
अमेरिका के वर्जीनिया में मौजूद ग्लोबल रिसर्च इंस्टीट्यूट एजेंसी AidData ने दुनिया में चीन के कर्ज जाल की पूरी कलई खोल कर रख दी है. चार साल में तैयार हुई यह रिपोर्ट बताती है कैसे चीन दुनिया भर में विकास कार्यक्रमों के नाम पर गरीब और छोटे देशों को अपने कर्ज़ के चक्रव्यूह में फंसाता है और कैसे चीन दूसरे देशों के संसाधनों पर कब्ज़ा जमाने में कामयाब होता है.
अमेरिका में मौजूद सेंटर फॉर न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी (CNAS) के नेशनल सिक्योरिटी प्रोग्राम डायरेक्टर और सीनियर फेलो, मार्टिजिन रासेर और JNU के ईस्ट एशिया मामलों के प्रोफेसर श्रीकांत कोंडापल्ली ने बताया है कि चीन को विकास परियोजनाओं के नाम पर दुनिया के संसाधन हड़पने से कैसे रोका जा सकता है. इसके साथ ही चीन के मामलों के विशेषज्ञों ने ये भी बताया कि QUAD और G7 देश मिल कर कैसे चीन की कर्ज़ आधारित विस्तारवादी कूटनीति का करारा जवाब दे सकते हैं.
चीन की चालबाज़ियों पर AidData की रिपोर्ट क्या कहती है?
AidData की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में चीन मदद के लिए दी गई आर्थिक सहायता से कहीं ज्यादा कर्ज़ बांट बांट रहा है. चीन ने अमेरिका से भी कहीं अधिक गति से दुनिया भर में निवेश किया है. फिलहाल चीन के अलग-अलग देशों में 13,427 विकास कार्यक्रम चल रहे हैं. चीन का देश से बाहर $843 बिलियन का निवेश सामने आया है जो चीन के आधिकारिक आंकड़े से भी ज़्यादा है.
चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) परियोजना पर विशेष तौर से रिसर्च के साथ यह रिपोर्ट कहती है कि चीन के निवेश में पारदर्शिता और साफ नियम-कानूनों की भारी कमी है. यही वजह है कि अब तक 40 से अधिक देश चीन के चंगुल में फंस चुके हैं. करीब 42 देशों पर चीन का ये कर्ज उनकी कुल GDP के 10% से भी अधिक है. चीन की BRI परियोजना में $385 बिलियन डॉलर का छिपा हुआ कर्जा सामने आया है.
AidData की ये रिपोर्ट साफ करती है कि दुनिया में चीन के कर्ज के तले अगर कोई देश एक बार फंस जाए तो उसके लिए बाहर निकलना लगभग नामुमकिन हो जाता है. CNAS के टेक्नोलॉजी और नेशनल सिक्योरिटी प्रोग्राम के डायरेक्टर मार्टिजिन रासेर ने दुनिया तक से कहा, 'BRI से जुड़ा $385 बिलियन का छिपा हुआ कर्जा परेशान करने वाला है. यह चीन की कर्ज आधारित कूटनीति की दिक्कतों को सामने लाता है. एडडेटा की इस रिपोर्ट से उन लोगों को भी जवाब मिला है जो कहते थे कि BRI को लेकर जरूरत से ज़्यादा चिंता की जा रही है.'
उन्होंने आगे कहा कि 'अधिक चिंता की बात ये है कि कई मामलों में चीन अपने कर्ज के बदले चीनी देनदारों के अधिकार वाले देश के बाहर मौजूद बैंक अकाउंट में लोन के बदले संपत्ति गिरवी रखवा लेता है और जब देश चीन का लोन चुका नहीं पाते तब चीन के लिए किसी जमीन या कच्चे माल की तुलना में गिरवी रखी संपत्ति को कब्जे में लेना आसान हो जाता है.'
ग़रीब और छोटे देशों के पास विकास के लिए चीन की आर्थिक मदद का क्या है विकल्प?
अमेरिका में तकनीक और सुरक्षा से जुड़े मामलों पर कड़ी नज़र रखने वाले मार्टिजन रासेर का मानना है कि दुनिया के तकनीक संपन्न लोकतांत्रिक देशों को ग़रीब देशों के लिए चीन के निवेश का विकल्प देने की ज़रूरत है.
