
कुछ दिनों पहले एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें ट्रैफिक नियम तोड़ने के बाद भी एक ऑस्ट्रेलियाई शख्स कार से निकलने और अपनी गलती मानने को तैयार नहीं था. उसका कहना था कि उसपर किसी देश का नियम लागू नहीं होता. बाद में जैसे-तैसे उसे अरेस्ट किया जा सका. ऐसे लोग लगातार बढ़ रहे हैं. वे दलील देते हैं कि जैसे देश संप्रभु होते हैं, यानी आजाद होते हैं, और उनपर किसी दूसरे देश का कानून लागू नहीं होता, वैसे ही इंसान भी संप्रभु है. संविधान या कानून बनाना उसे गुलाम बनाने की तरह है.
ऐसे लोग किसी देश में रहने के सारे फायदे तो लेते हैं, लेकिन वहां के रूल्स मानने से मना कर देते हैं. FBI ने इस एक्सट्रीम सोच को आतंकवाद का नया चेहरा तक कह दिया.
कहां से, और क्यों शुरू हुआ आंदोलन?
सत्तर के दशक में इस मूवमेंट की नींव अमेरिका में पड़ी. वहां एक ग्रुप था, पॉसे कॉमिटिटस. ये ऐसे लोगों का समूह था, जिसे सरकार की हर बात पर शक होता. वे कहते थे कि सरकार कुछ खास लोगों के साथ है, और आम लोगों को गुलाम बना देना चाहती है. वो हर बात का विरोध करने लगे. धीरे-धीरे समूह बढ़ने लगा. अब अमेरिका में तो ऐसे लोग अच्छी-खासी संख्या में हैं ही, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूनाइटेड किंगडम तक इसकी आंच जा पहुंची.
क्या खतरा है इनसे?
खुफिया संगठन FBI ने जब इसे डोमेस्टिक टैररिज्म कहा तो उसका मतलब ये नहीं था कि ये लोग बम-बारूद लेकर यहां-वहां आतंक फैलाते हैं, बल्कि ऐसे लोग ज्यादा खतरनाक हैं. वे हर नियम को मानने से मना करते हैं. वे टैक्स नहीं देना चाहते. सड़क पर चलते हुए नियम नहीं मानना चाहते. यहां तक कि कोविड के दौर में इन लोगों ने वैक्सीन लेने और मास्क पहनने से भी इनकार कर दिया था. दलील यही कि वे भी देश की तरह आजाद लोग हैं और कोई भी कानून उनके लिए नहीं.
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अदालतों और जजों पर ही कर रहे हैं केस
अगर उन्हें इसके लिए मजबूर किया जाए तो वे कोर्ट पहुंचकर अपना ही केस लड़ने लगते हैं. यहां तक कि फैसला करने वाले जजों के खिलाफ भी ये मुकदमा दर्ज कराने लगते हैं कि फलां जज ने अपने फैसले से उन्हें गुलाम बनाने की कोशिश की. इससे देश की अदालतों पर अलग से बोझ पड़ रहा है. वे लीगल सिस्टम को पूरी तरह से ध्वस्त करने के लिए लगातार कोशिश कर रहे हैं. वे हर कानून के खिलाफ इतने केस करते हैं कि अदालतें उलझकर रह जाएं. इसे पेपर टैररिज्म भी कहा जाने लगा है.
हिंसक हमले भी किए जा चुके
हद तब हो जाती है, जब अपने तर्कों में ये इतने खो जाएं कि लोगों पर हमला करने लगें. साल 1995 में एक अमेरिकी शख्स टैरी निकोलस ने एक सार्वजनिक बिल्डिंग पर हमला कर दिया. हमले में 160 से ज्यादा मौतें हुईं. निकोलस खुद को संप्रभु कहता और दूसरों से भी यही अपील करता था. जब किसी ने उसकी बात नहीं मानी तो सबक सिखाने के लिए उसने हमला कर दिया. ओकलाहोम सिटी बम विस्फोट के बाद दुनिया में इस नए आतंकवाद पर बात होने लगी.
