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अरुणाचल को दक्षिणी तिब्बत क्यों कहता है चीन? जानें-क्या है ड्रैगन की चाल

aajtak.in
  • 09 सितंबर 2020,
  • अपडेटेड 8:42 AM IST
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चीन ने एक बार फिर से अरुणाचल प्रदेश का मु्द्दा उछाल दिया है. सोमवार को चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि उसने अरुणाचल प्रदेश को कभी भारत के हिस्से के रूप में मान्यता नहीं दी है और अरुणाचल को लेकर उसका रुख अब भी वही है. चीन ने नई चाल चलते हुए एक बार फिर से कहा है कि अरुणाचल दक्षिणी तिब्बत है.

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चीन और भारत में ऐतिहासिक रूप से सरहद पर तनाव बढ़ा हुआ है. दशकों तक दोनों देशों की सेना के बीच गोलीबारी नहीं हुई लेकिन मंगलवार को चीन के आरोप के बाद भारतीय सेना ने साफ कर दिया है कि चीन ने समझौते का उल्लंघन कर गोलीबारी की है. दोनों देशों के बीच विवाद के पुराने मुद्दे एक बार फिर से सतह पर आ गए हैं.

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भारत तिब्बत को लेकर अब तक चुप रहा है लेकिन इस बार भारत चीन की हरकत को देखते हुए तिब्बत पर आक्रामक रुख अपनाता दिख रहा है. भारत ने सोमवार को चीन को सख्त संदेश दिया कि भारत किसी दबाव में झुकने वाला नहीं है बल्कि ईंट का जवाब पत्थर से देगा. सोमवार को बीजेपी महासचिव राम माधव भारतीय सेना के अधीन काम करने वाली तिब्बती सैनिकों की यूनिट स्पेशल फ्रंटियर फोर्स के सैनिक रहे नयिमा तेनजिन को श्रद्धांजलि देने पहुंचे. भारत में बड़ी तादाद में तिब्बती निर्वासित जीवन जी रहे हैं. इन तिब्बतियों में धर्मगुरु दलाई लामा भी हैं. भारत की स्पेशल यूनिट में भी तिब्बतियों की मौजूदगी है. रिपोर्ट के मुताबिक, तेनजिंग की मौत एक लैंडमाइंस धमाके में 30 अगस्त को हो गई थी. 
 

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कहा जा रहा है कि लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल यानी एलएसी पर चीन की सेना पीपल्स लिबरेशन आर्मी के जवानों के सामने तिब्बती स्पेशल फंट्रियर फोर्स (एसएफएफ़) की तैनाती भारत की ओर से लिया गया बेहद अहम फैसला है. एसएफएफ में ज्यादातर तिब्बती ही हैं और उन्हें उस इलाके की समझ बहुत अच्छी है. संभव है कि भारत एक बार फिर से फ्री तिब्बत का मुद्दा उठा सकता है. भारत के इसी कदम के जवाब में चीन ने अरुणाचल का मुद्दा उछाल दिया था.  
 

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भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर कई बैठकें हो चुकी हैं लेकिन आज तक मुद्दा सुलझ नहीं पाया और एक बार फिर से दोनों देशों की सेना आमने-सामने है. दोनों देशों के बीच 3,500 किमोलीटर (2,174 मील) लंबी सीमा है. सीमा विवाद के कारण दोनों देश 1962 में युद्ध कर चुके हैं.

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चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत बताता है. चीन की चाल को छोड़ दें तो अरुणाचल प्रदेश को लेकर कोई विवाद नहीं है. इसको लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कोई विवाद नहीं है. अरुणाचल प्रदेश के साथ भारत की संप्रभुता को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली हुई है. अंतरराष्ट्रीय मानचित्रों में भी अरुणाचल प्रदेश भारत का हिस्सा है. विदेशी मीडिया में भी अरुणाचल को लेकर कोई भ्रम की स्थिति नहीं है. चीन, तिब्बत के साथ अरुणाचल प्रदेश पर भी दावा करता है और इसे दक्षिणी तिब्बत कहता है. शुरू में अरुणाचल प्रदेश के उत्तरी हिस्से तवांग को लेकर चीन दावा करता था. यहां भारत का सबसे विशाल बौद्ध मंदिर है.