मार्टिजन रासेर कहते हैं, "AidData में सामने आए नतीजे इस ज़रूरत पर ज़ोर डालते हैं कि ग़रीब और छोटे देशों में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास की बड़ी ज़रूरत को पूरा करने के लिए टेक्नो डेमोक्रेसीज़ जल्द से जल्द लंबे समय तक टिकने वाले और कारगर विकल्प देने होंगे. G7 देशों का ग्लोबल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट, बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड( B3W) ऐसे विकल्पों का एक अच्छा उदाहरण है. इसी तरह से मैं QUAD जैसे समूहों से भी उम्मीद करूंगा कि वो भी इस तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलेपमेंट का विकल्प मुहैया करवाएं. डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर पर ख़ास ध्यान देना होगा."
कैसे मिला चीन को छोटे-ग़रीब देशों में अपने पैर पसारने का मौका?
JNU के ईस्ट एशिया स्टड़ीज़ के प्रोफेसर श्रीकांत कोंडापल्ली ने बताया कि ग़रीब देशों में इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट की ज़रूरतें बहुत बड़ी हैं और इन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कोई और देश पहले चीन जितने बड़े पैमाने पर आगे नहीं आ रहा था. इसका फ़ायदा चीन को मिला.
प्रोफेसर श्रीकांत कोंडापल्ली ने बताया कि एशियन डेवलेपमेंट बैंक के मुताबिक एशिया में विकास और आधुनिकीकरण के लिए साल 2020 से 2030 तक 8 ट्रिलियन डॉलर के निवेश की ज़रूरत है. आधारभूत संरचना या कहें कि इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश की जरूरतों को पूरा करने के लिए एशियन डेवलेपमेंट बैंक, एशियन इंफ्रा इन्वेस्टमेंट बैंक या ब्रिक्स देशों का डेवलेपमेंट बैंक जैसे बैंक भी मिलकर काफी नहीं है.
प्रोफेसर श्रीकांत कहते हैं, 'IMF या वर्ल्ड बैंक की तरफ से किसी देश के विकास में पैसा लगाते हुए बहुत सी शर्तें रखी जाती हैं जैसे बजट घाटा कम करना, सब्सिडी हटाना, भ्रष्टाचार हटाना, बाल मजदूरी हटाना, मानवाधिकारों की रक्षा करना या विदेशी कंपनियों के लिए खुला बाजार रखना. विदेश मामलों के विद्वान रामोस के सिद्धांत के अनुसार इसे वॉशिंगटन कंसेंसेज कहते हैं. इन शर्तों को पूरा करना कई बार ग़रीब और विकासशील देशों के लिए नामुमकिन हो जाता है जबकि दूसरी तरफ चीन बिना किसी ऐसे नैतिक आधार के ही आसानी से कर्जा दे देता है. यह बीजिंग कंसेंसज में आता है.'
चीन के इस आसान कर्ज का क्या नतीजा निकलता है?
चीन इस आसान कर्जे का इस्तेमाल स्ट्रेटजिक तौर पर महत्वपूर्ण सरकारों को दबाने के लिए करता है. कीनिया के मुंबासा पोर्ट का उदाहरण देते हुए प्रोफेसर श्रीकांत कोंडापल्ली ने बताया. उन्होंने कहा कि 'चीन ने कीनिया में मुंबासा पोर्ट बनाया और इथोपिया से कीनिया तक एक बहुत सुंदर रेलवे लाइन बनाई थी. लेकिन कीनिया के लिए आर्थिक मजबूरियों के कारण अब चीन का कर्जा चुकाना मुश्किल है. इस पर चीन के विदेश मंत्रालय की ओर से कहा गया कि हम मुंबासा पर कब्जा कर लेंगे.'
भारत कर रहा था चीन के खिलाफ दुनिया को आगाह
मुंबासा पोर्ट, श्रीलंका का हंबनटोटा पोर्ट और सूडान जैसे कई देश चीन की इसी तरह की दादागिरी से परेशान हैं. भारत लगातार दुनिया को चीन के ख़तरनाक इरादों पर दुनिया को आगाह कर रहा था. भारत ने अपने पड़ोसी देशों को भी चीन की BRI के खिलाफ चेताया था. भारत ने बताया था कि कैसे चीन उसके पड़ोसी देशों को कर्ज जाल में फंसा रहा है. साथ ही भारत ने ये आवाज भी उठाई थी कि चीन के कोयला आधारित प्रोजेक्ट्स पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं.
