
हिटलर आज ही पैदा हुआ था. 133 साल पहले. अंध राष्ट्रवाद के पैरोकार जर्मनी के इस तानाशाह ने दुनिया और मानवता को अपनी सनक पूरा करने के लिए ऐसे-ऐसे दंश दिए जिन्हें मात्र याद कर आज भी रोम-रोम सिहर उठता है. ऑश्वित्ज़ (Auschwitz) कॉन्सेंट्रेशन कैंप (Concentration camp) से निकलती कराह को कौन भूल सकता है जहां नाजी यहूदियों को गैस चैंबर में जिंदा झोंक देते थे.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर की हैवानियत को दुनिया ने किताबों में पढ़ा, फिल्मों-नाटकों में देखा, कहानियों में सुना. हिटलर ने अपनी नस्ल की श्रेष्ठता के गुमान में न सिर्फ लाखों यहूदियों, जिप्सीयों, स्लावों का नरसंहार करवाया था. बल्कि 1933 से 1945 के बीच उसने जर्मन नागरिकों लगभग 75 हजार जर्मन नागरिकों का कोर्ट मार्शल करवाया और इन्हें नाजियों की कुख्यात जन अदालतों द्वारा मौत की सजा दिलवाई. ये वो जर्मन थे जो हिटलर के विरोध में उठ खड़े हुए थे. ये वो आजाद ख्याल नागरिक थे जो बेखौफ दुनिया को हिटलर की कारस्तानियां बताते थे.
खून का फव्वारा निकलता और सिर धड़ से अलग हो जाता
तानाशाह हिटलर को अपने ही सल्तनत में अपना ही विरोध कैसे बर्दाश्त होता? हिटलर और उसकी गेस्टापो (Gestapo) पुलिस ऐसे लोगों अपने तरीके से 'इंसाफ' देती थी. एक नाजी जज होता. आरोप कमोबेश सभी पर एक जैसे होते- देशद्रोह. ऐसे 'गुनाहों' की सुनवाई तेजी से होती और फैसला भी पहले से तय होता- मौत. कुछ ही दिनों में निर्दयी गेस्टापो पुलिस ऐसे लोगों की गरदनों को गिलोटिन (Guillotine) मशीन के धारदार ब्लेड के नीचे रखकर लीवर दबा देता. एक चीत्कार के साथ खून का फव्वारा निकलता और सिर धड़ से अलग हो जाता.
3 क्रांतिकारियों का ये था गुनाह
21 साल की सोफी शोल (Sophie Scholl), 24 साल का उसका भाई हंस सोल (Hans Scholl) और 24 साल का ही हंस का दोस्त क्रिस्टोफ प्रोब्स्ट (Christoph Probst). म्यूनिख यूनिवर्सिटी के इन 3 क्रांतिकारी स्टूडेंट को हिटलर की पुलिस ने ऐसी ही सजा दी थी. गिलोटिन के जरिए मौत.
इन क्रांतिकारियों के अपराधों की फेहरिस्त जानकर आप समझ पाएंगे कि हिटलर अंदर से कितना डरा हुआ रहता था. उसे हमेशा अपने जनता के विद्रोह का खौफ सताता रहता था और इसे कुचलने के लिए को अत्याचार की पराकाष्ठा तक जा सकता था.
इन तीनों क्रांतिकारियों पर विश्वविद्यालय में पर्चे बांटने का आरोप था. जी हां पर्चे बांटने का आरोप. इन पर्चों में रूस और पोलैंड में हिटलर के नाजी सेना के अत्याचार की कहानियां थीं, इस पर्चे में स्टालिनग्राद की लड़ाई में जर्मनी की शर्मनाक हार का विवरण था. जो कि बाद में द्वितीय विश्व युद्ध का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. दुनिया का सबसे क्रूर तानाशाह हिटलर इन तीन युवा विद्रोहियों की इस मामूली गुस्ताखी से तिलमिला उठा और इन्हें मौत की सजा मुकर्रर कर दी.
पहले की सपोर्ट, फिर हिटलर के खिलाफ तनकर खड़ी हो गई सोफी
सोफी शोल, हंस और क्रिस्टोफ की कहानी जर्मनी के बाहर कम ही पढ़ी सुनी और जानी गई है. सोफी शोल 1921 में जब जर्मनी में पैदा हुई तो ये देश उथल-पुथल से गुजर रहा था. 1918 में जर्मनी पहला विश्व युद्ध हार चुका था. बिस्मार्क की जर्मनी का स्वाभिमान कुचला जा चुका था. लोग सिस्टम और मौजूदा सरकार से रुष्ट थे. इसी का फायदा हिटलर ने उठाया. जब तक सोफी किशोरावस्था में आई हिटलर जर्मनी का लोकप्रिय नेता बन चुका था. इसी परिवार में कुछ साल पहले हंस शोल जन्म हुआ था. सोफी के 5 भाई बहन थे. क्रिश्चयन मूल्यों में विश्वास रखने वाले जर्मनी के इस मिडिल क्लास परिवार के बच्चे शुरू-शुरू में हिटलर से प्रभावित थे.
