
ये कहानी है...
एक बच्ची की, चॉकलेट खाने की उम्र में जो बच्चे को दूध पिलाने पर मजबूर है...!
एक मां की, जो अपनी बेटी को सोंठ के लड्डू नहीं, सूखा भात देने पर मजबूर है...!
और- एक गांव की, रेप झेल चुकी बच्ची जहां 'काबू से बाहर' कहलाती है...!
दिल्ली से कानपुर होते हुए करीब दो घंटे में हम मौरावां पहुंच जाएंगे. जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, तस्वीर बदलती जाएगी. सूखे-धूलभरे रास्ते, जहां पहुंचते ही मन बेवजह उदास हो जाए. झड़े पत्तों वाले पेड़ अपनी ही मौत का सोग मनाते हुए. खेत की मेड़ पर दीमकों के अड्डे. खिड़की खोलते ही ऐसी हवा मानो आंखों में एसिड झोंक दिया हो.
हम एक तिराहे पर थे. गूगल मैप ने काम करना बंद कर दिया. उकताया हुआ ड्राइवर गाड़ी एक दुकान पर रोकता है. शीशा खोलकर मेरे सोर्स ने 'उस घर' का पता पूछा. दुकान के भीतर-बाहर ऊंघते लोग एकदम से हरकत में आ गए.
एक ने पूछा- वही, जिनके यहां 'कांड' हुआ था!
मेरी प्रेजेंस से अचकचाए सोर्स ने सिर हिला दिया. अब हम उस रास्ते पर थे, जहां 'कांड वाला घर' पड़ेगा.
पक्की सड़क जल्द ही खड़ंजा (ईंटों से बना रास्ता) में बदल चुकी है. फोन पर बात करने पर पीड़िता की मां गाइड करती है- 'बस, खड़ंजा पर सीधे चले आओ. रस्सी पर कपड़े पसार रखे हैं. दो बकरियां भी दिखेंगी.' ये उस मकान का पता है. कांड, सूखते कपड़े और बकरियां. कोई चिट्ठी या कोई पार्सल यहां पहुंचने के इंतजार में नहीं, जो पोस्टल एड्रेस की जरूरत पड़े.
पुष्पा सामने ही मिलती हैं. सस्ते जॉर्जट की लाल साड़ी पर सुनहरे तार का काम. तेल से चिपकाकर करीने से बनाए हुए बाल. बरामदे में दो चाइपाइयां पड़ी हैं. एक पर ताजा-ताजा तेल मालिश के बाद बच्चा सोया हुआ है. दूसरी पर हम बैठ जाते हैं.
मैं पीड़िता यानी बेटी से मिलना चाहती हूं. वो आती है. आसमानी कुरते पर टंका छोटा-सा चेहरा. तराशे हुए सेब की तरह बादामी आंखें. देखते हुए अजीब-सी बात दिमाग में आई- ‘शहर में होती, तो ये लड़की क्या ही कमाल लगती!’ लेकिन वो गांव में है. एक नहीं, दो बार गैंगरेप झेल चुकी और खुद फुदकने की उम्र में बच्चा पालती हुई. भीतर के कमरे में बैठकर हम बात शुरू करते हैं.
क्या बुलाती हो अपने बेटे को?
बाबू.
नाम क्या रखा है?
बाबू.
मैं गौर करती हूं, वो अपने छोटे भाईयों को भी बाबू ही बुला रही थी. यानी खुद से छोटा हर बच्चा, इस लड़की के लिए बाबू है.
'मंगलसिंह नाम है लड़के का'- पिता बेचैन होकर बीच में बोल उठते हैं. 'इसे अपनी समझ नहीं, बच्चे का नाम-धाम क्या बताएगी.'
वो इतनी धीमी आवाज में बोल रही है कि मैं एकदम पास सरक आती हूं. ज्यादा क्रूर सवालों के लिए खुद को भरसक तैयार करती हुई.
मां बनने वाली हो, ये कब पता लगा?
बच्ची टक लगाए मेरा चेहरा देखती रहती है. कोई जवाब नहीं आता.