प्रोफेसर श्रीकांत कोंडापल्ली कहते हैं कि जब चीन ने BRI शुरू किया तो शुरुआत में अमेरिका के अधिकारी भी इसमें शामिल हुए थे. इटली, स्पेन जैसे देशों की आर्थिक हालात खराब थी तो उन्होंने भी इस परियोजना की बैठकों में शामिल हुए. लेकिन बाद में कर्ज की दरों को लेकर और पारदर्शिता की कमी पर कई देश चौकन्ने हुए और BRI में चीनी निवेश के नुकसानों पर चर्चा हुई. अब अमेरिका, जापान और दूसरे देशों के साथ भारत भी उस ब्लू डॉट नेकटवर्क का हिस्सा बन रहा है जो चीन के BRI से कहीं बेहतर विकल्प दुनिया को मुहैया करा सकता है.
ब्लू डॉट नेटवर्क देगा चीन के खामियों भरे निवेश का बेहतर विकल्प
2019 में अमेरिका की अगुवाई में बैंकॉक में एक मीटिंग हुई. इसमें अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हुए . इन देशों का कहना था कि इंटरनेशनल डेवलपमेंट फाइनेंस ऑपरेशन में सुधार की ज़रूरत है. इन देशों ने पहले 65 बिलियन डॉलर का एक फंडिंग प्रोग्राम बनाया. फिर जब अमेरिका का एक्ज़िम बैंक इसमें शामिल हुआ तब यह 135 बिलियन डॉलर का फंडिंग बना. यहीं से शुरुआत हुई ब्लू डॉट नेटवर्क की.
इस साल G7 देशों ने 45 ट्रिलियन डॉलर का एक प्रोग्राम बनाया. जिसे बिल्ड बैक बैटर वर्ल्ड(B3W) कहा गया. यूरोपीय देशों ने कहा कि हम सतत पोषणीय विकास परियोजनाएं (सस्टेनेबल प्रोजेक्ट) बनाना चाहते हैं. जापान ने कहा कि हमारा जोर विकास परियोजनाओं की गुणवत्ता पर रहेगा. जापान ने भी इसके लिए करीब 100 बिलियन डॉलर का फंड बनाया. इन सभी देशों की ब्लू डॉट नेटवर्क में रुचि है. हाल ही में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत की जो QUAD बैठक हुई उसके आखिर में जारी किए गए ज्वाइंट स्टेटमेंट में भी ब्लू डॉट नेकवर्क के ज़रिए विकास का ज़िक्र किया गया. इससे लगता कि भारत ने भी ब्लू डॉट नेटवर्क को मंजूरी दी है और स्वीकारा है.
दुनिया को मिल पाएगी चीन के कर्जजाल से मुक्ति?
ब्लू डॉट नेटवर्क के प्रयास यदि सफल रहते हैं तो इंटरनेशनल डेवलपमेंट फाइनेंस ऑपरेशन में सुधार के अंतर्गत आने वाले दिनों में चीन के उच्च दरों वाले गैरपारदर्शी निवेश का एक ऐसा विकल्प दुनिया के ग़रीब, छोटो और मजबूर देशों को मिल सकेगा जिसमें अधिक पब्लिक-प्राइवेट प्रार्टनरशिप देखने को मिलेगी. विकास परियोजनाओं में पर्यावरण को बचाने के लिए प्रयास भी शामिल रहेंगे. इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट को लेकर सिविल सोसाएटी की रायशुमारी भी की जाएगी. साथ ही विकास परियोजनाओं में गुणवत्ता का भी ध्यान रखा जाएगा.
ईस्ट एशिया और चीन मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर श्रीकांत कोंडापल्ली मुस्कुराते हुए कहते हैं, 'अभी बहुत सारे देश इस ब्लू डॉट नेकवर्क में शामिल हैं. इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के क्षेत्र में एक प्रतिस्पर्धा आई है. लेकिन मैं ये कहना चाहता हूं कि जब 2013 में चीन ने इस क्षेत्र में काम शुरू किया था तब कोई भी देश उतने बड़े पैमाने पर सामने नहीं आया था. इसका श्रेय तो चीन को देना ही चाहिए. लेकिन चीन की विकास परियोजनाओं में कुछ ख़ामियां थीं जिन्हें अब दूसरे देश मिलकर दूर कर सकते हैं.'