
लोकसभा चुनाव के बाद अब यूपी में 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव की बारी है. लोकसभा चुनाव नतीजों से उत्साहित समाजवादी पार्टी (सपा) और इसके प्रमुख अखिलेश यादव का ध्यान पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) के फॉर्मूले को आगे बढ़ाने पर है. वहीं, सूबे की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सामने उपचुनावों में जीत के साथ साख बचाने की चुनौती होगी. इन उपचुनावों में दलित मतदाता की फैक्टर साबित हो सकते हैं. बीजेपी और सपा, दोनों ही दल दलित मतदाताओं को अपने पाले में करने की कोशिश में जुटे हैं तो वहीं उपचुनावों से दूरी बनाए रखने वाली मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भी इस बार उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है.
10 सीटों पर होने हैं उपचुनाव
यूपी की 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं. इनमें कन्नौज से सांसद निर्वाचित होने के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव के इस्तीफे से रिक्त हुई मैनपुरी जिले की करहल और फैजाबाद के सांसद अवधेश प्रसाद के इस्तीफे से रिक्त हुई मिल्कीपुर के साथ ही कटेहरी, कुंदरकी, गाजियाबाद, खैर विधानसभा सीट भी शामिल हैं. फूलपुर, मीरापुर, मझवा और सीसामऊ विधानसभा सीट के लिए भी उपचुनाव होने हैं. जिन 10 सीटों पर उपचुनाव होने हैं, उनमें से पांच सीटों पर 2022 के चुनाव में सपा के उम्मीदवार जीते थे. बीजेपी के पास तीन, निषाद पार्टी के पास एक और जयंत चौधरी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय लोक दल के पास एक सीट थी.
इन सीटों पर क्या होंगे मुद्दे?
विकास और स्थानीय समस्याओं के साथ ही उपचुनावों में संविधान और आरक्षण का मुद्दा भी छाए रहने की संभावना है. लोकसभा चुनाव में 2019 की 62 सीटों के मुकाबले पार्टी के 29 सीटों के नुकसान के साथ 33 पर आने के पीछे बीजेपी के नेता भी संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर विपक्ष की ओर से गढ़े गए नैरेटिव को मुख्य वजह मान रहे हैं. चुनाव नतीजों की समीक्षा करने लखनऊ पहुंचे संगठन महासचिव बीएल संतोष के साथ मीटिंग में भी दलित और ओबीसी वर्ग से आने वाले नेताओं ने ये मुद्दा उठाया.
बीजेपी नेताओं ने बीएल संतोष को ये बताया कि आउटसोर्सिंग में आरक्षण का न होना लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार के पीछे बड़ी वजह है. दलित समाज इसे आरक्षण खत्म किए जाने की दिशा में पहला कदम मान बैठा है. विपक्ष संविधान को लेकर भी बीजेपी के खिलाफ नैरेटिव सेट करने में सफल रहा, पार्टी के नेता ये भी मान रहे हैं. बीजेपी के सामने संविधान और आरक्षण के मोर्चे पर विपक्ष के नैरेटिव से निपटने की चुनौती भी होगी.
उपचुनाव वाली सीटों पर क्या है जातीय गणित
जिन सीटों पर उपचुनाव होने हैं, उनके जातीय गणित में भी विविधता है. मिल्कीपुर जहां दलित बाहुल्य सीट है जहां से सपा के टिकट पर अवधेश प्रसाद नौ बार विधायक रहे हैं. वहीं, मैनपुरी जिले के करहल विधानसभा क्षेत्र में यादव आबादी की बहुलता है. गाजियाबाद की सीट शहरी है और इसे बीजेपी के लिए अपेक्षाकृत आसान बताया जा रहा है. फूलपुर में पटेल मतदाता अधिक हैं तो वहीं मुजफ्फरनगर के मीरापुर विधानसभा क्षेत्र में जाट-गुर्जर के साथ मुस्लिम मतदाता नतीजे तय करते हैं.
योगी को दिखाना होगा दम
यूपी में बीजेपी की सीटें कम होने को लेकर उंगलियां सीएम योगी आदित्यनाथ की ओर भी उठीं. योगी सरकार के कामकाज के तरीके पर सवाल उठे तो ये भी कहा गया कि ब्रांड योगी की वैल्यू कम हुई है. हालांकि, लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार चयन में सीएम योगी की सीधी भूमिका नहीं थी. सीएम योगी के पास उपचुनाव में अपनी सीटें बचाए रखने हुए विपक्ष की जीती सीट हासिल कर यह साबित करने का मौका है कि यूपी के जनमन पर उनकी छाप मद्धम नहीं पड़ी है. उपचुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन अगर कमजोर रहा तो पार्टी के भीतर विरोध के स्वर और तेज हो सकते हैं, सीएम योगी को भी इस बात का अंदाजा होगा.
