशन कार्ड भी नहीं बन रहा. आज जाओ तो कल बुलाते हैं. कल पहुंचो तो कहते हैं कि कागज हेरा (खो) गया. बार-बार जाने पर खटका अलग. शादी में जो मिला, सब बेच-बूच दिया. देखिए, नाक की तरफ इशारा करते हुए- ये छल्ली ही बाकी है.
अतीक की हत्या में सनी समेत बाकी दो शूटरों के पास जिगाना पिस्टल बरामद हुई थी. तुर्की-मेड इस पिस्टल की कीमत लगभग 5 लाख है. सनी के बड़े भाई से हमने इसपर भी बात की.
काफी टालमटोल के बाद भी सवाल पर टिके रहने पर वे भड़कते हुए कहते हैं- हमें क्या पता! सनी का किया, सनी ही जाने. हमारे पास तो दुकान जाकर चाय-पकौड़ी खाने तक के पैसे नहीं.
गांव से निकलते हुए हम वहीं रहते कुछ लोगों से टकराते हैं. इनमें से एक शख्स कहता है- उनकी हालत बहुत खराब है. लड़का भी फंस ही गया समझो. छोटा-मोटा बदमाश था, इतने बड़े आदमी पर हाथ डालने की हिम्मत कहां थी! उसपर पिस्तौल. देसी कट्टा न जुगाड़ सके, वो विदेशी पिस्तौल कहां से ले आया!
हमीरपुर से लगभग 100 किलोमीटर दूर है बांदा जिला.
मुना और केन नदी से घिरे इसी इलाके में अतीक का दूसरा शूटर रहता था- लवलेश तिवारी. फोन करने पर लवलेश के छोटे भाई वेद मिलने के लिए राजी हो जाते हैं, लेकिन शहर पहुंचते ही माजरा बदल गया. वे फोन नहीं उठा रहे.
हम घर पहुंचते हैं. दरवाजा खुला है लेकिन संकरी बंद गली में दिन के वक्त भी अंधेरा और सन्नाटा. मैं दोबारा फोन करती हूं तो बाहर आते हुए कहते हैं- मैं बात नहीं कर सकता. बड़े भाई मना कर रहे हैं. आप लोग प्लीज जाइए.
ये कहते हुए ही दरवाजा बंद हो जाता है. हम वेद के करीबियों को फोन करते हैं. लगभग घंटाभर इंतजार के बाद वेद मिलने के लिए तैयार हो जाते हैं, लेकिन घर पर या आसपास नहीं. शहर से थोड़ा बाहर. गाड़ी में ही हमारी बातचीत हुई. कैमरे के बगैर. इस शर्त के साथ कि जैसे ही वो मना करें, मैं रुक जाऊं.
भाई ग्रेजुएशन कर रहा था लखनऊ में. फिर पढ़ाई छोड़ दी. घर आना-जाना भी कम कर दिया. महीने में कुछ ही रोज. हमें पता नहीं कि वो कहां रहता था, क्या करता था.
क्यों, पूछताछ क्यों नहीं की?
मैं क्या पूछता. मम्मी-पापा ने कहा-सुना होगा तो पता नहीं. वैसे तो दोस्तों के संग-साथ में ऐसा हो गया था.
घर में और कौन-कौन हैं आपके?
मम्मी-पापा. एक भाई साधु बन चुके. एक शादीशुदा हैं. लवलेश को तो सब जानते हैं. और मैं हूं. इसलिए आपसे नहीं मिल रहा था. पूछेंगी. कहीं कुछ निकल गया तो बात और बिगड़ न जाए. पेरेंट्स का मैं अकेला ही सहारा हूं. मुझे भी कुछ हो गया तो वो लोग कहां जाएंगे.
लगभग 21 साल का दुबला-पतला ये लड़का कार के भीतर भी सहमा हुआ है. बार-बार खिड़की से बाहर देखता और रह-रहकर जेब में कुछ टटोलता हुआ.
घटना के बाद क्या आपको किसी गुट, किसी संस्था में मदद दी?
नहीं. आप लोग (मीडिया) ही आए. पुलिस भी आई. साथ लेकर चली गई. दो महीने हम अंडरग्राउंड रहे. फिर बाहर आना पड़ा. पैसे खत्म हो चुके थे. मैं ग्रेजुएशन फर्स्ट ईयर में था. पढ़ाई छोड़कर एक मॉल में नौकरी खोज ली. कुछ पैसे बड़े भैया देते हैं. ऐसे ही काम चल रहा है. गरीबी तो पहले भी थी, लेकिन अब साथ में डर भी रहता है. पुलिस सिक्योरिटी मिल सकती थी लेकिन हमने मना कर दिया. जितनी टीमटाम रहेगी, लोगों को उतना ही ज्यादा याद रहेगा.
