
कुंभ मेले का लंबा इतिहास अनेक कहानियों और लोककथाओं से भरा हुआ है. ऐसा ही एक समय था दूसरे विश्व युद्ध का. यानी कि 1939 से 1945 के बीच का समय. इसी दरम्यान 1942 में प्रयागराज में कुंभ का आयोजन हुआ था. दुनिया युद्ध की मार झेल रही थी और भारत अपनी आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था.
तब देश गांधी जी के नेतृत्व में लड़ाई की आजादी लड़ रहा था. कुछ ही महीनों में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने वाला था. आजादी के दीवाने जगह-जगह गिरफ्तारियां दे रहे थे. इसी राजनीतिक-सामाजिक भूचाल के बीच प्रयागराज का कुंभ मेला आ गया.
युद्ध में फंसे ब्रिटिश प्रशासन ने तय किया कि इस बार मेले की कोई तैयारियां नहीं की जाएगी.
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार प्रयागराज का रिकॉर्ड ऑफिस इस बात की पुष्टि करता है कि अंग्रेजों ने मेले को लेकर कोई तैयारी नहीं की थी.
अंग्रेजों ने लोगों के बीच ये डर भी फैलाया था कि जापानी सेना पूरब के रास्ते से भारत में घुस सकती है और मेले के दौरान प्रयागराज में जबर्दस्त बमबारी कर सकती है.अंग्रेजों ने डर फैलाया कि ऐसा होने पर सैकड़ों लोग मारे जाएंगे.
1942 में प्रयागराज में कुंभ मेले की तारीख 4 जनवरी से 4 फरवरी तक तय की गई थी. श्रद्धालु मेले में न पहुंच पाएं इसलिए अंग्रेजों ने इसी अवधि के दौरान इलाहाबाद के लिए रेल टिकटों की बिक्री भी रोक दी थी.
रेलवे ने बमबारी की स्थिति में भारी क्षति से बचने के लिए लोगों को सामूहिक भीड़ से बचने की सलाह भी जारी की थी.
संगम पर श्रद्धालुओं की भीड़ को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने मेले की कोई तैयारी नहीं की थी. इसके बजाय जापान-जर्मनी के साथ युद्ध में उलझे अंग्रेजों ने धन का इस्तेमाल सैन्य खर्चे पर किया.
टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस मुद्दे पर प्रयागराज के क्षेत्रीय अभिलेखागार अधिकारी अमित अग्निहोत्री से बात की थी. इस दौरान उन्होंने कहा था, "इलाहाबाद के क्षेत्रीय अभिलेखागार (पूर्व में केंद्रीय अभिलेखागार), लखनऊ के राजकीय अभिलेखागार और यहां तक कि शहरी विभाग के पास भी तैयारियों, शाही स्नान और खर्च से संबंधित किसी भी दस्तावेज का न होना इस दृष्टिकोण का समर्थन करता है कि तत्कालीन शासन ने मेले की किसी भी तैयारी से परहेज किया था."
क्षेत्रीय अभिलेखागार अधिकारी अमित अग्निहोत्री के अनुसार, "अंग्रेजों ने अखाड़ों और तीर्थयात्रियों को इस अवधि के दौरान मेला क्षेत्र से दूर रहने के लिए मनाने के लिए हर संभव प्रयास किया, इस बहाने के साथ कि जापान किसी भी दिन देश के पूर्वी मोर्चे से आक्रमण कर सकता है, इसलिए एक तरह की युद्ध आपात स्थिति थी. अंग्रेजों ने भी कोई व्यवस्था नहीं की और मेला से संबंधित किसी भी दस्तावेज का अभाव इस सिद्धांत का समर्थन करता है."
श्रद्धालुओं को जमा होने से रोकने की कई कोशिशों के बावजूद वे नहीं रुके. मेले की तारीख आते आते हजारों-लाखों लोग जुट गये. क्षेत्रीय अभिलेखागार अधिकारी के अनुसार 'अंग्रेजों ने माघ मेले के लिए ट्रेनों से टिकटों की बिक्री,स्वीकृत बजट, खर्च और रेल और सड़क मार्ग से मेला देखने आए तीर्थयात्रियों की संख्या से संबंधित पहले के मेले के अलग-अलग रिकॉर्ड बनाए रखे थे. इस बारे में संयुक्त प्रांत आगरा और अवध के राज्यपाल और इलाहाबाद के कलेक्टर के बीच पत्राचार भी हुआ था. लेकिन 1942 में ऐसा कोई पत्राचार नहीं था."
इस आयोजन को लेकर एक थ्योरी ये है कि चूंकि 1940 के दशक में देश आंदोलनों के दौर से गुजर रहा था. इसलिए अंग्रेज नहीं चाहते थे कि इतनी बड़ी भीड़ एक साथ जमा हो. अंग्रेजों को शक था कि मेले के बहाने एक स्थान पर जमा होकर गड़बड़ी पैदा कर सकते हैं.
जब बापू पहुंचे कुंभ
1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद महात्मा गांधी ने पूरे भारत का दौरा किया. इसी दौरान 1918 में गांधी अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर कुंभ पहुंचे. बापू ने इस यात्रा की चर्चा 10 फरवरी 1921 को अयोध्या में की.
याद रखें ये वो दौर था जब देश में स्वतंत्रता की भावना उबाल मार रही थी. 1918 के कुंभ में भीड़ रोकने के लिए रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष आर डब्ल्यू गिलन ने रेलवे टिकट बिक्री पर भी रोक लगा दी थी. 12 साल बाद 1930 में जब प्रयागराज में कुंभ हुआ तो अंग्रेज सरकार सहमी थी. इसकी वजह ये थी कि गांधी के नमक आंदोलन शुरू होने की चर्चा ने अंग्रेजों को सतर्क कर दिया था.
1930 के बाद अगला कुंभ प्रयागराज में 1942 में हुआ. और ब्रिटिश सरकार ने अपनी तरफ से इस कुंभ का आयोजन ही नहीं किया.