सवाल दोहराने पर कहती है- उल्टी होती थी. खाए-पिए को जी नहीं करता था. अलिटासाउंड (अल्ट्रासाउंड) हुआ तब पता लगा. मम्मी-पापा बहुत रोए. हम भी दर्द से रोते रहते. फिर बाबू आ गया.
बाबू रात में रोता है तो चुप कौन कराता है?
मम्मी डेरी (डेयरी) का दूध पिला देती है तो चुप हो जाता है. कभी-कभी हमको भी जगा देती है, लेकिन हम दूध नहीं पिला पाते.
थक नहीं जाती. गुस्सा नहीं आता बाबू पर!
बादामी आंखें दोबारा हैरान लगती हैं. फिर धीरे से पूछा जाता है- गुस्सा क्यों!
रात-रात जागने पर? इतना सारा काम करने पर?
नहीं गुस्सा तो नहीं. नींद बहुत आती है. छोटा-सा जवाब.
लड़की की आंखों में अब भी उनींदापन है. जमीन की टेक लगाकर झुका हुआ शरीर, जो मौका मिलते ही सो जाने को तैयार हो.
बच्ची से ज्यादा बात की गुंजाइश नहीं. वो पहले से ज्यादा उदास, ज्यादा गुमसुम लगती है.
मांगने पर पिता अस्पताल का पर्चा, थाने में दिया आवेदन सब निकालकर दिखाते हैं. पता लगता है कि डिलीवरी के बाद ज्यादा खून बहने पर बच्ची को कानपुर रेफर किया गया था. वहां के सरकारी अस्पताल का डिस्चार्ज लेटर मेरे सामने अलग ही दुनिया खोलता है. ठंडेपन और आदत से बनी दुनिया, जहां छोटी बच्ची भी एक औरत है.
पर्चे पर मरीज की उम्र 11 साल लिखी है. वहीं ‘मरीज के लिए सलाह’ वाले सेक्शन में हाथ से लिखा है- ‘डेढ़ महीने तक शारीरिक संबंध न बनाएं’. साथ में किसी लेडी डॉक्टर का नाम और दस्तखत.
डॉक्टर ने बच्ची की उम्र पढ़ी होगी. उसका बचकाना चेहरा और हड्डियों के ढांचे जैसा शरीर देखा होगा. फिर भी रोबोट की तरह सलाह लिख सकी- शारीरिक संबंध से परहेज!
बित्ताभर की रेप विक्टिम तब से लेकर बच्चे के जन्म के बाद शरीर और मन की कैसी-कैसी तकलीफों से गुजरी होगी, सोचकर कलेजे में टीस उठती है. फिर भी पूछ डालती हूं- अस्पताल में सब आपका बढ़िया ध्यान तो रखते होंगे!
हां. कानपुर के हालाट (हैलट हॉस्पिटल) गई तो खून रुक गया, लेकिन दर्द होता था. रोना आता तो नर्स डांटती कि आवाज मत निकालो. बच्चा रोए तो सब मुझपर गुस्सा करते थे. आवाज खोई हुई, जैसे तय कर रही हो कि शायद उसे ही बढ़िया ध्यान रखना कहते होंगे!
दिनभर क्या करती हो?
खाना बनाते हैं. झाड़ू-बर्तन करते हैं. बाबू को खिलाते हैं. फिर रात हो जाती है.
स्कूल नहीं जाती? जानते हुए भी पूछती हूं.
नहीं.
क्यों?
वो लोग धमकाए हैं कि घर से निकलोगी, बोलोगी-बताओगी तो मार देंगे.
लड़की के गले में लाल मोतियों की माला पड़ी हुई. बीच में डला सुनहरा लॉकेट बदरंग हो चुका.
ये पहनना अच्छा लगता है? माला की तरफ इशारा करते हुए पूछ लिया.
हां. अच्छा लगता है. मम्मी से मांग के पहने थे.
और क्या अच्छा लगता है?
चुप्पी.
अफसोस होता है कि मेरे बैग में भी कोई गहना-गुरिया या लिपस्टिक होती तो इस छोटी-सी गुड़िया को दे पाती. बैग में कागज, कार्ड्स के अलावा कुछ नहीं धरा.
