
कुछ सदियों पहले किसी को पता नहीं था कि अमेरिका से निकलेंगे तो हिंदुस्तान कैसे पहुंचेंगे, या इंडोनेशिया जाएं तो संभलकर क्योंकि वहां दर्जनों एक्टिव ज्वालामुखी हैं. लोग एक शहर, राज्य या देश में रहते और वहीं खत्म हो जाते. तभी कुछ उत्साही सैलानियों ने दुनिया खोजने की ठानी. ये वे लोग थे, जिन्हें खाने-पहनने का बड़ा शौक था. उन्हें यकीन था कि दुनिया के हर नए हिस्से में कोई न कोई अनोखा स्वाद उनका इंतजार कर रहा है. इसी की तलाश में सफर करने लगे.
दुनिया की खोज में मसालों का सबसे बड़ा हाथ रहा
खासकर दालचीनी और इलायची का स्वाद पाने के लिए लोग खूब भटके. लगभग ढाई हजार साल पहले अरब के व्यापारी लोगों को दालचीनी वाली चिड़िया का कहानियां सुनाया करते. सिनेमोलॉगज नाम की इस काल्पनिक चिड़िया के लिए वे कहते थे कि इसके पेड़ पर चोंच मारने से इलायची उगती है. बहुत बाद में पता लगा कि ये सिर्फ कहानी है, जो इसलिए रची गई ताकि प्राचीन ग्रीस के लोग पूर्व की खोज के लिए न निकल पड़े. साल 1498 में वास्को डि गामा के भारत आने के बाद यूरोप और हिंदुस्तान के बीच मसालों के व्यापार का नया और ज्यादा आसान रास्ता खुला.
बिना तय मंजिल के लोग सफर किया करते
लोग समुद्री सफर पर निकलते हुए नक्शा बनाते चलते और जहां जहाज लंगर डाल दे, वहां से वापसी का भी नक्शा बना डालते. इस तरह से शुरू हुआ दुनिया के जुड़ने का सिलसिला. 15वीं सदी से लगातार 3 सौ सालों तक दुनिया खोजने और नक्शा बनाने का क्रम चलता रहा. इसे एज ऑफ एक्सप्लोरेशन भी कहते हैं. इस दौरान व्यापार, पैसों और नया जानने की इच्छा ने दुनिया के लगभग कोने-कोने को जोड़ दिया.
नए रास्ते खोजने की एक वजह और भी
तब समुद्र ही देशों, महाद्वीपों को जोड़ने का अकेला जरिया था. ऐसे में जब कोई देश दूसरे देश पर कब्जा करता तो साथ ही समुद्री रास्ते पर भी अपनी फौज तैनात कर देता. इससे पड़ोसी देशों के पास दुनिया के दूसरे हिस्सों में जाने का रास्ता नहीं बचता. जैसे 15वीं सदी के मध्य में तुर्कों ने रोम पर कंट्रोल करते ही पूर्व से जुड़ने वाले सारे समुद्री रास्तों के साथ अफ्रीका की तरफ जाने वाले रास्तों पर भी कब्जा कर लिया. वो इन जगहों पर अकेले ही व्यापार करना चाहता था. तब पुर्तगालियों ने नया रास्ता और नए नक्शे बनाए ताकि व्यापार न रुके.
पहला नक्शा किसने बनाया, इसपर काफी विवाद है
इसकी मोटा-मोटी शुरुआत हजारों साल पहले ही हो चुकी थी. तब गुफाओं में रहते हमारे पूर्वज अपने आसपास जंगल-नदियों या किसी तरह के खतरे को गुफा की दीवारों पर उकेरा करते. 6100 ईसापूर्व एनातोलिया (अब तुर्की) में गुफाओं पर कुछ पेंटिंग्स हैं, जिनके बारे में दावा किया जाता है कि असल में नक्शा है.
वैसे पहला नक्शा 15वीं सदी के मध्य में इटली में बनाया गया. चमड़े पर बने नक्शे को प्लेनस्फरो कहा गया. ये लैटिन शब्द है, जिसमें प्लेनस का अर्थ है चपटा और स्फेरस यानी गोल. मैप आज भी इटली के वेनिस शहर के एक म्यूजियम में रखा हुआ है. नक्शा इतना लंबा-चौड़ा है कि खोलकर बिछाया जाए तो कई किलोमीटर में फैल सकता है. चमड़े पर बना होने के कारण ज्यादातर हिस्से खराब हो चुके और नक्शा बस नाम का ही बाकी है.
