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क्या पेरेंट्स अपने बच्चों को धार्मिक संस्था या गुरु को 'दान' कर सकते हैं, क्या इस पर रोक के लिए कानून भी है?

महाकुंभ से पहले प्रयागराज पहुंचे एक परिवार ने अपनी नाबालिग बेटी को कथित तौर पर जूना अखाड़े को दान कर दिया. पेरेंट्स का कहना है कि ये उनकी बेटी की ही मर्जी है. घटना पर चर्चा के साथ बहस भी हो रही है. क्या माता-पिता चाहें तो अपने माइनर बच्चे को किसी धार्मिक संगठन को डोनेट कर सकते हैं?

प्रयागराज में एक बच्ची का कथित तौर पर उसके अभिभावकों ने दान कर दिया. प्रयागराज में एक बच्ची का कथित तौर पर उसके अभिभावकों ने दान कर दिया.
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 10 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 5:21 PM IST

Maha Kumbh 2025 की शुरुआत के पहले से ही प्रयागराज में देशभर के अखाड़ों का जुटान शुरू हो चुका. इस बीच एक अलग-सी घटना हुई, जिसमें आगरा से आए परिवार ने अपनी 13 साल की बेटी जूना अखाड़े को डोनेट कर दी. खबरें हैं कि उसका नाम भी बदला जा चुका. ये सब कुछ कथित तौर पर बच्ची की अपनी इच्छा से हुआ. लेकिन क्या बच्चे किसी प्रॉपर्टी की तरह दिए-लिए जा सकते हैं, या इसपर रोक के लिए कुछ कानून भी हैं?

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बच्चे तो दूर, बच्चों के नाम पर जमा संपत्ति भी उनकी मर्जी या उसके बगैर दान नहीं की जा सकती. नाबालिगों के हक को प्रोटेक्ट करने के लिए पूरी दुनिया में कानून बनाए गए जो इसी तरफ इशारा करते हैं. लेकिन फिर कैसे कम उम्र में भी बच्चे धार्मिक संस्थानों से पूरी तरह जुड़ रहे हैं?

इसे समझने से पहले थोड़ा इतिहास टटोलते चलें

मध्यकाल के यूरोप में यह परंपरा खूब चली हुई थी कि गरीब परिवार अक्सर अपने बच्चों को चर्च भेज देते. उस दौर के लिहाज से देखें तो ये दोनों तरफ विन-विन सिचुएशन थी. परिवारों के पास बच्चों को पालने के लिए कोई रिसोर्स नहीं था, वहीं धार्मिक संस्थानों के पास रिसोर्स तो भरपूर थे लेकिन उन्हें चलाने के लिए लोगों की जरूरत थी. ऐसे बच्चे आकर शुरुआत से ही सब सीखते और आखिर तक चर्च की संपत्ति बनकर रह जाते थे.

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इसमें लड़के और लड़कियां दोनों ही शामिल थे. ये उनके लिए केवल पेट पालने का जरिया नहीं था, बल्कि इससे उन्हें रुतबा भी मिलता, जो और किसी हाल में मुमकिन नहीं था. हालांकि अब ईसाई समुदाय में भी 18 साल से पहले किसी को पूरी तरह से धर्म के लिए  स्वीकार नहीं किया जाता है, बल्कि शारीरिक और मानसिक तौर पर मैच्योर कैंडिडेट ही इसे अपना सकता है. 

लेकिन ये तो हुई थ्योरी की बात. असल में दुनिया के लगभग सभी देशों, और तकरीबन सभी धर्मों में नाबालिग बच्चों की एंट्री हो रही है. चूंकि ये मसला काफी नाजुक और विवादित हो जाता है इसलिए कोई सरकार इसपर सीधा हाथ डालने से बचती रही. 

कंसेंट का दिया जाता है हवाला

अक्सर ऐसी घटनाओं में यह दिखाया जाता है कि बच्चे शुरुआत से ही आध्यात्मिक सोच के थे, और खुद ही धर्म से पूरी तरह जुड़ना चाहते थे. यही बात मान भी ली जाती है. लेकिन कुंभ में हुई हालिया घटना से एक बार फिर ये बात उठी कि क्या ऐसे गंभीर मामलों में सिर्फ इतना ही तर्क काफी है? 

इस बारे में हमने दिल्ली हाई कोर्ट के सीनियर वकील मनीष भदौरिया से बात की.