किसकी ओर होगा दलित मतदाताओं का रुख?
यूपी में दलित वर्ग मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का कोर वोटर माना जाता रहा है. सूबे में करीब 20 फीसदी आबादी दलित वर्ग की है और बसपा का वोट शेयर भी 19 फीसदी के आसपास रहता रहा है. लेकिन हाल के कुछ वर्षों में, कुछ चुनावों में तस्वीर बदली है. हाल के लोकसभा चुनाव की ही बात करें तो बसपा का वोट शेयर 19 फीसदी से गिरकर 10 फीसदी से भी नीचे चला गया. बसपा को लोकसभा चुनाव में नौ फीसदी वोट मिले थे और पार्टी वोट शेयर के लिहाज से कांग्रेस के भी पीछे रही. बसपा का खाता भी नहीं खुला था.
इसके उलट, आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद नगीना सीट से जीतकर संसद पहुंचने में सफल रहे. अब कहा यह जा रहा है कि दलितों का मोह मायावती की पार्टी से भंग हुआ है. नगीना में जहां दलित नेतृत्व का विकल्प था, दलित मतदाताओं ने वहां उसे चुना और बाकी जगह भी मायावती से छिटका यह वोटबैंक सपा और बीजेपी में बंट गया. बीजेपी के नेताओं ने खुद समीक्षा बैठक में यह कहा कि दलितों ने पार्टी को वोट करने से परहेज किया. ऐसे में देखना होगा कि दलित मतदाताओं का रुख उपचुनाव में किधर रहता है.
क्या हिंदुत्व-राष्ट्रवाद के मुद्दे पर लौटेगी बीजेपी?
लोकसभा चुनाव से पहले पहले बीजेपी सबका साथ, सबका विकास के साथ सबका विश्वास की बात करती थी. चुनाव नतीजों के बाद पार्टी के नेताओं के बयानों से सबका विश्वास नदारद नजर आ रहा है. राम मंदिर और अयोध्या के जिक्र से भी पार्टी के नेता परहेज कर रहे हैं. ऐसे में सवाल है कि क्या उपचुनाव में पार्टी फिर से हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के अपने कोर मुद्दे पर लौटेगी? वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर श्रीराम त्रिपाठी ने कहा कि उपचुनाव में वैसे भी सत्ताधारी दल को एज रहता है. ये उपचुनाव प्रदेश से जुड़े हैं जहां सरकार की कमान पहले से ही हिंदुत्व के पोस्टर बॉय योगी आदित्यनाथ के हाथ में है. हिंदुत्व और राष्ट्रवाद भी बीजेपी की चुनावी रणनीति का हिस्सा होंगे लेकिन पार्टी का जोर संविधान और आरक्षण को लेकर विपक्ष के नैरेटिव की काट करने पर अधिक होगा.
मिल्कीपुर बनेगा अयोध्या की हार का बदलापुर?
मिल्कीपुर विधानसभा सीट अवधेश प्रसाद पासी के इस्तीफे से रिक्त हुई है. अवधेश प्रसाद फैजाबाद सीट से संसद पहुंच चुके हैं और इसी सीट में अयोध्या भी है. बीजेपी के पास उपचुनाव में मिल्कीपुर सीट जीतकर लोकसभा चुनाव में फैजाबाद सीट पर मिली हार का बदला लेने का भी मौका होगा. यूपी में दूसरे नंबर पर पहुंचने से ज्यादा बीजेपी को अयोध्या की हार साल रही है. ऐसे में माना जा रहा है कि बीजेपी की कोशिश मिल्कीपुर उपचुनाव जीतकर लोकसभा चुनाव में अयोध्या की हार के जख्म पर मरहम लगाने की होगी. मिल्कीपुर उपचुनाव में नौ बार विधायक रह चुके अवधेश पासी के बेटे अजित प्रसाद के सपा से चुनाव मैदान में उतरने की अटकलें हैं.
उपचुनावों में कांग्रेस के लिए क्या?
यूपी की 10 सीटों का उपचुनाव कांग्रेस के नजरिए से भी अहम है. उपचुनावों को सपा-कांग्रेस गठबंधन के भविष्य के लिहाज से भी अहम माना जा रहा है. कांग्रेस के किसी सीट से उम्मीदवार उतारने की संभावनाएं कम ही हैं लेकिन माना जा रहा है कि पार्टी की कोशिश होगी कि उपचुनावों के बहाने 'यूपी के दो लड़कों की जोड़ी' और मजबूत हो, इंडिया ब्लॉक के वोट बेस का और विस्तार हो. 2019 के लोकसभा चुनाव में महज एक सीट ही जीत सकी कांग्रेस हाल के चुनाव में छह सीटें जीतकर उत्साह से लबरेज है.