प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सप्ताह जब आसियान सम्मेलन के लिए बैंकॉक पहुंचे थे तो उम्मीद जताई जा रही थी कि इस बार भारत क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक समझौता (आरसीईपी) में शामिल हो जाएगा. हालांकि, देश के भीतर जारी विरोध-प्रदर्शनों के बीच पीएम मोदी ने समझौते से बाहर होने का ऐलान कर दिया.
आरसीईपी एक मुक्त व्यापार समझौता है जिस पर 10 आसियान देशों (ब्रुनेई, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, विएतनाम) और 5 अन्य देशों (ऑस्ट्रेलिया, चीन, जापान, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया) ने सहमति दे दी है. इस समझौते में शामिल देश एक-दूसरे को व्यापार में टैक्स में कटौती समेत तमाम आर्थिक छूट देंगे. कहा जा रहा था कि आरसीईपी में शामिल होने के बाद भारत को चीन समेत अन्य मजबूत उत्पादक देशों के लिए अपना बाजार खोलने के लिए बाध्य होना पड़ता जिससे देश का व्यापार घाटा बहुत बढ़ सकता था.आरसीईपी से भारत के हटने के बाद ऑस्ट्रेलिया, जापान, न्यू जीलैंड समेत चीन को बड़ा झटका लगा है क्योंकि वे भारत जैसे बड़े बाजार का लाभ उठाने से चूक गए.
कई विश्लेषक भारत के इस फैसले को वर्तमान परिस्थितियों में सही ठहरा रहे हैं लेकिन इसके साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था व विदेश नीति के लिए कुछ मुश्किल सवाल भी खड़े होने लगे हैं. आरसीईपी को दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक समझौता कहा जा रहा है और यह आने वाले समय में एशिया के भविष्य को तय करने में अहम भूमिका निभाएगा. भारत अभी तक अमेरिका की अगुवाई वाले ट्रांस-पैसेफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) में भी शामिल नहीं हुआ है.
प्रधानमंत्री मोदी शुरुआत से ही ऐक्ट ईस्ट पॉलिसी पर जोर देते रहे हैं लेकिन आरसीईपी से अलग-थलग पड़ने के बाद क्षेत्र के व्यापार में चीन का दबदबा हो जाएगा. अगर भारत भी इस समझौते में शामिल होता तो इसमें दुनिया की एक-तिहाई जीडीपी आ जाती.
दूसरी तरफ, भारत की व्यापार और घरेलू आर्थिक सुधारों को लेकर प्रतिबद्धता को लेकर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. विश्लेषकों का कहना है कि वैश्वीकरण के दौर में आप लंबे समय तक प्रतिस्पर्धा से डरकर भाग नहीं सकते हैं.
स्वीडन में उपासला यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल स्टडीज के निदेशक और एसोसिएट प्रोफेसर अशोक स्वैन ने भी भारत के इस कदम को लेकर ट्विटर पर अपनी चिंता जाहिर की है. उन्होंने एक ट्वीट में लिखा, "भारत की गैर-मौजूदगी में अब चीन दुनिया के सबसे बड़े व्यापारिक समझौते का नेतृत्व करेगा. पीएम मोदी ने भारत को इस क्षेत्र में और दुनिया में अकेला कर दिया है."
उन्होंने आगे लिखा, भारत आरसीईपी से इस डर से बाहर निकल गया क्योंकि भारत के मैन्युफैक्चरर चीन के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं. तो फिर भारत को चीन को चुनौती देने की बात भूल ही जानी चाहिए. उन्होंने ट्वीट में लिखा कि अगर भारत धरती पर सबसे समृद्ध और ताकतवर देश बनना चाहता है तो प्रतिस्पर्धा से कैसे डर सकता है.