एफबीआई में इसका जिक्र
साल 2011 में FBI के 'काउंटरटैररिज्म एनालिसिस सेक्शन' ने इसे आतंक की श्रेणी में रखते हुए कहा कि इस तरह की सोच वाले लोग घरेलू आतंक फैला सकते हैं, और इनपर समय रहते सख्ती लगानी चाहिए. यहां तक कि अमेरिका में बढ़ती परेशानियों के लिए भी सॉवरेन सिटिजन्स को जिम्मेदार माना गया. FBI के मुताबिक, देश में पिछले 5 सालों में आए 15 प्रतिशत से ज्यादा मामलों के लिए यही लोग जिम्मेदार हैं. हालांकि ये कितने लोग हैं, इस संख्या का खुलासा नहीं हो सका.
बनाने लगे अलग पहचान पत्र
खुद को देश के कानून से अलग मानने वाले लोग अपने लिए होममेड आईडी कार्ड्स तक बना लेते हैं और वही साथ लेकर चलते हैं. इनके पास न ड्राइविंग लाइसेंस होता है, न पासपोर्ट. और होता भी है तो उसे ये गलत मानने लगते हैं. अमेरिकी गैरसरकारी संस्था द सदर्न पवर्टी लॉ सेंटर (SPLC) अमेरिका में चल रही एक्सट्रिमिस्ट गतिविधियों पर नजर रखती है. उसने पाया कि ऐसे तथाकथित आजाद लोग घर पर ही अपने सारे कागजात और आईडी बना लेते हैं. इसपर आजादी या सॉवरिन सिटिजन लिखा होता है.
इन देशों में भी लोग दिखने लगे
अमेरिका से शुरू हुआ ये आंदोलन अब ज्यादातर पश्चिमी देशों में दिखने लगा है. कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया, अल्बर्टा में एक पूरा समुदाय बन चुका, जो खुद को संप्रभु कहते हुए टैक्स देने से मना करता है. इसी तरह ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, यूके में भी ये सोच दिखने लगी है.
एक तरफ ऐसे लोग हैं, जो देश के नागरिक होने के बावजूद खुद को वहां के कानून से अलग और आजाद मानते हैं, वहीं बहुत से ऐसे भी हैं, जिनके पास चाहकर भी किसी देश की नागरिकता नहीं. ये स्टेटलेस कहलाते हैं, यानी जो न तो किसी देश के कानून के तहत आता है, और न ही जिसपर कोई देश अपना कानून लागू कर सकता है. ये एक तरह से वैसा ही है, जैसे किसी के फिंगरप्रिंट का न होना. वो अपनी लगभग पहचान खो देता है. उसे किसी देश से खास सुविधा नहीं मिलती और न ही कोई देश उसपर अपनी सजाएं ही लागू कर सकता है.
क्यों कोई अनागरिक बन जाता है?
इसकी एक नहीं, कई वजहें हैं. एक बहुत कॉमन चीज है, शादी. जैसे कोई विदेशी मूल के शख्स से शादी करके उसके देश आए, और किसी वजह से उसे वहां की नेशनलिटी न मिल सके, और वो अपने देश की नागरिकता भी सरेंडर कर चुका हो. ऐसे में कुछ समय के लिए वो स्टेटलेस हो जाता है. बीच में भारत-नेपाल के बीच तनाव होने पर नेपाल ने भी कहा था कि वो भारत से आए बेटियों को नेपाली सिटिजनशिप नहीं देगा.
इन हालातों में भी रहता है डर
रिफ्यूजियों की संतानें भी स्टेटलेस होने के खतरे में रहती हैं. कई बार तकनीकी खामियां भी किसी की नागरिकता से छेड़छाड़ कर सकती हैं. जैसे कागजों में गड़बड़ी, या फिर बच्चे का जन्म के बाद रजिस्ट्रेशन न होना. सरोगेसी या फिर इंटरनेशनल अडॉप्शन में भी कई बार पेंच होने के कारण बच्चे को नागरिकता नहीं मिल पाती है.
कितने लोग स्टेटलेस हैं?
इसका कोई पक्का आंकड़ा नहीं. यूनाइटेड नेशन्स हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीस (UNHCR) के अनुसार नवंबर 2018 में दुनियाभर में लगभग 12 मिलियन लोगों के पास किसी देश की नागरिकता नहीं थी. संगठन का ये भी दावा है कि स्टेटलेस लोगों में 75 प्रतिशत से ज्यादा लोग माइनोरिटी समूहों से हैं और लगभग एक तिहाई बच्चे हैं. ये दुनिया के लगभग हर देश में हैं, जिनमें भारत भी शामिल है.