सोफी और हंस को हिटलर द्वारा दी जा रही 'न्यू जर्मनी' की थ्योरी में यकीन था. जो जर्मनी की पुरानी प्रतिष्ठा को वापस लाने की बात करता था. शुरुआत में सोफी शोल, हंस ने हिटलर और उनकी पार्टी नेशनल सोशलिस्ट पार्टी का समर्थन किया. उस समय भावनाओं के ज्वार में हंस हिटलर यूथ मूवमेंट में शामिल हो गया, जबकि सोफी NSP की शाखा लीग ऑफ जर्मन गर्ल्स में शामिल हो गई. उसने इस ग्रुप में तेजी से तरक्की की और 1935 में इसकी स्क्वैड लीडर बन गई.
सोफी के पिता रॉबर्ट शोल अपने बच्चों का हिटलर के प्रति झुकाव देखकर चकित थे. वे नाजियों के उभार को जर्मनी के लिए आने वाले खतरे की तरह देखते थे.
शीघ्र ही नाजियों नस्लबोध जाग गया. देश में नस्ल और जीन के आधार पर भेदभाव शुरू हो गया. लगभग 100 साल की हो चुकीं सोफी की बहन एलिजाबेथ ने कुछ साल पहले एक इंटरव्यू में डेली मेल को बताया था, "सबसे पहले हमनें देखा, फिल्मों- गानों पर बैन लगाए जाने लगे. अब कोई वह नहीं पढ़ सकता जो कोई चाहता है, खास किस्म के गानों पर मनाही थी, फिर नस्लीय कानून आया. यहूदी बच्चों को स्कूलों से निकाला जाने लगा, उनपर जुल्म होने लगे."
सोफी और हंस के सामने फासिस्ट जर्मनी का असली चेहरा अब सामने आ रहा था. इनकी तर्क शक्ति सक्रिय हो उठी. हिटलर से इनका मोह भंग शुरू हो गया और फिर 1939-40 के लगभग 18 साल की युवा सोफी और 21 साल के हंस ने हिटलर से टकराने की ठान ली.
'Don't tell me it's for the Fatherland'
द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत से ही हिटलर महात्वाकांक्षाओं के प्रचंड ज्वार पर सवारी कर रहा था. उसने युद्ध में 15-16 साल के बच्चों को लगाना शुरू कर दिया. सोफी की मां इन बच्चों के लिए कपड़े सिलती थी. सोफी इस घटनाक्रम को देख रही थी. सोफी का ब्वॉयफ्रेंड फ्रिट्ज हार्टनागल भी ऐसे ही एक मोर्चे पर तैनात था. सोफी युद्ध के लिए इस पागलपन को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी. इस बार उसने प्रेमी को पत्र लिखा, "मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कैसे कुछ लोग लगातार दूसरे लोगों के जीवन को जोखिम में डालते हैं. मैं इसे कभी नहीं समझ पाऊंगी और मुझे लगता है कि यह भयानक है. मुझे मत बताओ कि यह पितृभूमि के लिए है."
नाजी साम्राज्यवाद और सैन्यवाद पर प्रहार
इस बीच मई 1942 में सोफी म्यूनिख विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आ गई. हंस यहां पहले से ही डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था. यहां से ही सोफी की जिंदगी तेजी से बदलने वाली थी. सोफी यहां जीव विज्ञान और दर्शन शास्त्र की पढ़ाई करने लगी. इस बीच यहां हंस और उसके कुछ दोस्त एक अंडरग्राउंड आंदोलन में शामिल हो चुके थे. इस आंदोलन का नाम था द व्हाइट रोज मूवमेंट. जून 1942 में चुनिंदा लोगों का ये समूह म्यूनिख उसके आसपास पर्चे छापना और बांटना शुरू कर दिया. इन लोगों ने नाज़ी अमानवीयता, साम्राज्यवाद और सैन्यवाद पर प्रहार किया. इन लोगों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी मांगी और अपराधी तानाशाही राजसत्ता से नागरिकों की हिफ़ाज़त के लिए जर्मन जनता से प्रतिरोध आन्दोलन में शामिल होने का आह्वान किया.
'आजादी' और 'DOWN WITH HILTER' के नारे
जनवरी 1943 के अन्त में पूर्वी मोर्चे पर स्टालिनग्राड की लड़ाई में जर्मन फ़ौज की शर्मनाक हार और आत्मसमर्पण ने युद्ध की दिशा बदल दी. द व्हाइट रोज मूवमेंट ने अपना आंदोलन तेज कर दिया और अपने छठे आखिरी पर्चे में हिटलर की नीतियों पर हमला किया. फरवरी में छात्रों ने म्यूनिख विश्वविद्यालय और अन्य सरकारी इमारतों पर ‘डाउन विद हिटलर’ और ‘आज़ादी’ जैसे नारे भी लिखे.