वे कहते हैं- बच्चा जब तक बालिग न हो, उसके कंसेंट यानी सहमति को भी मर्जी नहीं माना जाता. मान लीजिए, कोई बच्चा इतनी सर्दी में कह दे कि उसे नहीं पहनने गर्म कपड़े. अब पेरेंट्स उसे हल्के कपड़ों में स्कूल भेज दें और कुछ अघट हो जाए, तब क्या होगा? पेरेंट्स तब ये दलील नहीं दे सकते कि हमने उसकी ही मर्जी का सम्मान किया. गर्म कपड़े न पहनना उसकी चॉइस थी, या इसपर उसका कंसेंट था. माता-पिता को ही जिम्मेदार माना जाएगा. 

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ये बात मामूली से लेकर गंभीर मामले में भी जस-की-तस लागू होती है. बच्चा अपनी मर्जी से भी कोई काम करे और गलत होने पर माता-पिता न रोकें तो उन्हें भी सजा हो सकती है. मतलब 18 से कम उम्र के बच्चे की सहमति, किसी भी तरह से सहमति नहीं. अगर पेरेंट्स ऐसा करते हैं तो बीएनएस (पहले IPC) की धारा 93 के तहत, उन्हें सात साल की सजा हो सकती है. 

फिर बच्चे कैसे धार्मिक संस्थानों को सौंपे जा रहे हैं

ऐसा करने के लिए कानूनी प्रोसेस पूरी करनी होती है. जैसे, कुंभ के मामले को ही लें तो बच्ची की उम्र 13 साल है. माता-पिता ऐसे में बच्ची को धार्मिक संस्था को गोद दे सकते हैं, न कि दान कर सकते हैं. दान तो किसी इंसान का लीगली किया ही नहीं जा सकता. अडॉप्शन के पूरे पेपर बनेंगे, जिसमें अभिभावक के तौर पर धार्मिक संस्था का नाम होगा. बच्ची की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी उनकी होगी, और उसके साथ कुछ घटना-दुर्घटना होने पर भी वही जवाब देगा. 

इसमें एक चीज है- सरेंडर ऑफ चाइल्ड

ये तब होता है जब पेरेंट्स इतने लाचार हों कि अपने बच्चे को संभाल न सकें. ये शारीरिक या मानसिक बीमारी भी हो सकती है, या कोई और मजबूरी भी. ऐसे में एक चाइल्ड वेलफेयर कमेटी बनेगी जो पूरा केस देखेगी. बच्चों और माता-पिता की काउंसलिंग होगी. इसके बाद बच्चा अनाथालय को सरेंडर कर दिया जाएगा. इसमें भी सरेंडर डीड लिखी जाएगी. यानी पूरी लिखापढ़ी के बाद ही बच्चा दिया जाएगा, वो भी इसी कंडीशन पर कि वो बेहतर हालातों में रहेगा. धार्मिक संस्थाओं को नाबालिग को सौंपते हुए अगर कानूनी पहलू न देखे गए हों तो ये अपराध है. 

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बच्चों के प्रोटेक्शन के लिए कई और नियम भी

हमारे यहां ही जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन) एक्ट, 2015 है. इसके तहत, बच्चों को जबरन धार्मिक गतिविधियों में शामिल करना या उन्हें ऐसी किसी संस्था को देना गलत है. बच्चों को धार्मिक जगहों पर भेजकर काम लिया जाए तो ये चाइल्ड लेबर के तहत भी आता है. इसके अलावा, नाबालिग संन्यास नहीं ले सकते. लेकिन धर्म का मामला काफी पेचीदा और संवेदनशील होने की वजह से ऐसे मामले दिख जाते हैं, जहां 18 साल से कम उम्र में भी बच्चे पूरी तरह धर्म से जुड़ रहे हों. 

दुनिया के बाकी देश भी बच्चों की सेफ्टी को सबसे ऊपर रखते हैं. अमेरिका और यूरोप में चाइल्ड वेलफेयर लॉ हैं, जो उनकी सुरक्षा पक्की करते हैं. वहां भी बच्चों को किसी धार्मिक गुरु को सौंपा या डोनेट नहीं किया जा सकता. इसी तरह से बौद्ध धर्म मानने वाले कई देशों में बच्चे मठों में रहते हैं लेकिन यह एजुकेशन से जुड़ा हुआ बताया जाता है. 

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