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नेपाल जिसे अपने लिए मानता है शर्मनाक, भारत को उसी का दे रहा हवाला

aajtak.in
  • 28 मई 2020,
  • अपडेटेड 10:10 AM IST
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कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा पर अपना दावा पेश करने के लिए नेपाल जिस सुगौली संधि का बार-बार जिक्र करता है, वही उसके इतिहास का सबसे दुखद और शर्मनाक मोड़ रहा है. ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ हुए युद्ध में बुरी हार के बाद नेपाल ने 1816 में सुगौली की संधि की थी.

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सुगौली संधि पर कंपनी की तरफ से पैरिश ब्रैडशॉ और नेपाल की तरफ से राजगुरु गजराज ने हस्ताक्षर किए थे. इसी संधि में महाकाली नदी को आधार बनाकर ब्रिटिश भारत और नेपाल की सीमारेखा तय की गई थी. नेपाल का दावा है कि विवादित क्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र से गुजरने वाली जलधारा ही वास्तविक नदी है, इसलिए कालापानी नेपाल के इलाके में आता है. वहीं, भारत नदी का अलग उद्गम स्थल बताता है.

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नेपाल बार-बार सुगौली संधि का जिक्र करता है लेकिन इस संधि ने ना केवल नेपाल का भूगोल बदलकर रख दिया बल्कि उसकी विदेश नीति और भविष्य को भी निर्धारित करने में भी अहम भूमिका निभाई. ये नेपाल के साम्राज्य की शान को खत्म करने वाली संधि थी.

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नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावली ने 'द हिंदू' को दिए एक इंटरव्यू में कहा है, "नेपाल के ब्रिटिश भारत से युद्ध हारने के बाद सुगौली संधि अस्तित्व में आई थी. नेपालियों के लिए इस संधि को बार-बार याद करना कोई गर्व का विषय नहीं है क्योंकि नेपाल ने इसमें अपना एक-तिहाई हिस्सा गंवा दिया था. हालांकि, इस बात को नहीं नकारा जा सकता है कि इसी संधि से ही दोनों देशों के बीच सीमा रेखा तय हुई. 1981 में दोनों देशों की सर्वे टीमों ने ऐतिहासिक संधियों, मानचित्रों और दस्तावेजों को ही आधार बनाकर ही अंतरराष्ट्रीय सीमा का नक्शा तैयार किया. सुगौली संधि और 1860 के समझौते के अलावा, नेपाल और भारत के बीच सीमारेखा तय करने वाला और कोई भी दस्तावेज नहीं है. अगर हम ऐतिहासिक दस्तावेजों को नकारने लगेंगे तो फिर कहां जाएंगे?"

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अंग्रेजों और नेपाल के बीच 1814 में युद्ध शुरू हुआ था. जब नेपाल और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच शांतिपूर्वक कोई समझौता नहीं हो सका तो युद्ध छिड़ गया. यह युद्ध करीब दो साल तक चला जिसमें ब्रिटेन की औपनिवेशिक ताकत के सामने नेपाल को भारी नुकसान पहुंचा. नेपाल कुछ हद तक अपनी स्वतंत्रता बचाए रखने में तो कामयाब रहा लेकिन उसे अपना बहुत बड़ा भूखंड ब्रिटिश भारत के हाथों गंवाना पड़ा.

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1816 में सुगौली संधि के अस्तित्व में आने से पहले नेपाल किंगडम का विस्तार पश्चिम में सतलज से लेकर पूरब में तीस्ता नदी तक था. नेपाल के शासक पूर्व में सिक्किम किंगडम और पश्चिम में कुमाऊं और गढ़वाल इलाका (वर्तमान उत्तराखंड) युद्ध में जीत चुके थे. हालांकि, सुगौली संधि के तहत, नेपाल को ये सारे इलाके ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपने पड़े.