साल 2021 के 31 दिसंबर और साल 2022 की 13 फरवरी. दो बार बच्ची को अगवा करके गैंगरेप हुआ. पहली बार कोई FIR नहीं हुई.
मां पुष्पा याद करती हैं- हम थाने गए थे अर्जी लिखवाने के लिए. पुलिसवाले ने कहा कि मत लिखाओ, बदनामी होगी. हम डर से घर लौट आए. इसके पापा कानपुर में मजदूरी करते हैं. मैं मनरेगा में काम. बेटी घर पर रहने लगी. एक रोज शक्कर लाने निकली तो फिर उठा लिया. इस बार पुलिस ने अर्जी तो ली, लेकिन 3 अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा लिख लिया.
‘हम बोल रहे थे कि वो तीन नहीं, पांच लोग थे. हमाई बिटिया सबको जानती है. लेकिन किसी ने नहीं सुना.’
शहरी लोगों से मिलने के लिए तैयार होकर बैठी मां एकदम से रो पड़ती है. खून में सनकर घर लौटी थी बेटी. बार-बार अचेत (बेहोश) हो जाती. कंपाउंडर दवा देता रहा. फिर उसे उल्टियां होने लगीं. दवा बदल दी गई, लेकिन तब तक हमारे दिमाग में ही नहीं आया था कि वो पेट से हो सकती है.
पुष्पा की आवाज भरभराने लगती है. गले में जैसे गहरा दर्द अटका हुआ हो. खूब रोकर हारने के बाद सुस्त पड़ी आवाज.
मैं कैमरा बंद करके यहां-वहां देखने लगती हूं. नहीं जानती कि मेरा कोई शब्द उन्हें तसल्ली दे सकता है. या मेरा हाथ पकड़ना उन्हें मजबूती दे सकेगा. तभी बच्चे के कुनमुनाने की आवाज आती है. नानी उर्फ मां भागती हुई बरामदे में चली जाती है.
अब गोबर से लिपी जमीन वाले कमरे में मैं अकेली हूं. तार पर कपड़े लटके हुए. कमरे में कोई अलमारी या कांच नहीं. दीवार पर देवी-देवताओं की तस्वीरें चिपकी हैं. नीचे चावल का बर्तन रखा हुआ. मेरे सामने ही चूहे उसपर मुंह मारते हैं. मैं डरकर कमरे में पड़ी खटिया पर बैठ जाती हूं. चूहे भगाने की झूठी कोशिश भी नहीं हो पाती.
बच्चे को चुप कराकर पुष्पा लौटती हैं तो बर्तन में पड़े चावल को देखती पूछ बैठती हूं- इस भात का क्या करेंगी? अंदाजा था कि शायद बकरियों को दिया जाता हो.
रात में खाएंगे.
लेकिन इसपर तो चूहे झूम रहे हैं!
इसबार पुष्पा कोई जवाब नहीं देतीं. जिस चूहे को देखकर हम जैसे खाए-अघाए लोग घमासान मचा देते हैं, वो इस घर का हिस्सा है. यहां रहने वाले लोग नहीं जानते कि चूहे से कोई बीमारी हो सकती है. या उनसे डरना चाहिए. या जानते भी हों तो फर्क नहीं पड़ता. ईंट वाली कच्ची दीवार, भनभन करती मक्खियां और भात खाते चूहे मिलकर इस घर को बनाते हैं.
एकाध मिनट बाद मां बर्तन की टोकरी में कुछ उथल-पुथल करती है और फिर धप्प से बैठ जाती है. मतलब, वहां ऐसा कुछ भी नहीं, जिससे भात के इस बर्तन को ढांपा जा सके. एक समय चूल्हा जलता होगा तो पूरा दिन काम चलता होगा.
थकी हुई मां बहुत सारी फैक्चुअल डिटेल देने लगती हैं. जैसे पहला या दूसरा रेप कब हुआ. लड़की के लड़का कब हुआ. कब कौन से अस्पताल में भर्ती रही. फिर उकताई हुई आवाज में कहती हैं- आएदिन धमकी मिलती है. घर पर हमला भी हुआ. तीन साल के मेरे लड़के को उठाकर पटका तो उसका हाथ टूट गया (उसकी मेडिकल रिपोर्ट भी हमारे पास है). कहा कि चुप नहीं हुए तो सबको मार डालेंगे. तब पुलिस घर के आगे पहरा देने लगी.