लवलेश का क्या ऐसा ही रिकॉर्ड रहा है, पहले भी एक लड़की को थप्पड़ मार चुका है?
वो केस अलग था. भाई दोस्तों के साथ था. बातचीत में लड़की ने उन लोगों को मां के नाम पर कुछ दिया. भाई भड़क गया. वैसे न उसका कोई अफेयर रहा, न कुछ और. अपने में रहता था. पूजा-पाठ खूब करता. वो घटना जब हुई, हमें टीवी और पुलिसवालों से ही पता लगा. बाकी मैं कुछ नहीं जानता.
सालभर में कभी आप मिलने गए उनसे?
नहीं. मम्मी-पापा गए हैं दो-एक बार. लेकिन बताया नहीं कि क्या बात हुई. वेद एक सांस में बोल रहे हैं, बार-बार कांच के पार देखते हुए. लवलेश ने सालभर पहले प्रयागराज में जो किया, उसकी छाया हर वक्त आसपास डोलती हुई.
भाई के पास इतनी महंगी पिस्टल के पैसे कहां से आए?
ये सब मत पूछिए. हम खुद चक्कर में हैं. हमारे पास पैसे होते तो ऐसे रहते! घर का हाल बाहर से भी आपको दिखा तो होगा! अब आप मुझे फ्री कीजिए. भैया ने मना किया था बात करने को. किसी को भी पता लगा तो बात का बतंगड़ बन जाएगा.
बस, आखिरी सवाल. आपको या परिवार में किसी को कोई धमकी मिली कभी?
नहीं. सीधी धमकी नहीं. लेकिन डर तो है ही. जो हुआ वो छोटी-मोटी बात नहीं थी. हम सीधे-सादे लोग हैं. कुछ हुआ तो सब खत्म हो जाएगा.
बेहद कमजोर लगते लड़के की आवाज में इस बार डर कोई शक्ल लेता हुआ.
वेद के बाद हमने पास-पड़ोस में भी बातचीत की. कैमरे पर आने को कोई राजी नहीं. लेकिन एक शब्द बार-बार कहा गया- ‘सीधे लोग’.
पड़ोस के ही एक वकील कहते हैं- लवलेश को तो हम चार साल का था, तब से जानते हैं. चुप रहता. अपना काम करता. न तीन-न पांच. सीधा-सादा था. मां-पिताजी भी उसके सरल लोग हैं. धरम-करम वाले. जब हम लोगों को इतना धक्का लगा तो उन बेचारों का क्या कहें!
जाते हुए हम एक बार फिर वहां से गुजरते हैं. बंद गली में बंद खिड़कियों वाले किराए के मकान का इस बार दरवाजा भी सटा हुआ. अंदर कोई आहट नहीं. मानो जिंदा रहते हुए ही घरवालों को मरने का तजुर्बा मिल गया हो.
उसी शाम हम कासगंज के एक दूरदराज गांव के लिए निकले. तीसरे और आखिरी शूटर अरुण मौर्य के घर के लिए.
लोकल सोर्स रास्ते से कई बार यहां-वहां फोन लगाते हैं, फिर सफाई-सी देते हुए कहते हैं- गंगा के कारण रास्ते और खेत एक हो जाते हैं. यहां तक पहुंचना आसान नहीं. कांड (हर कोई अतीक की हत्या को कांड कहता दिखा) के बाद एक बार ही मीडियावाले आए थे, फिर इस गांव से किसी का क्या मतलब!
गांव तक पहुंचते हुए अंधेरा हो चुका था. कच्चे-कीचड़भरे रास्ते में पांव जमा-जमाकर आगे बढ़े ही थे कि गांव के कई लोग जमा हो गए.
कौन है, क्यों आए- के बीच लोकल शख्स मोर्चा संभालता है. 'हम जख्म नहीं कुरेदेंगे. लड़के के बारे में भी कोई सवाल नहीं. सिर्फ परिवार का हालचाल जानना है. क्या पता कुछ मदद भी हो जाए.' चेहरे पर ना-यकीनी के साथ झुंड हमारे साथ ही बढ़ चला.
कच्ची लकड़ी और कच्ची ईंटों के जिस घर के आगे हम रुके, वहां बाकी गांव से ज्यादा सन्नाटा था. अंधेरा कुछ ज्यादा गाढ़ा. यही पहचान थी.
गांववालों की टेर पर लकड़ी का दरवाजा खुलता तो है लेकिन अनजान चेहरे देखते ही एकदम से बंद होने लगता है. मैं दरवाजे के बीच हाथ रखते हुए कहती हूं- डरिए मत. हम सिर्फ बात करने आए हैं.
क्यों. क्या बात करनी है. कौन हो तुम लोग. इतनी रात गए आने का क्या परयोजन?
दिल्ली से आए हैं. एक न्यूज चैनल में काम करते हैं. आपका जवान बच्चा जेल में है. खतरा भी होगा. आपसे बात करके हम शायद कुछ कर सकें. क्या पता, प्रशासन ही कुछ मदद कर दे!