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1857 के विद्रोह को दबाने में जब नेपाल के जंगबहादुर राणा ने अंग्रेजों की मदद की तो उन्हें इनाम के तौर पर नेपालगंज और कपिलवस्तु वापस मिल गए. लेकिन ब्रिटिश भारत ने गढ़वाल और कुमाऊं का कोई भी इलाका वापस नहीं किया था.

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नेपाल के एक एनजीओ ने 2019 में एक सिग्नेचर कैंपेन चलाकर दार्जिलिंग और वर्तमान उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र को लौटाने की मांग भी की थी. हालांकि, सुगौली संधि में ये बात भी थी कि नेपाल इन इलाकों पर कभी अपना दावा पेश नहीं कर सकता है. भारत की आजादी के बाद भी नेपाल के राणा शासक और नेपाली राजाओं ने इन इलाकों को लेकर कभी कोई दावा नहीं किया.

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नेपाल और ईस्ट इंडिया कंपनी में क्यों युद्ध हुआ था?
नेपाल उस वक्त हिमालय के दक्षिणी भाग में अपने साम्राज्य का तेजी से विस्तार करने में लगा हुआ था. अंग्रेजों ने नेपाल की विस्तारवादी नीति को एक गंभीर खतरे के तौर पर लिया. नेपाल उन सीमाई इलाकों के करीब पहुंच रहा था जो ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में थे. पहले तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने नेपाल में व्यापारिक अधिकार पाने और वहां अपनी स्थिति मजबूत करने की कई कोशिशें की लेकिन असफल रही. नतीजतन, ईस्ट इंडिया कंपनी ने नेपाल के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.
 

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नेपाल के शासक भीमसेन थापा के पास कई भारतीय राज्यों के ब्रिटेन के नियंत्रण में पड़ने का उदाहरण सामने था इसलिए उसके इरादों को लेकर सजग थे. कंपनी के इरादों से वाकिफ होने के बावजूद भीमसेन के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे. नेपाल दरबार में भी इसे लेकर मतभेद थे कि ब्रिटेन की एकतरफा शर्तों पर दोस्ती स्वीकार की जाए या युद्ध का रास्ता चुना जाए. भीमसेन थापा ने दलील दी कि युद्ध के लिए यही सही वक्त है क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में आंतरिक संघर्ष और यूरोप में युद्ध में व्यस्त है. भीमसेन की दलील मानते हुए नेपाल ने आखिरकार युद्ध करने का फैसला किया.

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नेपाल जानता था कि ईस्ट इंडिया कंपनी उसके मुकाबले बहुत मजबूत है और इसलिए उसने पड़ोसी देशों से मदद मांगी. नेपाल ने चीन के शासक से भी मदद मांगी लेकिन चीन ने ब्रिटेन-नेपाल के युद्ध में शामिल होने से इनकार कर दिया. भारत के मराठा और सिख राजाओं से भी ब्रिटेन के खिलाफ नेपाल ने मदद मांगी लेकिन यहां से भी निराशा हाथ लगी. नेपाल ने युद्ध टालने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी को एक बार फिर अपनी शर्तों पर दोस्ती का प्रस्ताव रखा लेकिन कंपनी ने स्वीकार नहीं किया. आखिरकार, ईस्ट इंडिया कंपनी ने 2 नवंबर 1814 को नेपाल के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.

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ब्रिटिश सेना के खिलाफ नेपाल के सैनिकों ने बहुत बहादुरी से लड़ाई लड़ी लेकिन ये युद्ध वह आत्मरक्षा के लिए ही कर रहा था. कुछ मोर्चों पर जीत के अलावा वह अंग्रेजों से बुरी तरह युद्ध हार गया और शांति समझौते के लिए मजबूर हो गया. राजमहल की तरफ से गजराज मिश्रा और चंद्रशेखर को ईस्ट इंडिया कंपनी से शांति समझौते के लिए भेजा गया. ईस्ट इंडिया कंपनी ने नेपाल से युद्ध के भारी-भरकम हर्जाने की मांग की. इस तरह से, सुगौली संधि के बाद ब्रिटिश भारत का नेपाल के बड़े भूभाग पर अधिकार हो गया था.

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