कितने पुलिसवाले थे?
दो दिन, दो रात में पहरा देते. बच्चा होने के बाद भी कुछ दिन पहरा चला, फिर हटा लिया.
थाने में अर्जी क्यों नहीं दी, सुरक्षा चाहिए थी तो!
बेटी का खून निचुड़ गया था. उसकी जान बचाते, या थाने के चक्कर लगाते!
सवाल के बदले सवाल दागती इस मां के चेहरे पर ऐसी तमतमाहट कि मैं चुप हो गई. फिर वो मानो खुद ही में सवाल करती हैं- स्कूल जाने की उमर में भात रांध रही है. शरीर हड्डी है, लेकिन पेट नीचे से झूल गया है. गांवभर थूकता है. बड़ी होगी तो कौन इससे शादी करेगा!
जब ये बातें हो रही थी, हड्डी-शरीर वाली बच्ची हमारे पास ही बैठी थी. कच्ची जमीन को नाखून से कुरेदती हुई. चेहरा गुमसुम मानो उसकी नहीं, किसी तीसरे की बात चल रही हो.
विदा लेकर घर से निकल रही थी, तभी सामने की दीवार पर लगा एक पोस्टर दिखा. मुस्कुराती हुई हीरोइनों वाला. करीना और कैटरीना. नीचे लिखा हुआ- सेलिब्रेशन ऑफ लव. मैं पूछ पड़ती हूं- कहां से खरीदा पोस्टर? सुंदर है.
इस बार जवाब पिता ने दिया- कानपुर में किसी से मांगा था. घर सजाने के लिए यहां ले आया. चेहरे पर नरमी और मुस्कान, जो घर में सजे कीमती गुलदान या बढ़िया खाने की तारीफ सुनकर आती है.
फूस की छाजन वाले इस घर में मुस्कुराहट के नाम पर यही अकेला पोस्टर है. और शायद अकेला भरोसा, कि दुनिया खुशरंग भी हो सकती है.
वहां से निकलते हुए कुछ गांववालों से मुलाकात होती है. मैं कुछ पूछूं, उसके पहले एक आदमी मुझसे ही सवाल करने लगा. कहां से आई हैं, इनका ठिकाना कहां से पता लगा - घास का तिनका चुभलाते हुए वो पूछ रहा था.
उनके जवाब देकर मैंने कमान संभाल ली.
पुष्पा देवी की बेटी के साथ क्या हुआ, आप जानते हैं?
जानेंगे क्यों नहीं, सारा गांव जानता है. इज्जत उतरेगी तो भीड़ भी लगेगी.
मतलब?
अरे मैडम, उसकी मां भी वैसी ही है. गांव के लोगों को बदनाम करने की धमकी देकर पैसे मांगती है. तिनका चबाता शख्स तसल्ली से पुष्पा यानी पीड़िता की मां पर भद्दी टिप्पणियां करता है.
लिबिर-लिबिर करती थी. रात में 11 बजे तक घूमती रहती. अब ऐसे घर में कौन नहीं घुसेगा!
इस बार धूप से कम, उनकी बातों पर दिमाग ज्यादा घूमने लगा. सब्र का छोर कसकर पकड़े हुए मैं औरतों का दिल खंगालती हूं.
जो भी हुआ, वो थी तो बच्ची ही. आप तो समझती होंगी. सब मिलकर कुछ मदद क्यों नहीं करते?
सवाल खत्म होता, इसके पहले एक औरत बोल पड़ी- बच्ची नहीं, बहुत बड़ी है. 15 साल की होगी. जो हुआ, मर्जी से हुआ होगा. गांव में कोई जबर्दस्ती नहीं करता, अपनी राजी से करवाया उसने...!