इधर सोफी का ब्वॉयफ्रेंड बॉर्डर से सारी खबरें सोफी को बता रहा था इनमें नाजी सैनिकों अत्याचार की कहानियां थी, युद्ध का कुप्रबंधन था. इन सारी सूचनाओं को द व्हाइट रोज जनता के सामने परोस रहा था. इस आखिरी पर्चे में इन्होंने लिखा, जर्मनी का नाम हमेशा के लिए बदनाम हो जाएगा अगर जर्मनी के युवा नहीं जागते हैं और बदला लेकर प्रायश्चित नहीं करते हैं. पर्चे में लिखा गया था कि जैसे 1813 में नेपोलियन का आतंक खत्म हुआ था उसी तरह 1943 में नेशनल सोशलिस्ट का खौफ का खात्मा होगा.
नाजी तंत्र ने सोफी और हंस को पकड़ा
द व्हाइट रोज ने फरवरी में अपनी बात यूनिवर्सिटी में पहुंचाने की योजना बनाई. सोफी और हंस इसी विश्वविद्यालय के छात्र थे. 18 फरवरी 1943 को दोनों एक सूटकेस में पर्चे लेकर विश्वविद्यालय गए और क्लासरूम के बाहर पर्चे रख दिए. सोफी के पास कुछ पर्चे बच गए थे. उसे सोफ़ी ने ऊपर से हॉल में फेंक दिया जिसे एक कर्मचारी ने देख लिया. सोफी और हंस बाहर निकल ही रहे थे कि कर्मचारी की सूचना पर गेस्टापो ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया.
यूनिवर्सिटी का ये हॉल आज एतिहासिक स्थान बन गया है जहां कई फिल्मों, डॉक्युमेंट्री और नाटकों की शूटिंग हुई है. सातवें पर्चे का ड्राफ हंस के बैग में था. इसी के आधार पर नाजी पुलिस ने उसी दिन क्रिस्टोफ प्रोब्स्ट को गिरफ्तार कर लिया.
आखिरकार... शुरुआत किसी को तो करनी थी
नाजियों की अदालत में पर्चा फेंकने का जुर्म इनके लिए देशद्रोह बन गया. नाजी जज रोलैण्ड फ़्रेसलर ने जब सोफी से पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया तो सोफी ने जो जवाब दिया वो आज भी क्रांति और विरोध का स्वर बना हुआ है.
सोफी ने कहा, "आखिरकार... किसी को शुरुआत तो करनी थी. हमने जो लिखा और कहा, उस पर कई अन्य लोग भी विश्वास करते हैं. वे हमारे जैसे व्यक्त करने की हिम्मत नहीं करते. तुम्हें पता है कि युद्ध हारा जा चुका है लेकिन आप में इसका सामना करने की हिम्मत क्यों नहीं है?."
18 को गिरफ्तारी, 22 को मौत की सजा का ऐलान
18 को इनकी गिरफ्तारी हुई थी. इनकी सुनवाई मात्र 3 दिन चली. इस बीच सर कलम किए जाने से पहले सोफी और हंस को एक बार अपने माता-पिता से मिलने का मौका मिला. कहते हैं कि तब सोफी ने अपने माता-पिता से कहा था कि वो बिना किसी पश्चाताप के मृत्यु को चुनने जा रही है.
मात्र 3 दिन की सुनवाई के बाद सोफी, हंस और क्रिस्टोफ को नाजी अदालत ने देशद्रोह के आरोप में 22 फरवरी 1943 मौत की सजा सुनाई. 22 फरवरी को ही शाम बजे सोफी को, 5 बजकर 2 मिनट पर हंस और 5 बजकर 5 मिनट पर क्रिस्टोफ को गिलोटीन की मशीन में गर्दन डालकर सिर को धड़ से अलग कर दिया गया.
आज का सूरज कितना चमकदार है, और मुझे जाना है- सोफी के आखिरी शब्द
सोफी ने मौत की सजा से पहले जो कहा वो उसके इरादों की झलक है. सोफी ने कहा था, "आज का सूरज कितना चमकदार है, और मुझे जाना है. लेकिन इन दिनों कितने लोगों को युद्ध के मैदान में मरना पड़ता है, कितने युवा, होनहार जिंदगियां? मेरी मौत से क्या फर्क पड़ता है अगर हमारे कदमों से हजारों लोग आगाह हो जाते हैं, सतर्क हो जाते हैं. छात्रों में निश्चित रूप से विद्रोह होगा."