
क्लाइमेट चेंज को लेकर एक्सपर्ट लगातार आगाह कर रहे हैं. कहा तो ये तक जा रहा है कि हमारी गलतियों की वजह से जल्द ही सैकड़ों स्पीशीज दुनिया से गायब हो जाएंगी और फिर तबाही का वो मंजर शुरू होगा, जो धरती को खत्म करके ही रुकेगा. क्लाइमेट पर असर डालने वाली कई घटनाएं गिनाई जा रही हैं, लेकिन चीन का नाम इसमें भी काफी ऊपर है. साठ के शुरुआती दशक में वहां गौरैया मारने के अभियान को आज भी पर्यावरण की सबसे बड़ी त्रासदियों में गिना जाता है.
आंगन में फुदकने वाली बेहद मासूम चिड़िया से चीन का क्या बैर!
इस बात के तार जुड़ते हैं कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और चीन के तत्कालीन लीडर माओ जेडोंग से. दूसरे विश्व युद्ध के लगभग दशकभर बाद ये नेता चीन का सर्वोच्च लीडर बन गया था. मनमौजी लेकिन अपने देश को सबसे ऊपर ले जाने का ख्वाब देखते माओ ने कई अजीबोगरीब फैसले लिए. इन्हीं में से एक था 4 पेस्ट्स कैंपेन.
फोर पेस्ट्स कैंपेन में गौरैया भी एक शिकार बनी
माओ दरअसल अपने गुणा-भाग के हिसाब से मानते थे कि मक्खी, मच्छर, चूहों और गौरैया ने देश के पैसों का बड़ा नुकसान किया. इनमें से कुछ गोदामों का अनाज खाते, कुछ बीमारियां फैलाते तो कुछ खेत को खा डालते थे. गौरैया के बारे में माओ को पक्का यकीन था कि ये चिड़िया खेतों का आधा अनाज खुद चुग जाती होगी. तो 4 पेस्ट्स कैंपेन चल पड़ा. माओ ने लोगों से कहा कि वे इन चारों जीवों को, जहां पाएं, वहां मार दें. चीन की जनता में तब नए नेता का नया जोश था. तो लोग भी जुट पड़े इन्हें मारने में.
मक्खी, मच्छर और चूहे तो इरादा जल्दी ताड़ गए और मौका पाकर छिपने लगे, लेकिन गौरैया की अपनी लिमिट है. वो न तो ऊंचा उड़ पाती है, न बहुत ज्यादा और न ही कहीं छिपना आसानी से मुमकिन है. बल्कि ये उड़ते हुए जल्दी थक भी जाती है और गिर पड़ती है. तो ये सॉफ्ट टारगेट बन गई. गांव-गांव, शहर-शहर लोग अपने काम-धंधे निपटाकर चिड़िया मारने लगे.
चिड़िया मारने पर लोगों को इनाम भी मिला करता
बच्चे खुशी-खुशी गौरैया मारो अभियान में जुट गए. यहां तक कि ऐसे बच्चों का सभाओं में सम्मान भी होने लगा कि इसने इतने पक्षी मार गिराए. रेडियो पेकिंग के मुताबिक स्मैश स्पैरो कैंपेन में करोड़ों लोग शामिल हुए. युन्नान के 16 साल के लड़के यंग-सेह-मुन को नेशनल हीरो का खिताब मिला क्योंकि उसने दो-चार नहीं, 20 हजार गौरैया मारी थी. कुछ ऐसा था माओ के आह्वान का असर.
लगभग खत्म हो गई गौरैया
1958 से अगले दो ही सालों के भीतर लाखों-करोड़ों गौरैया खत्म हो गईं. कितनी, इसका कोई डेटा कहीं नहीं, बस ये समझिए कि चीन गौरैया-विहीन देश बन गया. देखा जाए तो ये माओ की सफलता थी. अब खेत का सारा अनाज लोगों को खाने मिलता, लेकिन हुआ उल्टा. खेतों पर टिड्डियों का हमला होने लगा. झुंड की झुंड टिड्डियां खेतों पर हमला करने लगीं और अनाज बचाने की सारी कोशिशें फेल होती चली गईं. अब जाकर माओ को पता लगा कि गौरैया जितना अनाज खाती नहीं थी, उससे कहीं ज्यादा अनाज उसके कारण बचता था क्योंकि वे असल में टिड्डियों का शिकार करती थीं.
धान में टिड्डियां लग चुकी थीं
टिड्डियों को मारने के लिए खेतों में दवाएं डाली जाने लगीं, लेकिन देर हो चुकी थी. साठ के दशक में चीन का चेहरा बदल गया. धान के खेतों में टिड्डियां थीं और लोग भूख से मर रहे थे. आने वाली हर पैदावार के साथ यही होने लगा क्योंकि खेतों की कुदरती रक्षक तो मारी जा चुकी थीं.
भयंकर अकाल पड़ा
भूख से लोग दम तोड़ते लोग जो मिले, वो पेट में डालने लगे. यहां तक कि कहा ये भी जाता है कि तभी चीन में जंगली जानवरों को पकड़कर खाने का चलन चल निकला. लोग सांप-बिच्छू-कुत्ते-बिल्ली सब कुछ निगलने लगे कि बस जान बच जाए. जिन्हें ये भी नहीं मिल सका, वे अपने ही घरों के कमजोर लोगों को खाने की कोशिश करने लगे.
इंसान दूसरे इंसानों को खाने लगा!
चीन के पत्रकार यंग जिशेंग ने अपनी किताब Tombstone में ऐसी घटनाओं का ऐसा जिक्र किया है, जिसे पढ़कर दिनों तक भूख न लगे. माता-पिता अपने छोटे बच्चों को खाने लगे. बच्चे अपने बूढ़े माता-पिता को खाने लगे. लेखक की मानें तो तब लगभग साढ़े 3 करोड़ लोगों ने भूख से दम तोड़ा. हालांकि सीक्रेसी रखने में माहिर चीन इस आंकड़े को डेढ़ करोड़ बताता है. खौफनाक वाकये बयान करती ये किताब चीन में बैन कर दी गई. यहां तक कि इससे जुड़ा सर्च भी आप वहां बैठकर नहीं कर सकते. उस दौर को ग्रेट चाइनीज फेमिन के नाम से भी जाना जाता है.
इससे उबरने के बाद चीन ने रूस से लाखों गौरैया खरीदी थी.