
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस हर साल 8 मार्च को मनाया जाता है. हर साल आज तक ग्राउंड जीरो से ऐसी महिलाओं की कहानियां लाता है जो कि पर्दे के पीछे चुपचाप क्रांति लाती हैं. आज की कहानी की नायिका हैं 'टुम्पा दास'. टुम्पा पश्चिम बंगाल की पहली महिला डोम हैं.
पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना के बारुईपुर स्थित पुरंदरपुर श्मशान घाट में शवों का अंतिम संस्कार करने की जिम्मेदारी महिला डोम टुम्पा निभा रही हैं. आमतौर पर श्मशान घाट पर पुरुष डोम होते हैं जो कार्यों को पूरा करते हैं. क्योंकि श्मशान घाट पर जो कार्य करने होते हैं उसे करने के लिए केवल शारीरिक बल की जरूरत नहीं, बल्कि मानसिक रूप से मजबूत होना होता है.
पिता के मौत के बाद टुम्पा ने संभाली जिम्मेदारी
टुम्पा दास पिता की आकस्मिक मौत के बाद परिवार को आर्थिक सुरक्षा देने के लिए श्मशान घाट पर काम करने लगीं. टुम्पा अभी 29 साल की हैं, जो 2014 में इस पेशे में आईं. परिवार के आर्थिक हालात को देखते हुए टुम्पा ने 10वीं कक्षा के बाद पढ़ाई को छोड़ दिया और नर्सिंग का प्रशिक्षण लिया.
इसके बाद टुम्पा ने बारुईपुर में ही एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में नौकरी शुरू कर दी. हालांकि, स्वास्थ्य केंद्र से मिल रही तनख्वाह से परिवार का गुजारा मुश्किल से हो पा रहा था.
परिवार की जरूरत को देखते हुए टुम्पा ने एक दिन फैसला लिया कि वह स्वास्थ्य केंद्र की नौकरी छोड़ पिता के काम में जुटेंगी. फिर क्या, परिवार और समाज के विरोध करने के बावजूद टुम्पा पीछे नहीं हटी. टुम्पा के दृढ़ इच्छाशक्ति के आगे कोई टिक नहीं सका.
श्मशान घाट में अकेली महिला कर्मचारी
टुम्पा ना केवल पुरंदरपुर श्मशान घाट में काम करने वाली एकलौती महिला हैं. बल्कि, पूरे पश्चिम बंगाल की पहली महिला डोम भी है. देश की पहली डोम 76 साल की यमुना देवी थीं. जो वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर काम करती थीं.
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श्मशान घाट में क्या परेशानियां होती हैं?
जब आज तक संवाददाता सौमिता चौधरी ने टुम्पा से पूछा कि श्मशान घाट पर काम करने के दौरान क्या परेशानियां आती हैं तो वो बताती हैं, 'शुरुआती दिनों में लकड़ी के चिता पर शवों का अंतिम संस्कार को करना पड़ता था, जो मानसिक और शारीरिक दोनों तौर से चुनौतीपूर्ण था. लेकिन 2019 में मॉर्डनाइजेशन हुआ और श्मशान को इलेक्ट्रिक फर्नेस में बदल दिया गया. अब मैं सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक लगातार 12 घंटा अकेले ही काम करती हूं'.
टुम्पा ने आगे यह भी बताया कि उनका काम केवल शवों का जलाने का ही नहीं. बल्कि मृतकों का दस्तावेज तैयार करना, अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पूरा करना और परिवार को अस्थियां सौंपना. कुछ मामलों में मैं तो अब मृत लोगों की तुलना में जीवित लोगों से अधिक डरती हूं.
श्मशान घाट में कितनी तनख्वाह मिलती है?
टुम्पा ने निराश चेहरे के साथ बताया कि उन्हें श्मशान घाट पर काम करने के लिए महीने में 5000 रुपये दिए जाते हैं. जब उनसे पूछा गया कि क्या इतनी कम तनख्वाह में परिवार का खर्चा चल जाता है, तो उन्होंने कहा कि मृतक के परिवार कभी-कभी कुछ एक्स्ट्रा पैसे दे देते हैं. जिससे किसी तरह से गुजारा चल जाता है.
शादी का प्रस्ताव आते ही रिश्तेदार पीछे हट जाते हैं
टुम्पा 29 साल की हो गई हैं और उनकी अब तक शादी नहीं हुई. उनसे पूछा गया कि अब तक शादी क्यों नहीं की? तो टुम्पा ने बताया कि शादी का प्रस्ताव कोई स्वीकार ही नहीं करता. क्योंकि वह श्मशान घाट पर काम करती हैं. एक परिवार शादी का प्रस्ताव लेकर आया था, लेकिन जब उसे पता चला कि लड़की श्मशान घाट पर काम करती है तो वे तुरंत वापस लौट गए.
टुम्पा लंबी सांस भरते हुए पूरे आत्मविश्वास के साथ बोलती हैं, 'मुझे अपनी पहचान से प्यार है. अगर शादी की वजह से मेरा काम छूटता है तो मैं कभी शादी नहीं करूंगी.'
टुम्पा दास की यह जिद और हिम्मत उन्हें एक मिसाल बनाती है. जो समाज के उन स्टीरियोटाइप्स को तोड़ती हो, जो सोचते हैं कि ये काम महिलाओं के लिए नहीं बना. टुम्पा ने यह साबित कर दिया कि दृढ़ संकल्प और मेहनत से कोई भी काम असंभव नहीं होता
रिपोर्ट: सौमिता चौधरी