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धर्म से मुस्लिम, नाम में दुबे और शुक्ला... जौनपुर के इस गांव के मुसलमान क्यों कर रहे 'घर वापसी'

यूपी के जौनपुर जिले में स्थित एक गांव के मुस्लिम समाज के कई लोग अपने पूर्वजों के गोत्र को अपने नाम के साथ जोड़ रहे हैं. कोई अपने नाम के साथ शुक्ला टाइटल लगा रहा है तो कोई दुबे. ऐसा करने के पीछे इनका तर्क है कि इनके पूर्वज हिंदू ब्राह्मण थे. आइए जानते हैं पूरी कहानी...

गौसेवा करते जौनपुर के नौशाद गौसेवा करते जौनपुर के नौशाद
आदित्य प्रकाश भारद्वाज
  • जौनपुर ,
  • 09 दिसंबर 2024,
  • अपडेटेड 10:41 AM IST

यूपी के जौनपुर जिले के डेहरी गांव में 60 साल के नौशाद अहमद रहते हैं. लेकिन गांव वाले नौशाद मियां को 'दुबे जी' कह के बुलाते हैं. सिर्फ नौशाद ही नहीं बल्कि गांव के अशरफ और शिराज भी अपने नाम के आगे 'दुबे' और 'शुक्ला' लगाते हैं. नौशाद बड़े चाव से बताते हैं कि वो 'मुस्लिम ब्राह्मण' हैं. वो तिलक भी लगाते हैं और वजू भी करते हैं. नौशाद दुबे गौ सेवा भी करते हैं. और बताते हैं कि लगभग 7 पीढ़ी पहले उनके पूर्वजों ने अपना धर्म बदल लिया था.

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'आज तक' की टीम जौनपुर से लगभग 35 किलोमीटर दूर केराकत के डेहरी गांव में पहुंची. वहां हमारी मुलाकात नौशाद, अशरफ और शिराज से हुई. अमूमन खान, अंसारी, शेख, आजमी और जैसे टाइटल मुसलमान में सुनने को मिलते हैं . लेकिन जब यहां पर लोगों से बातचीत की गई तो पता चला कि नौशाद भाई का पूरा नाम नौशाद अहमद दुबे है, अशरफ को लोग अशरफ दुबे बुलाते हैं तो वहीं शिराज को शिराज शुक्ला कहते हैं .

नौशाद में बातचीत के दौरान बताया कि उनके पूर्वज बताते थे कि वो ब्राह्मण थे. वो लोग ब्राह्मण से कन्वर्ट होकर मुसलमान हो गए थे. नौशाद कहते हैं कि फिर वो अपनी जड़ों को पहचानने के लिए निकल पड़े. इस दौरान उन्हें मालूम हुआ कि 7 पीढ़ी पहले उनके पूर्वज लाल बहादुर दुबे धर्म परिवर्तन कर लाल मोहम्मद शेख और लालम शेख हो गए थे.

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इन्हें बचपन से इस बात का आभास हो गया था कि हमारी जो कास्ट है जैसे शेख , पठान या सैय्यद जो लिखते हैं वो हमारी नहीं है बल्कि उधार की ली हुई है. फिर वो जड़ से जुड़ने लगे. नौशाद दुबे को उनके पूर्वजों ने बताया था कि उनके पूर्वज दुबे थे. जो रानी की सराय आजमगढ़ से यहां जौनपुर में रहने आए थे. तो उनको इस बात की पहले से जानकारी थी कि पूर्व में हम लोग ब्राह्मण थे. इसके बाद वो अपने नाम में दुबे लगाने लगे.

