साल 1949, भारत में एक फिल्म रिलीज हुई थी, पतंगा. इस फिल्म में शमशाद बेगम का गाया हुआ एक गीत बेहद लोकप्रिय हुआ, 'मेरे पिया गए रंगून किया है वहां से टेलीफून, तुम्हारी याद सताती है...'
दरअसल, रंगून उसी देश म्यांमार (बर्मा) की राजधानी हुआ करती थी जो इन दिनों एक बार फिर से दुनियाभर में अपने राजनीतिक उथल-पुथल के लिए चर्चा में है. इस देश का औपचारिक नाम अब भले ही म्यांमार हो चुका है लेकिन इसका पुराना नाम बर्मा है. इसकी राजधानी का नाम भी बदलता रहा जो कभी रंगून तो कभी यंगून रहा. अब इसकी राजधानी नायपिटा है.
हाल ही में म्यांमार की सेना ने देश की सर्वोच्च नेता आंग सान सू की समेत सत्ताधारी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के तमाम नेताओं को गिरफ्तार कर सत्ता अपने हाथ में ले ली है. तख्तापलट के बाद नेता आंग सान सू के खिलाफ पुलिस ने आरोप तय किए हैं. इस घटना के बाद से ही दुनियाभर में म्यांमार को लेकर चर्चा जोर है. इसी बीच आइए जानते हैं कि एक ही देश के दो नाम म्यांमार और बर्मा क्यों रहे... (All Photos: PTI)
दरअसल, यहां की बर्मन जातीय समूह की वजह से इस देश को बर्मा कहा जाता था. सत्तारूढ़ जुंटा द्वारा लोकतंत्र समर्थक विद्रोह को कुचलने के एक साल बाद 1989 में सैन्य नेताओं ने देश का नाम अचानक बदलकर म्यांमार कर दिया गया. सैन्य नेताओं को लगा कि देश की छवि बदलने की जरूरत है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता हासिल करने की उम्मीद में नाम बदल दिया. तब सैन्य शासन ने कहा था कि देश गुलामी के दिनों को भूलना चाहता है. जातीय एकता को बढ़ावा देना चाहता है.
देश का नाम भले ही बदल दिया गया लेकिन दुनिया के अधिकांश देशों ने नए नाम का उपयोग करने से इनकार किया और जुंटा का विरोध किया. हालांकि धीरे-धीरे इस नए नाम का इस्तेमाल शुरू किया गया और यह प्रचलन में आ गया. दमन कम हुआ और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध कम हुआ तो म्यांमार शब्द प्रचलन में आ गया.
म्यांमार को लेकर अमेरिका के रुख में नरमी बहुत बाद में आई. 2012 में इस देश की यात्रा पर तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बर्मा और म्यांमार दोनों नामों का इस्तेमाल किया. लेकिन अमेरिकी सरकार अब भी औपचारिक तौर पर इस देश का नाम बर्मा ही लिखती है.
मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने बयान में बर्मा नाम की ही उल्लेख किया. उन्होंने कहा कि अमेरिका ने लोकतंत्र की दिशा में प्रगति के आधार पर पिछले एक दशक में बर्मा पर प्रतिबंध हटा दिए थे लेकिन अब उन प्रतिबंधों का तत्काल रिव्यू करना जरूरी होगा.
म्यांमार में एक लंबे समय तक आर्मी का राज रहा है. साल 1962 से लेकर साल 2011 तक देश में 'मिलिट्री जनता' की तानाशाही रही है. साल 2010 में म्यांमार में आम चुनाव हुए और 2011 में म्यांमार में नागरिक सरकार बनी. जिसमें जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों को राज करने का मौका मिला. नागरिक सरकार बनने के बाद भी असली ताकत हमेशा सेना के पास ही रही.
म्यांमार में लोकतंत्र के लिए लड़ाई को लेकर नोबल पुरस्कार जीतने वाली सू की की पार्टी ने पिछले साल नवंबर के चुनावों में संसद की 476 सीटों में से 396 सीटों पर कब्जा किया, लेकिन सेना के पास 2008 के सैन्य-मसौदा संविधान के तहत कुल सीटों का 25% है और कई प्रमुख मंत्री पद भी सेना के लिए आरक्षित रहा. सेना का आरोप है कि चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली हुई थी.