अंधेरे में भी डर की छाया चेहरे से जाती-गुजरती दिखती है. दरवाजा अब भी अधबंद. हाथ टिका हुआ. आखिरी दांव- मैं भी औरत हूं. चलिए, मैं अकेली अंदर आ जाती हूं. आने दीजिए...
दरवाजा खुल जाता है.
अंधेरा भी घर के उजाड़पन को छिपा नहीं पा रहा. बिना पलस्तर का कमरा, जिसपर सरकारी योजना का कैलेंडर सजा हुआ है. जूट की खटिया. साथ में ही एक ठेला खड़ा हुआ, जिसपर गद्दे-तकिए पड़े हैं. बिना पूछे भी पता लग जाए कि ये ठेला भी रात में किसी का बिछौना होता होगा.
आप अरुण की मां हैं? बात शुरू करने के लिए पूछा हुआ रस्मी सवाल हवा में ही टंगा रहता है.
वे पलटकर कहती हैं- तुम बयान लेने आई हो क्या? ऐसा मत करो. हमारे बाल-बच्चा देखो. उमर क्या है इनकी. बेटा जेल में. पति भागा-भागा फिर रहा. तुम लौट जाओ.
हम कोई पुलिस या सरकारी आदमी नहीं. बयान नहीं चाहिए. बात करेंगे. आपसे कहा तो था. वे दोबारा अड़ जाती हैं. खूब मान-मनौवल के बाद इसपर डील पक्की हुई कि हम उनका या बच्चों का न तो चेहरा दिखाएं, न रिकॉर्डिंग करें. मां हाथ बांधकर खड़ी हुई, जैसे एक गलत बात बोलते ही घर से बाहर कर देगी.
कहती हैं- तीन भाई-बहनों में अरुण सबसे बड़ा था, लेकिन कांड हुआ तब वो भी 18 का पूरा नहीं था. कच्चा दिमाग. गरम खून. आ गया होगा बातों में. जब पुलिस घर आई तो हम घबरा गए थे. काफी दिन इधर-उधर रहे. फिर लौट आए. गरीब का पेट भरे तो जान बचे.
क्या काम करते हैं आप लोग?
ये (पति) चाट का ठेला लगाते थे शहर में. बंद करना पड़ा. खुद पुलिस ने ही संभलकर रहने को कहा था. अब कहीं और काम करते हैं.
कहां, क्या काम करते हैं?
चुप्पी...पूछ चुकी तो अब तुम जाओ.
बच्चे पढ़ते हैं?
बेटी दसवीं में है. उसे तो इस साल पढ़ा देंगे. बेटे की पढ़ाई छुड़वा दी. छोटा है. कुछ हो-हवा गया तो अब संभल भी नहीं पाएंगे.
अरुण से आपकी बात होती है?
हां. होती तो है. फोन पर.
कौन कराता है?
अब कौन जाने, कौन कराता है. फोन आ जाता है.
अपना मोबाइल नंबर दे सकेंगी?
चुप्पी...
मिलने नहीं गए आप लोग उससे! बाकी दोनों लड़कों के घरवाले तो जा चुके.
हमारे पास यहां से प्रमुख (मेन) बाजार जाने तक के पैसे नहीं. उतनी दूर मिलने कहां से जाएं!
पास खड़ी दसवीं पढ़ती बहन की आंखें बार-बार भर आती हैं. मां डपटते हुए आंसू पोंछकर भीतर जाने को कहती हैं. लड़की वहीं बनी रहती है.
मां कह रही हैं- वो शुरू से ही पानीपत में रहा. अपने बाबा (दादा) के पास. वहां क्या बना, क्या बिगड़ा, कौन जाने. हमसे ज्यादा घुलता-मिलता भी नहीं था. लेकिन है तो अपना बच्चा. लड़का-लड़की भी भाई को रोते रहते हैं.
अंधेरे के साथ ही मां के चेहरे पर डर गहरा रहा है. वे आगे बढ़ते हुए कहती हैं- अब तुम जाओ. हम किवाड़ लगाएंगे.
दरवाजे के बाहर झुंड अब भी इंतजार कर रहा है. हमारे निकलते ही लोग अंदर जाकर तसल्ली करने लगते हैं. हमें साथ लेकर आया शख्स सफाई देता है- रात में न आते तो फिर भी थोड़ी बात कर लेतीं. पहले ऐसी नहीं थीं. चाय-बिस्कुट सब करातीं. अब कनस्तर में खाने की जगह खौफ भर चुका. बेचारी करें भी क्या.
(इंटरव्यू कोऑर्डिनेशन- हमीरपुर से नाहिद अंसारी, कासगंज से देवेश पाल सिंह और बांदा से सिद्धार्थ गुप्ता)