बाकी औरतें मुस्कुराते हुए सिर हिला रही हैं. आदमी लगातार घास कुतर रहा है. हम गांव से निकलने लगते हैं तो ‘कांड वाला घर’ कहता आदमी दिखता है. राशन की दुकान पर अब भी बैठा हुआ.
बच्ची का केस फिलहाल उन्नाव जिला सत्र न्यायालय में चल रहा है. पीड़िता के वकील संजीव त्रिवेदी से बात करने पर कई परतें खुलीं.
वे कहते हैं- 13 फरवरी 2022 की घटना पर मामला दर्ज हुआ. जांच में पता लगा कि लड़की 6 हफ्ते, 2 दिन की प्रेग्नेंट है. पुलिस ने ये बात उसकी फैमिली को नहीं बताई. अगर बता देती तो मेडिकल टर्मिनेशन (अबॉर्शन) हो जाता. और कुछ नहीं तो बच्ची को प्रेग्नेंसी के समय लगने वाले टीके ही लग जाते. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
पुलिस ने दिसंबर में हुए रेप पर FIR लिखी और कह दिया कि इस बार कोई रेप नहीं हुआ है. लड़की छोटी है. उसके घरवाले अपढ़ हैं. उन्हें जो कह दिया गया, उसपर अंगूठा लगा दिया. काफी बाद में चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के जरिए केस मुझ तक आया. उस समय तक पीड़िता के पेट में दर्द और सूजन बढ़ चुकी थी. फिर से अल्ट्रासाउंड हुआ, तब जाकर हम लोगों को पता लगा कि वो प्रेग्नेंट है. लगभग 7 महीने हो चुके थे. कोई रास्ता न देख हमने कोर्ट में बड़े अस्पताल में डिलीवरी की अर्जी लगाई.
इधर तीन आरोपियों में से जिन दो को जेल हुई थी, उनमें से एक जमानत पर बाहर आ गया. पुलिस का कहना था कि आरोपी ने रेप नहीं किया, सिर्फ लड़की को बहलाया था. एक आरोपी माइनर था. बच्ची का कहना था कि वो इस लड़के को नहीं जानती, लिहाजा उसके खिलाफ केस खत्म हो गया. फिलहाल एक ही आरोपी जेल में है.
वकील कहते हैं- लड़की शुरुआत से लेकर अब तक के बयान में कहती रही कि उसका रेप 5 लोगों ने 2 बार किया और वो सबको जानती है, लेकिन पुलिस ने 3 लोगों की बात क्यों लिखी, और एक टीन एजर लड़के को क्यों इससे जोड़ा, इसपर कोई जवाब नहीं मिल सका. फोरेंसिक रिपोर्ट में कपड़ों पर दाग मिले थे. फिलहाल हम एक और FIR की तैयारी में हैं.
लौटते हुए डीएम (डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट) अपूर्वा दुबे से बात होती है. वे कहती हैं- हां, ऐसा कोई मामला आया तो है. मैं डीपीओ (डिस्ट्रिक्ट प्रोबेशन ऑफिसर) से आपकी बात करवाती हूं. वे पक्की जानकारी दे सकेंगी.
घंटेभर के भीतर डीपीओ रेणु यादव का फोन आता है. वे बताती हैं कि माइनर का अस्पताल का कार्ड भी बना हुआ है और डॉक्टरों की टीम उसे लगातार विजिट भी कर रही है. मैं पूछती हूं- डॉक्टरों की टीम! जवाब आता है- मतलब आशा वर्कर. वे लड़की से मिलती रहती हैं.
लगभग 7 लाख का मुआवजा भी अप्रूव हो चुका है. बस रिलीज होना बाकी है. डीपीओ बताती हैं. आवाज में अपने हिस्से का काम पूरा करने की तसल्ली. लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं. कोई संवेदना, कोई तड़प नहीं.
खड़ंजा वाली सड़क के बेपता घर में रहती ‘बच्ची-मां’ किसी खबर, किसी के आंसू का हिस्सा नहीं. वो एक मामूली केस है, कुछ लाख रुपयों के बाद जो हर जगह से क्लोज हो जाएगा.
(गोपनीयता बनाए रखने के लिए पीड़ित परिवार की पहचान छिपाई गई है.)