नौशाद कहते हैं कि लोग उनसे सवाल करते हैं कि अपने नाम के आगे दुबे क्यों लिखते हैं . वह उन लोगों से पूछते हैं कि वह अगर अपने नाम के आगे दुबे नहीं लिखे तो और क्या लिखे... लोगों के पास इस बात का जवाब नहीं होता... उल्टा नौशाद दुबे पूछ लेते हैं कि अरबी टाइटल है शेख, तुर्कियों का टाइटल है मिर्जा, मंगोल या मुगलों का टाइटल है खान... तो ऐसे में हम उनका टाइटल क्यों अपनाएं. मेरे पास अपना टाइटल है और मैं अपने टाइटल को अपनाऊंगा. मैं अपनी जड़ों से अपनी चीजों को ले रहा हूं, हमें उधार की चीज लेनी छोड़ देनी चाहिए.

धार्मिक समरसता की बात पर नौशाद कहते हैं कि धर्म को मानने वाले के अंदर पहली चीज मानवता होनी चाहिए. किसी के प्रति कोई नफरत नहीं होनी चाहिए. उदाहरण देते हुए नौशाद दुबे बताते हैं कि पैगंबर साहब का नाम गलत तरीके से लेने पर लोग 'सर तन से जुदा' करने की बात करते हैं. उन्हीं मोहम्मद साहब को उनके अनुयायियों के सामने गाली दी जाती थी और कीचड़ फेंका जाता था लेकिन वो आक्रोशित नहीं होते थे.

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नौशाद दुबे कहते हैं कि तिलक लगाने से उन्हें कोई एतराज नहीं है, पूजा में उनकी आस्था एक ईश्वर की आस्था है. वो कहते हैं कि ईश्वर चाहे किसी भी नाम से आ जाए मुझे कोई एतराज नहीं है. नौशाद दुबे गौ सेवा भी करते हैं. वो कहते हैं कि किसानी और गौपालन भारतीयता की पहचान है. 

नौशाद दुबे बताते हैं कि उनके पास लगभग 7 गाय हैं. वो गाय का दूध पीते हैं. कहते हैं कि मुसलमान 'मांस खौवा' के रूप में प्रसिद्ध है. जबकि, मोहम्मद साहब कहते थे कि गाय का दूध पिओ वो दवा है, उसका घी खाओ वह अमृत तुल्य है, लेकिन उसके मांस से बचो, ये बीमारी है. 

बकौल नौशाद- मैं सच्चे इस्लाम धर्म को मानता हूं इसलिए मैंने गाय को पाला है और उसका दूध और घी खाता हूं. अपने आप को मुस्लिम ब्राह्मण कहलाने में खुशी महसूस करता हूं. मुझे नौशाद अहमद नहीं नौशाद दुबे ही कहा जाए.

नौशाद कहते हैं कि कई बार उनके खिलाफत में फतवे भी जारी हुए. जब वह अपनी बच्चियों को उच्च शिक्षा के लिए भेज रहे थे तो धर्म के जानकार इस्लाम का हवाला दे रहे थे. वह लोग कह रहे थे कि इस्लाम इस बात की अनुमति नहीं देता. लेकिन नौशाद अहमद दुबे ने उन सभी लोगों को जवाब भी दिया. 

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नौशाद अहमद दुबे ने कहा कि आपका इस्लाम इस बात की इजाजत नहीं देता होगा लेकिन मेरा इस्लाम इस बात की अनुमति देता है. इसके बाद उन्होंने अपनी बच्चियों को पढ़ाया. वो बताते हैं कि उनकी बच्चियों पढ़ने में टॉपर भी थी. एक ने एलएल.एम तो दूसरी ने बीएससी किया. नौशाद आगे कहते हैं कि उनके इस्लाम वही है जो मोहम्मद साहब लेकर आए हैं और जो कुरान कहती है.

