
कनाडा, पनामा, ग्रीनलैंड और मेक्सिको...ये वो कुछ नाम हैं जिन्हें राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के बाद डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में शामिल कराने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं. उनके इन बयानों ने दुनियाभर में कई चर्चाओं को जन्म दिया है. लेकिन सबसे ज्यादा शोर ग्रीनलैंड को लेकर है. लोग जानना चाह रहे हैं कि आखिर 60 हजार की आबादी वाले ग्रीनलैंड पर दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति की नजर क्यों है? ग्रीनलैंड में ऐसा क्या है? क्या मामला सिर्फ ग्रीनलैंड तक ही सिमटा हुआ है या कहानी कुछ और है. क्या इस जंग में केवल अमेरिका शामिल है या फिर दुनिया के और भी देश इस कहानी में लगे हुए हैं. आज इस लेख में हम आपको इन्हीं सवालों के जवाब देंगे...
आसान भाषा में समझें तो ग्रीनलैंड आर्कटिक और नॉर्थ अटलांटिक महासागरों के बीच बसा एक द्वीप है. फिलहाल यह डेनमार्क के हिस्से के रूप में देखा जाता है. इसका करीब 80 फीसदी क्षेत्र बर्फ से ढका है. आबादी भी महज 60 हजार की है जो बुनियादी जरूरतों के लिए भी मशक्कत करती है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ग्रीनलैंड को लेकर अमेरिका में इतनी बेचैनी क्यों है. दरअसल, कुछ जानकारों का मानना है कि मामला सिर्फ ग्रीनलैंड का नहीं है, बल्कि ग्रीनलैंड के बहाने अमेरिका पूरे आर्कटिक क्षेत्र पर अपना दखल बढ़ाना चाहता है. लेकिन खास बात ये है कि इस रेस में केवल अमेरिका ही नहीं बल्कि रूस, कई यूरोपीय देश, कनाडा, भारत और चीन की भी नजर है.
आर्कटिक क्षेत्र के बारे में जानिए
मोटे तौर पर आर्कटिक क्षेत्र में आठ देशों के हिस्से शामिल हैं- कनाडा, ग्रीनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, फ़िनलैंड, रूस और अमेरिका. आर्कटिक का ज्यादातर हिस्सा बर्फ से ढका है. लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण जैसे-जैसे इस इलाके की बर्फ पिघल रही है वैसे-वैसे दुनिया की राजनीति में इस इलाके को लेकर गरमाहट बढ़ रही है.
क्यों खास है आर्कटिक क्षेत्र
आर्कटिक क्षेत्र की बात करें तो इसके ज्यादातर हिस्से से लोग अब भी अनजान हैं. कहा जाता है कि इस इलाके में अब भी कई ऐसी जगहें हैं जहां ऐसे प्राकृतिक संसाधन मौजूद हैं जिनके बारे में कोई जानकारी नहीं है. इस इलाके में विशेष रूप से तेल, गैस और समुद्री जीवन का एक समृद्ध भंडार माना जाता है. तमाम एक्सपर्ट इस इलाके को महाशक्तियों के बीच संघर्ष का संभावित केंद्र भी मान रहे हैं.
दरअसल, एक ओर अमेरिका लंबे समय से इस इलाके में दखल दे रहा है. वहीं,रूस इसके ज्यादातर हिस्से पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराए हुए हैं. नार्वे समेत कई छोटे यूरोपीय देश भी इसमें रुचि ले रहे हैं. कनाडा भी इस रेस में शामिल है. लेकिन चीन और भारत एक नए दावेदार के रूप में इसमें शामिल हुआ है, जिसने इस इलाके की चर्चा को बढ़ा दिया है. चीन और भारत की इस क्षेत्र में दिलचस्पी इसलिए भी अहम और चर्चा का विषय है क्योंकि दोनों की सीमाई दूरी इस इलाके से हजारों किमी दूर है.
धरती के एक छठे हिस्से को कवर करने वाला आर्कटिक क्षेत्र उत्तर ध्रुव को घेरता है और यह विशाल बर्फीले क्षेत्रों से घिरा हुआ है.अनुमान है कि यह क्षेत्र दुनिया के अप्रकट तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार का लगभग 22% हिस्सा रखता है.