खोजना यानी शासक बनना
दुनिया खोजने और नक्शे बनाने में पुर्तगाल और इटली का काफी काम रहा. साल 1492 में इटैलियन सैलानी क्रिस्टोफर कोलंबस जब अपनी पहली समुद्री यात्रा पर निकले तो उन्होंने भारत का जिक्र सुना रखा था. इसे ही खोजते हुए वे सैन सेल्वाडोर (अब बहामास) पहुंच गए. हैती और डॉमिनिकन रिपब्लिक की खोज का श्रेय भी कोलंबस को जाता है. मजे की बात ये है कि खोजते हुए सैलानी जहां पहुंचते, वापसी के बाद अपने देश की सेना लेकर वहां आ धमकते और नई जमीन पर कब्जा कर लेते.
16वीं सदी की शुरुआत में प्रिंटिंग का काम चल पड़ा. तब धार्मिक किताबों के साथ-साथ नक्शों की छपाई खूब जमकर होने लगी. जर्मनी के एक्सप्लोरर और भूगोलविद् सेबेस्टिअन मन्स्टर की लिखी किताब कॉस्मोग्राफिया ने नक्शे की दुनिया को बहुत कुछ नया और ज्यादा तकनीकी दिया. खासकर इसमें उन समुद्री रास्तों का नक्शा बारीकी से बनाया गया था, जो ज्यादा खतरनाक थे और जोखिम के कारण लोग जाने से बचते, या रास्ते में जान गंवा देते. किताब कई भाषाओं में छपी और सेना भी इसका इस्तेमाल करने लगी.
सबसे पहला एटलस मई 1570 में छपा
इसके बाद नक्शों की दुनिया बदल गई. एपिटम ऑफ द थिएटर ऑफ वर्ल्ड नाम से छपा ये एटलस वैसे तो मॉर्डन एटलस से काफी अलग था, लेकिन यही शुरुआत थी. इसमें जमीन के लिए भूरा और पानी के लिए नीला ही नहीं, बल्कि हर भौगोलिक हालात का अलग चिन्ह था. जैसे अगर कहीं दूर तक रेगिस्तान है तो ऊंट और खजूर के पेड़ दिखेंगे. किताब बहुत लोकप्रिय हुई.
बाद में साल 1612 में जर्मन भूगोलविद जिरेडस मर्केटर ने दुनिया का नक्शा तैयार किया, जो पहले वाले नक्शे से भी बेहतर था. इसी समय पहली बार एटलस शब्द का इस्तेमाल हुआ. वैसे एटलस ग्रीक माइथोलॉजी का एक चरित्र है, जो इतना ताकतवर है कि धरती को अपने कंधों पर उठा सकता है. इसी से लेते हुए दुनिया के नक्शे को एटलस कहा गया.
खतरों से भरा होता था समंदर का सफर
आज जाना चाहें तो हम अंटार्कटिका के बेस कैंप से लेकर अफ्रीका की नील तक जा सकते हैं, लेकिन पहले भारत से चीन, या लंदन का सफर भी खतरों से भरा था. जहाज उतने मजबूत नहीं होते. उनमें कुछ हफ्तों या महीनों का राशन-पानी भरकर लोग खोज पर निकलते. समुद्री तूफानों से अक्सर वे रास्ते में ही मर-खप जाते थे. रास्ता भटक जाने पर हफ्तों पानी में यूं ही डोलते रहते, यहां तक कि राशन खत्म होने पर भूख से दम तोड़ देते. नई जगह पहुंच भी जाएं तो वहां अलग खतरे होते. इसके बाद भी दुनिया की खोज चलती रही.
समुद्री यात्रा में बैड-लक लाती थी औरतें
महिलाओं के लिए सफर लगभग नामुमकिन था. वे अपने पति या पिता की प्रॉपर्टी की तरह देखी जाती थीं, जिन्हें बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी. महिलाओं को घर में रखने के साथ कई अंधविश्वास भी जोड़ दिए गए थे. जैसे वे समुद्र के पास भी आईं तो समुद्र के भीतर रहता शैतान बेचैन हो जाता है और उसमें ऐसा उथल-पुथल मचती है कि जहाज डूब जाए. इसी तर्क के साथ महिलाओं को समुद्री यात्रा की मनाही रही.
इसका दूसरा पक्ष भी है. सेलर्स मानते थे कि नग्न स्त्रियों को देखकर समुद्र शांत हो जाता है. यही वजह है कि 16वीं और 17वीं सदी में जहाज के ऊपरी हिस्से पर टॉपलेस महिला की लकड़ी की मूर्ति बनाई जाने लगी थीं.