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फिर वॉर जोन बना अफगानिस्तान, अमेरिकी सैनिकों के जाने के बाद किसका होगा नियंत्रण?

एक तरफ जहां अमेरिका तालिबान से जल्द से जल्द समझौता कर अपने सैनिकों को वापस ले जाने पर अड़ा है वहीं दूसरी ओर अफगानिस्तान की आधिकारिक सरकार इस वार्ता का अभी तक हिस्सा भी नहीं है.

अफगानिस्तान में क्या होगा? अफगानिस्तान में क्या होगा?
संदीप कुमार सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 03 सितंबर 2019,
  • अपडेटेड 8:44 AM IST

  • 18 साल से युद्ध की आग में जल रहा अफगानिस्तान
  • 31 अगस्त को अफगानिस्तान में फिर छिड़ी जंग
  • अपनी सेना वापस बुलवा रहा है अमेरिका
पिछले 18 साल से युद्ध की आग में जल रहे अफगानिस्तान की दो एकदम विपरीत तस्वीरें आज दुनिया को देखने को मिल रही हैं. एक तरफ जहां तालिबान के साथ अमेरिका शांति के लिए नौवें दौर की वार्ता कर रहा है वहीं दूसरी ओर कुंदूज-हेलमंड जैसे उत्तरी क्षेत्रों में अफगान सुरक्षाबलों और तालिबान लड़ाकों के बीच घातक संघर्ष छिड़ा हुआ है.

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एक तरफ जहां अमेरिका तालिबान से जल्द से जल्द समझौता कर अपने सैनिकों को वापस ले जाने पर अड़ा है वहीं दूसरी ओर अफगानिस्तान की आधिकारिक सरकार इस वार्ता का अभी तक हिस्सा भी नहीं है. ऐसे में लोगों के मन में कई सवाल हैं कि क्या शांति वार्ता सफल होगी? और अगर शांति समझौता कर अमेरिकी सैनिक चले जाते हैं तो तालिबान की सत्ता में कितनी और कैसी हिस्सेदारी होगी. अफगानिस्तान के बाकी गुटों की इसपर क्या प्रतिक्रिया होगी. सरकार के वर्तमान सेटअप का क्या होगा. सिविल सोसाइटी और अन्य सामाजिक संगठनों के लिए तालिबान को सत्ता में स्वीकार करना क्या आसान होगा?

फिर वॉर जोन बना अफगानिस्तान

यूनाइटेड नेशन के अनुसार पिछले एक साल में अफगानिस्तान के संघर्ष में 3804 नागरिकों की जान गई. जिनमें 900 बच्चे शामिल थे. जबकि 7 हजार से अधिक लोग घायल हुए. लड़ाई थम नहीं रही बल्कि तेज ही हो रही है. अगस्त माह के आखिरी दिन और इस महीने के शुरुआती 2 दिनों में हुए हिंसक संघर्ष अफगानिस्तान के फिर से वॉर जोन बनने की कहानी कहते हैं.

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- 31 अगस्त को अफगानिस्तान के उत्तर में स्थित कुंदूज शहर में तालिबान और सरकारी सुरक्षा बलों के बीच भीषण संघर्ष छिड़ गया.  टकराव में 36 तालिबान लड़ाके मारे गए. तीन नागरिकों की भी मौत हो गई. तालिबान लड़ाकों ने शहर के कई घरों में अपना ठिकाना बना लिया है और वे शहर के मुख्य अस्पताल में भी घुस गए हैं. वे वहीं से सरकारी बलों और आम नागरिकों पर हमले कर रहे हैं.

-    1 सितंबर को तालिबान ने अफगानिस्तान के दूसरे शहर पुली खुमारी पर हमला किया. शहर पर नियंत्रण के लिए दोनों पक्षों की ओर से गोलीबारी जारी है.

-    2 सितंबर को बागलान प्रांत में सुरक्षा बलों और तालिबानी आतंकवादियों के बीच हुई मुठभेड़ में कम से कम 9 लोग मारे गए तथा 27 अन्य घायल हो गए. तालिबानी आतंकवादियों ने हुसैन खिल तथा जमान खिल इलाके में सुरक्षा बलों पर हमला किया. सेना ने उन्हें खदेड़ दिया.