2040 तक बदल सकता है समीकरण
जलवायु परिवर्तन की तमाम घटनाओं के चलते तापमान में काफी इजाफा हुआ है. आर्कटिक में भी तेजी से गर्मी बढ़ी है. माना जा रहा है कि आर्कटिक 2040 तक गर्मी के मौसम में बर्फ से मुक्त हो सकता है. एक ओर जहां बर्फ के पिघलने के परिणाम गहरे हो सकते हैं, वहीं, बर्फ के पिघलने को अमेरिका, रूस समेत कई देश अच्छा भी मान रहे हैं.
रूस और अमेरिका लंबे समय से दे रहे दखल
रूस और अमेरिका ने लंबे समय से आर्कटिक में सैन्य ठिकाने और निगरानी प्रणालियां बनाए रखी हैं. रूस ने इस क्षेत्र में परमाणु-शक्ति संचालित आइसब्रेकरों का संचालन किया है. अमेरिका ने भी इस इलाके में अपनी सैन्य मौजूदगी दर्ज कराई है. कई इलाकों को लेकर शोध जारी हैं.
बर्फ के पिघलने ने खोले कई रास्ते
बर्फ के पिघलने के कारण आर्कटिक क्षेत्र गर्मी के महीनों में लंबे समय तक खुला रहना शुरू हो गया है. इसके कारण तीन प्रमुख मार्ग हैं जो 21वीं सदी में अंतरराष्ट्रीय कमर्शियल शिपिंग उद्योग में क्रांति ला सकते हैं.
1.नॉर्दर्न सी रूट (NSR): यह रूस के आर्कटिक तट के साथ स्थित है. यहां बर्फ पहले साफ होती है, इसलिए यह अधिक समय तक उपलब्ध रहता है. इस मार्ग में उच्चतम वाणिज्यिक क्षमता है. यह मार्ग पूर्वी एशिया और यूरोप के बीच समुद्री दूरी को 21,000 किलोमीटर से घटाकर 12,800 किलोमीटर कर देता है, जिससे यात्रा का समय 10-15 दिन कम हो जाता है.
2. नॉर्थ वेस्ट पैसिज (NWP): यह एक और मार्ग है जो अटलांटिक और प्रशांत महासागरों के बीच है और कनाडा के आर्कटिक द्वीपसमूह से होकर गुजरता है. इसे 2007 में पहली बार उपयोग किया गया था.
3. ट्रांसपोलर सी रूट (TSR): यह एक संभावित मार्ग है जो सीधे बेरिंग स्ट्रेट और आर्कटिक महासागर के मुरमान्स्क बंदरगाह को जोड़ सकता है.
रूस की क्या है रणनीति
रूस आर्कटिक का सबसे बड़ा हिस्सेदार है, यह क्षेत्र रूस की जीडीपी का लगभग 10% और कुल निर्यात का 20% योगदान करता है. 2023 में क्रेमलिन की विदेश नीति संकल्पना में आर्कटिक को नया महत्व दिया गया है, जो शांति और स्थिरता को बनाए रखने, पर्यावरणीय स्थिरता बढ़ाने और राष्ट्रीय सुरक्षा खतरों को कम करने पर जोर देती है.
चीन एक नया खिलाड़ी
चीन, जिसे "नियर-आर्कटिक स्टेट" के रूप में माना जाता है, आर्कटिक में एक हिस्सेदार बनने की कोशिश कर रहा है. जनवरी 2018 में चीन ने एक नीति पत्र जारी किया जिसमें उसने खुद को आर्कटिक का करीबी देश बताया. हालांकि, चीन और आर्कटिक के बीच की दूर हजार किमी से ज्यादा की है. चीन लंबे समय से इस इलाके में अनुसंधान, सैन्य और अन्य उद्देश्यों के लिए बुनियादी ढांचा विकसित करने की आवश्यकता पर बल देता रहा है.