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चीन और भारत के बीच मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा माना जाता है लेकिन चीन इसे नहीं मानता है. एक तो चीन ने तिब्बत पर अपना कब्जा कर रखा है दूसरी तरफ, अरुणाचल प्रदेश को तिब्बत का हिस्सा कहता है. 1950 के दशक के आखिर में तिब्बत को अपने में मिलाने के बाद चीन ने अक्साई चिन के करीब 38 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था. ये इलाके लद्दाख से जुड़े थे. चीन ने यहां नेशनल हाइवे 219 बनाया जो उसके पूर्वी प्रांत शिनजियांग को जोड़ता है. भारत ने इसे अवैध कब्जा बताया है.

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वैसे तो चीन पूरे अरुणाचल प्रदेश पर ही अपना दावा पेश करता है लेकिन तिब्बत और भूटान की सीमा से लगे तवांग को लेकर सबसे ज्यादा दिलचस्पी लेता है. अरुणाचल प्रदेश के तवांग में बना 17वीं सदी का बौद्ध मठ इसकी खास पहचान है. तिब्बत के बौद्धों के लिए यह काफी पवित्र स्थान है. कहा जाता है कि प्राचीन काल में भारतीय शासकों और तिब्बती शासकों ने तिब्बत और अरुणाचल के बीच कोई विवाद नहीं उभरा और ना ही उन्होंने कोई निश्चित सीमा का निर्धारण किया था. लेकिन आने वाले वक्त में चीजें बदलना शुरू हुई. नेशन-स्टेट की अवधारणा आने के बाद एक तय सीमा रेखा की बात होने लगी.

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1912 तक तिब्बत और भारत के बीच कोई स्पष्ट सीमा रेखा नहीं खींची गई थी. इन क्षेत्रों पर न तो मुगलों का और न ही अंग्रेजों का नियंत्रण था. भारत और तिब्बत के लोग भी किसी स्पष्ट सीमा रेखा को लेकर निश्चित नहीं थे. ब्रिटिश शासकों ने भी इसकी कोई जहमत नहीं उठाई. तवांग में जब बौद्ध मंदिर मिला तो सीमा रेखा का आकलन शुरू हुआ. 1914 में शिमला में तिब्बत, चीन और ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों की बैठक हुई और सीमा रेखा का निर्धारण हुआ.
 

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1914 में तिब्बत एक स्वतंत्र लेकिन कमजोर देश था. गुलाम भारत के ब्रिटिश शासकों ने तवांग और दक्षिणी हिस्से को भारत का हिस्सा माना और इसे तिब्बतियों ने भी स्वीकार किया. इसे लेकर चीन सहमत नहीं था. चीनी प्रतिनिधियों ने इसे मानने से इनकार कर दिया और वो बैठक से निकल गए. 1935 के बाद से यह पूरा क्षेत्र भारत के मानचित्र में आ गया.

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चीन ने तिब्बत को कभी स्वतंत्र देश नहीं माना. उसने 1914 के शिमला समझौते में भी इसे स्वीकार नहीं किया था. 1950 में चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह कब्जा कर लिया. चीन चाहता था कि तिब्बती बौद्धों के लिए काफी अहमियत रखने वाला तवांग उसका हिस्सा रहे. 1962 में चीन और भारत के बीच युद्ध हुआ. अरुणाचल को लेकर भौगोलिक स्थिति पूरी तरह से भारत के पक्ष में है इसलिए चीन 1962 में युद्ध जीतकर भी तवांग से पीछे हट गया. 
 

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तिब्बत को लेकर भारत की रणनीति

तिब्बत को लेकर भारत की रणनीति बहुत स्पष्ट नहीं रही है. साल 1914 में शिमला समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया लेकिन 1954 में नेहरू ने तिब्बत को एक समझौते के तहत चीन का हिस्सा मान लिया. नेहरू ने आठ साल के लिए तिब्बत को चीन का हिस्सा माना था और इसकी समय सीमा 1962 में खत्म हो गई थी. 2003 तक तिब्बत को लेकर भारत के रुख में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और यथास्थिति बनी रही. 2003 में जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चीन के दौरे पर गए तो उन्होंने तिब्बत पर समझौता कर लिया. हालांकि, पीएम बनने से पहले वाजपेयी तिब्बत को आजाद देश कहा करते थे.

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अगर भारत के खिलाफ चीन अरुणाचल को लेकर विवादों को हवा देगा तो भारत ने भी तिब्बत को लेकर आक्रामक होने के संदेश दे दिए हैं. एसएफएफ की एलएसी पर तैनाती एक अहम फैसला है और आने वाले वक्त में चीन अरुणाचल को लेकर कुछ और कदम उठाता है तो भारत भी तिब्बत को स्वतंत्र देश के रूप में कहना शुरू कर सकता है.
 

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