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श्रीलंका ने चीन के हवाले की संप्रभुता? लोग कर रहे जमकर विरोध

aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 17 अप्रैल 2021,
  • अपडेटेड 12:13 PM IST
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श्रीलंका में चीन के खिलाफ बगावत शुरू हो गई है. श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में चीन द्वारा पोर्ट सिटी बनाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दर्जनों याचिकाएं दायर की गई हैं. श्रीलंका के विपक्षी दल, सिविल सोसायटी और मजदूर संघ, चीन समर्थित परियोजना को चुनौती देने कोर्ट पहुंच गए हैं. अदालत में सोमवार को इन मामलों की सुनवाई होनी है.
 

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दरअसल, श्रीलंका की राजपक्षे सरकार ने पिछले सप्ताह संसद में 'कोलंबो पोर्ट सिटी इकोनॉमिक कमीशन' नाम से एक बिल पेश किया है. इसमें कोलंबो के समुद्री तट के किनारे 1.4 अरब डॉलर की लागत से 'पोर्ट सिटी' बसाने का प्रस्ताव है. श्रीलंका के लोगों का कहना है कि इस बिल में चीन को पोर्ट सिटी बसाने को लेकर असीमित शक्तियां दी गई हैं जिससे देश की संप्रभुता का उल्लंघन होता है. 

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हालांकि, श्रीलंका की विपक्षी पार्टी यूनाइटेड पीपल्स फ्रंट (एसजेबी), जनता विमुक्ति पेरमूना (जेवीपी), यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी), कोलंबो के एनजीओ सेंटर फॉर पॉलिसी अल्टरनेटिव्स और श्रमिक संगठनों ने पोर्ट सिटी की संवैधानिक वैधता पर सवाल खड़े करते हुए इस बिल को कोर्ट में चुनौती दी है. वहीं, श्रीलंका की सरकार इसे विदेशी निवेश का जरिया बता रही है.
 

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एसजेबी के सांसद हर्षा दि सिल्वा ने 'द हिंदू' से कहा कि हमारी पार्टी पोर्ट सिटी प्रोजेक्ट को कामयाब होते देखना चाहती है ताकि देश में निवेश और आधुनिक तकनीक आए लेकिन ये सब संवैधानिक दायरे में होना चाहिए. इस तरह की लंबी अवधि की परियोजना की सफलता के लिए जरूरी है कि ये श्रीलंका के संविधान के अनुरूप हो. इसमें विसंगतियां नहीं होनी चाहिए...हमने कई अनुच्छेद देखे हैं जो हमारे देश के संविधान के अनुरूप नहीं हैं.
 

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एसजेबी के लीगल सेक्रेटरी और वरिष्ठ वकील तीसथ विजयगुणावर्धने ने कहा, इस बिल के तहत, पोर्ट सिटी में रजिस्ट्रेशन, लाइसेंसिंग और ऑथराइजेशन के संबंध में एक कमीशन गठित करने की बात कही गई है. इस कमीशन में प्रांतीय अधिकारियों के अलावा विदेशियों की एक टीम भी होगी जो राष्ट्रपति के अलावा किसी और के प्रति जवाबदेह नहीं होगी. ये उपबंध इसलिए शामिल किया गया है ताकि पोर्ट सिटी को कथित रूप से बेहतर तरीके से चलाया जा सके.
 

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उन्होंने बताया, "इस अनुच्छेद में कहा गया है कि पोर्ट सिटी में श्रीलंका की मुद्रा में निवेश नहीं किया जा सकेगा जिससे श्रीलंका के अधिकतर लोग इससे बाहर ही रहेंगे... यानी कोलंबो के भीतर ही अपने ही लोगों के लिए एक शहर के दरवाजे बंद कर दिए गए हैं. सरकार का दावा है कि ये 'एक देश और एक कानून' की अवधारणा के अनुरूप है लेकिन बिल में पोर्ट सिटी को खास नियमों के साथ एक अलग देश की तरह चलाने की व्यवस्था कर दी गई है."

इस प्रोजेक्ट को राष्ट्रीय महत्व का बताते हुए यूएनपी ने कहा कि ये बिल सरकारी खर्च पर संसद के नियंत्रण को खत्म करता है. इस बिल में पारदर्शिता और जवाबदेही पूरी तरह से गायब है. इसमें शक्तियों के दुरुपयोग की खुली छूट दी गई है.

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पोर्ट सिटी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षी परियोजना है. सितंबर 2014 में जिनपिंग के श्रीलंका दौरे में इस परियोजना की घोषणा की गई थी. तब महिंदा राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति थे. हालांकि, इस ऐलान के कुछ समय बाद ही मैत्रिपाल सिरिसेना राष्ट्रपति बन गए. जब राजपक्षे फिर सत्ता में लौटे तो उन्होंने इस परियोजना पर काम शुरू करने का वादा किया. राजपक्षे प्रशासन ने कहा कि इस प्रोजेक्ट के जरिए श्रीलंका में 15 अरब डॉलर का विदेशी निवेश आएगा.

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कानूनी चुनौतियों के अलावा, सरकार को देश के प्रभावी बौद्ध गुरुओं के विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है. कोलंबो के अभ्याराम मंदिर के प्रमुख गुरु आनंद मुरूथथुवे ने गुरुवार को कहा, "हम श्रीलंका को चीन का उपनिवेश नहीं बनने देंगे. ये साफ है कि देश गलत रास्ते पर जा रहा है."

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कुछ महीने पहले, बौद्ध गुरुओं ने ईस्ट कंटेनर टर्मिनल प्रोजेक्ट में भारत के शामिल होने का भी पुरजोर विरोध किया था. बौद्ध गुरुओं के दबाव में आकर राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. राजपक्षे ने पहले कहा था कि ईस्ट कंटेनर टर्मिनल में श्रीलंका पोर्ट्स अथॉरिटी के साथ-साथ अडानी ग्रुप भी निवेश करेगा. हालांकि, बाद में श्रीलंकाई राष्ट्रपति ने कोलंबो ईस्ट कंटेनर के बजाय अडानी समूह को वेस्ट कंटेनर टर्मिनल में निवेश करने का प्रस्ताव दिया.
 

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विपक्षी दलों और बौद्ध गुरुओं के अलावा, श्रीलंका के मजदूर संगठन भी बिल का विरोध कर रहे हैं. वजह ये है कि बिल में पोर्ट सिटी के नियोक्ताओं को श्रीलंका के श्रम कानूनों को लागू करने से छूट दी गई है. मजदूर संगठन सिलोन फेडरेशन ऑफ लेबर के जनरल सेक्रेटरी टी.एम. आर. ने एक बयान में कहा, अगर ये बिल लागू होता है तो हम फिर से उसी युग में वापस लौट जाएंगे जिसमें नियोक्ता कर्मचारी को किसी भी वक्त नौकरी से निकाल सकते थे.

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