भारत को क्यों है दिलचस्पी
भारत एक उभरती हुई प्रमुख शक्ति के रूप में आर्कटिक में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहता है. उसने जुलाई 2008 से नॉर्वे के स्वालबार्ड में "हिमाद्री" स्थायी आर्कटिक अनुसंधान स्टेशन चलाया है. भारत भी इस इलाके को समझने के लिए यहां तमाम रिसर्च कर रहा है. इस इलाके को लेकर भारत का इंट्रेस्ट पिछले कुछ सालों में दिखा है. इसका एक कारण उसकी बढ़ती आबादी और आर्कटिक में विशाल संसाधनों का होना है.
लेकिन इसका दूसरा पक्ष चीन से जुड़ा है. दरअसल, चीन ने पिछले कुछ समय में आर्कटिक को लेकर कई पहल की है. लिहाजा भारत भी इसके चलते आर्कटिक में दखल बढ़ा रहा है. समुद्री कनेक्टिविटी और अपनी उपस्थिति को मजबूत करने के उद्देश्य भी शामिल हैं.
भारत और चीन दोनों ने ही इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए रूस के साथ सहयोग को बढ़ाया है. भारत और रूस ने मिलकर 7,200 किलोमीटर लंबे इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण प्रगति की है, जिससे भारत, ईरान, अजरबैजान, रूस, मध्य एशिया और यूरोप के बीच माल ढुलाई में लागत और समय की बचत होगी.
क्या महाशक्तियों में होगा 'कोल्ड वॉर'
आर्कटिक में हो रहे इन बदलावों को 'अगला बड़ा खेल' माना जा रहा है. आर्कटिक में रूस और चीन की बढ़ती सहयोगी स्थिति, भारत के लिए एक चुनौती पेश कर सकती है, क्योंकि आर्कटिक संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा तेज हो गई है. वहीं, जिस तरह से अमेरिका, कनाडा और छोटे-छोटे यूरोपीय देशों ने इस क्षेत्र में अपना दखल बढ़ाया है, इसे देखकर कहा जा सकता है कि इस इलाके को लेकर महाशक्तियों के बीच तनाव देखा जा सकता है.
अब जानिए ग्रीनलैंड क्या है
आर्कटिक और नॉर्थ अटलांटिक महासागरों के बीच बसे इस द्वीप की खोज 10वीं सदी में हुई थी, जिसके बाद यहां यूरोपीय कॉलोनी बसाने की कोशिश की गई, लेकिन वहां के हालात इतने मुश्किल थे कि कब्जा छोड़ दिया गया. बाद में लगभग 14वीं सदी के आसपास यहां डेनमार्क और नॉर्वे का एक संघ बना, जो इसपर संयुक्त रूप से राज करने लगा.
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60 हजार है आबादी
विस्तार के मामले में दुनिया के 12वें सबसे बड़े देश की आबादी लगभग 60 हजार है. इनमें स्थानीय आबादी को इनूएट कहते हैं, जो डेनिश भाषा ही बोलते हैं, लेकिन इनका कल्चर डेनमार्क से अलग है. बर्फ और चट्टानों से भरे इस देश में आय का खास जरिया नहीं, सिवाय सैलानियों के.
कोल्ड वॉर के बाद बढ़ी अहमियत
शीत युद्ध के दौरान इसका रणनीतिक महत्व एकदम से उभरकर सामने आया. अमेरिका ने तब यहां अपना एयर बेस बना लिया ताकि पड़ोसियों पर नजर रखने में आसानी हो. बता दें कि ग्रीनलैंड जहां बसा है, वहां से यूएस रूस, चीन और यहां तक कि उत्तर कोरिया से आ रही किसी भी मिसाइल एक्टिविटी पर न केवल नजर रख सकता है, बल्कि उसे रोक भी सकता है. इसी तरह से वो यहां से एशिया या यूरोप में मिसाइलें भेज भी सकता है.
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दूसरी वजह ये है कि ग्रीनलैंड मिनरल-रिच देश है ग्लोबल वार्मिंग के कारण जैसे-जैसे आर्कटिक की बर्फ पिघलती जा रही है, वैसे-वैसे यहां के खनिज और एनर्जी रिसोर्स की माइनिंग भी बढ़ रही है. यहां वे सारे खनिज हैं, जो मोबाइल फोन और इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ हथियारों में इस्तेमाल होते हैं. फिलहाल चीन इन मिनरल्स का बड़ा सप्लायर है. अमेरिका इस कतार में आगे रहना चाहता है.