नाम के आगे दुबे लगाने पर क्या किसी तरह का फतवा जारी हुआ? इसपर नौशाद बताते हैं कि फतवे के बारे में तो उनको जानकारी नहीं लेकिन लोगों ने उनसे यह कहा कि आप जो कर रहे हैं उसका गलत प्रभाव पड़ेगा... तो उन्होंने कहा कि आप गलत रूप में देख रहे हैं तो गलत प्रभाव पड़ रहा है आप सही रूप में देखेंगे तो सही प्रभाव पड़ेगा. मैं जो कर रहा हूं वह समाज हित के लिए कर रहा हूं और इस्लाम भी समाज हित के लिए काम करता है.

इसके बाद 'आजतक' की टीम डेहरी गांव के सिराज अहमद से बात की. कैमरे पर बोलने से पहले सिराज को थोड़ी हिचकिचाहट जरूर हुई लेकिन जब झिझक हटी तो सिराज ने बताया कि उनके पूर्वज शुक्ला थे. शुक्ला में भी भार्गव गोत्र था. वो कहते हैं कि शुक्ला टाइटल लगाने में क्या मुश्किल है. जब पता चला कि हम लोग किस बिरादरी से कन्वर्ट हुए हैं तो उसमें वापस जाने में क्या बुराई है. कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में भी बहुत से मुस्लिम हिंदू टाइटल लगाते हैं. हम लोग अपनी जड़ से जुड़ रहे हैं. 

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वह बताते हैं कि उनके वालिद कहते थे कि हम लोग आजमगढ़ के सियपुर से आके जौनपुर में बसे हैं. उनके खानदान में कई लोगों ने इस बात का जिक्र किया कि हम लोग पंडितों में शुक्ला कुल से थे.

वहीं, 21 साल के अशरफ बड़े चाव से कैमरे के सामने बताते हैं कि उनका नाम अशरफ दुबे है. अशरफ कहते हैं कि भारत का हर नागरिक भारत का ही है. हम लोग कोई अरब सागर से तो आए नहीं. हमारे पूर्वज पहले ब्राह्मण थे तो हम लोगों को इसकी जानकारी थी नहीं, जब से हम लोगों को पता चला है तब से अपने नाम के आगे दुबे लगा रहे हैं. दुबे लगाने से आखिर क्या आपत्ति है, अब या तो कोई दलील पेश की जाए कि दुबे मत लगाओ... मजाक में लोग चिढ़ाते हैं दुबे दुबे बुलाते है .. लेकिन मैनेज कर लेते हैं. 

नौशाद दुबे सोशल मीडिया पर भी काफी एक्टिव हैं. बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार को लेकर नौशाद दुबे कहते हैं कि इस्लाम ने हमें सिखाया कि आप अपनी जरूरत से ज्यादा पानी भी मत बहाइए, फिर कौन से मुसलमान हैं जो इस्लाम के नाम पर खून बहा रहे हैं... किस इस्लाम को आप मानते हैं, क्या इस्लाम आपको यही शिक्षा देता है.

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नौशाद बताते हैं कि आजमगढ़, जौनपुर और मऊ मिलाकर लगभग 100 से ऊपर लोग ऐसे हो चुके हैं जिनकी जड़ें खोजी जा चुकी हैं, जो यह बताते हैं कि वह दुबे हैं, तिवारी हैं, पांडे हैं या यादव हैं. 

नौशाद अहमद दुबे के यहां 10 नवंबर को निकाह था. उन्होंने निकाह का कार्ड हिंदी में छपवाया हुआ था, नाम में दुबे लगाया था. वो कहते हैं कि मुसलमान में कार्ड या तो अग्रेजी में या तो उर्दू में छपता में है. भले ही पूरी उर्दू कोई ना पढ़ पाए, तो आखिर हिंदी से इतनी नफरत क्यों. हम भारतीय हैं और हमारी राष्ट्र भाषा और मातृ भाषा हिंदी है. मैंने अपना नाम भी पूरा दिया कि मैं नौशाद अहमद दुबे हूं और मेरी जड़ें ब्राह्मणों से जुड़ी हुई हैं. इसको लेकर तमाम दिक्कत हुई लेकिन हमने सभी को जवाब दिया.

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