भारतीय अधिकारियों का कहना है कि आरसीईपी की शर्तें भारत के पक्ष में नहीं थीं. अगर भारत इस समझौते में शामिल होता तो भारतीय बाजार के इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे सेक्टर में चीनी वस्तुओं की बाढ़ आ जाती. सूत्रों के मुताबिक, भारत ने सॉफ्टवेयर आउटसोर्सिंग सेक्टर में वर्क वीजा जैसे तमाम क्षेत्रों में अपनी बात मनवाने में नाकाम रहा.
भारत के इस कदम के पीछे बड़ी वजह आसियान व चीन के साथ भारी-भरकम व्यापार घाटा है यानी भारत इन देशों को अपना सामान बेचता कम है जबकि इनसे आयात ज्यादा करता है. 2018 में भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा 58 अरब डॉलर था. अगर भारत
आरसीईपी में शामिल हो जाता तो यह व्यापार घाटा और बढ़ जाता. अब जब आरसीईपी
पर एशिया के बाकी 15 देश आगे बढ़ चुके हैं, भारत के लिए अपने घरेलू बाजार
को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए सुधार लागू करने की चुनौती आ गई है. भारत
लंबे वक्त से वैश्विक उत्पादन का पावरहाउस बनने की भी बात करता रहा है. अगर
भारत आरसीईपी पर हस्ताक्षर करता तो भारत के लिए निर्यात करना आसान हो
जाता.
कई सालों की चर्चा के बाद भारत आरसीईपी में कृषि जैसे क्षेत्रों में कुछ रियायत हासिल करने में कामयाब रहा था और पिछले कुछ महीनों में ऐसा लग रहा था कि मोदी सरकार आरसीईपी पर भारत के आर्थिक और भू-राजनीतिक हितों को देखते हुए सहमति देने के लिए तैयार है. हालांकि, तभी घरेलू दबाव बनने लगा और तमाम किसान-व्यापारिक संगठन इसके विरोध में उतर आए. कांग्रेस पार्टी ने भी आरसीईपी को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए झटका बताते हुए कहा कि इससे भारत में दूसरे देशों का सस्ता सामान भर जाएगा और लाखों लोगों अपने रोजगार से हाथ धो बैठेंगे.
हालांकि, भारत को आरसीईपी से अलग होने के आर्थिक से ज्यादा भू-राजनीतिक नुकसान झेलने पड़ेंगे. दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के ब्लॉक ने भारत को आरसीईपी में शामिल करने के लिए बड़े धैर्य के साथ लंबा इंतजार किया लेकिन भारत के फैसले के बाद आसियान देशों का भारत पर भरोसा कमजोर पड़ेगा. भारत नहीं चाहता था कि चीन एक और व्यापारिक क्षेत्र में अपना दबदबा कायम कर ले.
भारत एशिया में नेतृत्व की भूमिका में आना चाहती है लेकिन दूसरी तरफ, भारत को इस क्षेत्र के सबसे बड़े संगठन से बाहर होना पड़ा. जाहिर तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था में चीनी प्रभुत्व का डर जायज है लेकिन ऐसे बड़े मंचों पर ऐसी दलीलें बहुत मायने नहीं रखती हैं. आरसीईपी से बाहर रहने के बाद अब देश में कर व श्रम सुधार और मैन्युफैक्चरिंग में सुधार की सख्त जरूरत बताई जा रही है.
कई विश्लेषकों का ये भी कहना है कि मोदी का फैसला दूसरे देशों पर दबाव बनाकर ज्यादा बढ़िया डील करने का एक तरीका भी हो सकता है. आरसीईपी के सदस्य देश फिर से इकठ्ठा होकर भारत को नए प्रस्ताव और छूट दे सकते हैं ताकि भारत अगले वर्ष तक इसमें शामिल हो जाए. फिलहाल, आरसीईपी भारत के बिना आगे बढ़ेगा जो भारत की आर्थिक और रणनीतिक नेतृत्व की महत्वाकांक्षाओं के लिए बड़े झटके की तरह है.