
साल 2027 तक कैलीफोर्निया के लोगों के पास चॉइस होगी कि वे श्मशान में अपना अंतिम संस्कार कराना चाहेंगे, या फिर घर के बगीचे या खेत में खाद बनकर रहेंगे. वहां के गर्वनर गेविन क्रिस्टोफर ने कुछ रोज पहले ही नए नियम पर दस्तखत कर दिए, जिसे नाम मिला नेचुरल ऑर्गेनिक रिडक्शन 2027. अगले पांच सालों के अंदर इसे लागू करने के सारे बंदोबस्त हो जाएंगे.
क्या है ये प्रोसेस?
जैसा कि नाम से समझ आ रहा है, इसमें घास-पात की तरह ही इंसानी शरीर को भी प्राकृतिक तरीके से गलाकर उसकी खाद तैयार की जाएगी, और फिर उसका उपयोग खेती-बाड़ी में होगा.
फिलहाल क्या हो रहा है?
अभी समाज में अंतिम संस्कार के अलग तौर-तरीके हैं. कई लोग मृतक का दाह संस्कार करते हैं तो कई समुदाय शरीर पर कई तरह के लेप लगाकर फिर उसे धातु या लकड़ी के बॉक्स में रखते हैं. ये बॉक्स इस तरह के होते हैं जो दसियों सालों तक जस के तस रहें ताकि शरीर भी सुरक्षित रहे.
अभी किस बात पर है आपत्ति?
अंतिम क्रिया के इन दोनों ही प्रचलित तरीकों पर पर्यावरण के जानकार एतराज जता रहे हैं. मिसाल के तौर पर दाह संस्कार को ही लें, तो एक मृत शरीर को जलाने में काफी प्रदूषण होता है. डेटा की मानें तो एक औसत कद-काठी वाले वयस्क को जलाने पर लगभग 500 पाउंड कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है. ये प्रदूषण उतना ही है, जितना 470 मील चलने वाली पुरानी कार से होता है.
ग्रीन बरियल काउंसिल के मुताबिक अकेले अमेरिका में ही हर साल 1.74 बिलियन पाउंड कार्बन डाइऑक्साइड दाह संस्कार की परंपरा में निकलती है. इस दौरान निकलनी वाली गर्मी लगभग 14 सौ डिग्री फैरनहाइट होती है, जो आसपास के छोटे जीव-जंतुओं और पेड़ों को भी नुकसान पहुंचाती है. जमीन की उर्वरता को नुकसान होता है, वो अलग.
दफनाना भी नहीं है कम खतरनाक
दफनाने हुए शरीर को सुरक्षित करने के लिए जो लेप लगाया जाता है, उससे भी कई तरह की जहरीली गैसें निकलती रहती हैं. इसके अलावा दुनिया के कई देश कब्रिस्तान की कमी से जूझ रहे हैं. यहां तक कि लोगों को वेटिंग लिस्ट में डाला जा रहा है. बारी आएगी, तभी अंतिम संस्कार होगा. ग्रीन डेथ को इससे छुटकारे के विकल्प की तरह देखा जा रहा है.
अंतिम संस्कार कराने वालों की सेहत पर खतरा
फायदे गिनाते हुए लोग ये भी देख रहे हैं कि इससे श्मशान में दाह क्रिया करवाने वालों को भी जहरीली गैसों से राहत मिलेगी. बता दें कि दाह क्रिया के दौरान फार्मेल्डिहाइड नाम की गैस निकलती है, जो ब्लड कैंसर की वजह बनती है. यही वजह है कि अब दुनियाभर के पर्यावरणविद ग्रीन डेथ की बात करने लगे.
क्या होगा नई प्रक्रिया के तहत
शरीर को धातु के कॉफिन में रखने की बजाए इस तरह से रखा जाएगा ताकि वो डिकंपोस्ट होकर खाद में बदल सके. आइए, इस प्रोसेस को पूरा समझते हैं. इसमें मृतक के शरीर को स्टील के सिलेंडरनुमा बॉक्स में डाला जाएगा. मृत शरीर के नीचे लकड़ियों और पुआल के साथ अल्फाल्फा वनस्पति भी होगी. बता दें कि इस घास के बैक्टीरिया तेजी से डिकंपोज करने का काम करते हैं.
लगभग 60 से 80 दिन लगेंगे
कुल 30 दिनों के भीतर शरीर खाद में बदल जाएगा, लेकिन अभी भी इसमें कई तरह के वायरस या बैक्टीरिया जैसा खतरा हो सकते हैं इसलिए इसे धातु के बर्तन से निकालकर ट्रीट किया जाएगा. ये प्रक्रिया लगभग 6 हफ्ते लेगी. अब खाद तैयार है. इसका कुछ हिस्सा परिवार अपने खेत या बगीचों में इस्तेमाल करेगा, जबकि बड़ा हिस्सा सरकारी योजनाओं में लगाया जाएगा.
बंटवारा कैसे होगा, ये मसला
वॉशिंगटन के बाद कोलोरेडो, ऑरेगॉन और वरमाउंट में ग्रीन डेथ को सरकारी अनुमित मिल चुकी. कैलीफोर्निया पांचवा राज्य है. हालांकि एक पेंच है. फिलहाल ग्रीन डेथ को अनुमति देने वाला कोई भी देश इसपर पक्का नहीं हो सका कि खाद का बंटवारा किस तरह हो. अपने लगाव के चलते परिवार इसे पूरा रखने का दावा भी कर सकता है, लेकिन चूंकि ये खाद इंसानी शरीर से बना है, इसलिए सरकारें इसे लेकर दुविधा में हैं.
कौन कर सकता है ग्रीन डेथ पर दावेदारी
साल 2019 में ही ये कंसेप्ट आया और ज्यादातर लोगों को इस बारे में खास जानकारी नहीं. लेकिन जानकारी हो भी जाए तो हर कोई ये नहीं कह सकता कि उसे रिकंपोजिशन वेसल में डालकर खाद बना दिया जाए. इसके लिए भी बाकायदा चुनाव होगा. अगर मरने के बाद इस प्रोसेस की इच्छा रखने वाला किसी गंभीर संक्रामक बीमारी का शिकार हो जाए तो उसकी दावेदारी खत्म. टीबी, इबोला और सेक्सुअली ट्रांसमिट होने वाली बीमारियां इस लिस्ट में हैं.