किन इलाकों पर बर्चस्व के लिए जारी है जंग

अफगान लोकल मीडिया के अनुसार कुंदूज, तकहार, बदक्शन, बल्ख, फराह और हेरात में नियंत्रण के लिए तालिबान और अफगान सेनाओं में घमासान संघर्ष छिड़ा हुआ है. इस लड़ाई के कारण काबुल-बाघलान और बाघलान-कुंदूज हाईवे भी ब्लॉक है. पूरा का पूरा उत्तरी अफगानिस्तान वॉर जोन में तब्दील होता हुआ दिख रहा है.

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शांति वार्ता से कितनी उम्मीदें

कतर में अमेरिका और तालिबान के बीच 9 दौर की बातचीत हो चुकी है. दोनों पक्ष जल्द ही समझौते की उम्मीद जता रहे हैं. तालिबान की शर्त है कि अमेरिकी सुरक्षा बल अफगानिस्तान से बाहर जाएं. बदले में अमेरिका तालिबान से ये गारंटी चाहता है कि उसके सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान की जमीन आईएसआईएस और अलकायदा जैसे अमेरिका विरोधी आतंकी संगठनों की अड्डा नहीं बनेगी. अमेरिका 28 सितंबर को होने वाले अफगान राष्ट्रपति चुनाव से पहले इस समझौते का ऐलान करना चाहता है.

तालिबान पर अमेरिका को कितना भरोसा?

अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान से निकालने के लिए भले ही तालिबान से ट्रंप प्रशासन वार्ता कर रहा है लेकिन शांति की दिशा में तालिबान पर उसे कितना भरोसा है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिका नाटो सैनिकों को पूरी तरह से बाहर ले जाने का इच्छुक भी नहीं है. अभी अफगानिस्तान में नाटो और सहयोगी देशों के 30 हजार से अधिक सैनिक हैं जिनमें से 14500 अमेरिकी सैनिक हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप इनमें से अधिकांश सैनिकों को वापस बुलाना चाहते हैं लेकिन 8600 सैनिकों को स्थायी तौर पर निगरानी के लिए वहां रखने की मंशा भी रखते हैं. अब देखना होगा कि तालिबान इस बात के लिए क्या राजी होगा.

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तालिबान को स्वीकार कर पाएगा अफगान समाज?

अमेरिका और तालिबान को शांति वार्ता से भले ही काफी उम्मीदें हैं लेकिन अफगान समाज के सामने कई सवाल मुंह बाए खड़े हैं. तालिबान की इस शांति वार्ता की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2 सितंबर को पहली बार अमेरिकी वार्ताकार जलमय खलीलजाद ने समझौते की शर्तों से अफगान राष्ट्रपति और सीईओ को अवगत कराया.

दरअसल ये अफगान शांति वार्ता का पहला चरण है और इसके बाद दूसरा चरण शुरू होगा. जिसमें अफगान सरकार, सिविल सोसाइटीज और बाकी सामाजिक संगठनों और गुटों को शामिल होना है. अब सवाल उठता है कि तालिबान के कट्टर राज का पुराना अनुभव देखते हुए अफगान समाज शासन में तालिबान की भागीदारी को क्या सहन कर पाएगा?

एक अनुमान के मुताबिक अफगानिस्तान पर नियंत्रण के लिए 18 साल से जारी संघर्ष में विदेशी फौजों के अलावा 3,50,000 अफगान सैनिक और पुलिसकर्मी मोर्चे पर हैं. जबकि दूसरी ओर तालिबान की ओर से 40 हजार के करीब लड़ाके युद्ध में शामिल हैं. देश के 58 फीसदी हिस्से पर अफगान सुरक्षाबलों जबकि 19 फीसदी इलाके पर तालिबान का कब्जा माना जाता है. शेष 22 फीसदी इलाकों पर भी नियंत्रण के लिए संघर्ष जारी है.

अब शांति वार्ता के जरिए अगर अमेरिकी सैनिकों की वापसी का रास्ता बनता है तो उसके बाद सत्ता संघर्ष नहीं होगा इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता. पाकिस्तान, पाकिस्तान समर्थित तालिबान और चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएं वहां राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा दे सकती हैं. ऐसे में अफगानिस्तान में भारत की ओर से चलाई जा रही विकास परियोजनाओं पर भी खतरा उत्पन्न होगा. जाहिर है विकास का काम अगर रुकता है तो अफगान समाज और लोगों की मुश्किलें बढ़ेंगी. इन सब बातों पर आने वाले वक्त में दुनिया की निगाहें होंगी.

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