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ISIS के खात्मे के बाद क्या हुआ उन हजारों महिलाओं के साथ, क्यों कोई देश अपने 'भटके हुए' नागरिकों को अपनाने को राजी नहीं?

सीरिया और इराक बॉर्डर पर नायलॉन और पॉलिएस्टर से बने टेंट्स लगे हैं. इनमें हजारों की संख्या में महिलाएं और बच्चे हैं. ये वो लोग हैं, जो किसी समय इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (ISIS) का हिस्सा थे. इनमें भी ज्यादातर विदेशी हैं. आतंकी के ठप्पे के बाद अब न तो ये अपने देश लौट पा रहे हैं, न ही सीरिया के पास इन्हें देने को कुछ है.

सीरिया के शरणार्थी कैंप. सांकेतिक फोटो (Getty Images) सीरिया के शरणार्थी कैंप. सांकेतिक फोटो (Getty Images)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 05 मई 2023,
  • अपडेटेड 12:17 PM IST

साल 2013 में जब इस्लामिक स्टेट बना, तो उसका एजेंडा बिल्कुल साफ था. वो ऐसी संस्थाओं और लोगों को टारगेट करना, जो उसके मुताबिक मजहब का पालन ढंग से नहीं कर रहे थे. पहले उन्हें समझाया जाता, और न मानने पर हत्या कर दी जाती. दो सालों के भीतर ISIS ने सीरिया से लेकर इराक की बड़ी जमीन पर कब्जा जमा लिया. अब लगभग एक करोड़ लोग उसकी हुकूमत में थे. साथ ही दूसरे देशों के लोग भी चरमपंथी गुट की तरफ खिंचने लगे. 

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कहां से और क्यों आए ये लोग?

साल 2019 में जब कथित तौर पर ISIS का खात्मा हुआ तो विदेशी मूल के ये लोग बेघर हो गए. अब सीरिया के रिफ्यूजी शिविरों में रहते लगभग 60 हजार लोग नरक का जीवन जी रहे हैं. आतंकी का ठप्पा लगने की वजह से अपने ही मुल्क इन्हें अपनाने को राजी नहीं. न ही सीरिया के पास इतने पैसे और सुविधाएं हैं, कि वो इन्हें अपने यहां नागरिक बना ले. कोढ़ में खाज की तरह सबसे बड़ी मुश्किल ये कि कैंपों में रहने वाले ज्यादातर शरणार्थी या तो महिलाएं हैं, या टीनएज बच्चे, या फिर छोटे बच्चे, जिनका जन्म ही ISIS में जिहादियों के रेप से हुआ. 

क्या चाहता था इस्लामिक स्टेट?

ISIS के खात्मे और उसके बाद उपजे इन हालातों को समझने के लिए एक बार ये देखते हैं कि इस्लामिक स्टेट आखिर किस तरह गिरा. साल 2016 में इसकी खलीफागिरी अपने चरम पर थी. आए-दिन वो किसी न किसी सरकारी संस्था को निशाना बनाता और उसके रिसोर्सेज पर कब्जा कर लेता. उसका सीधा कहना था कि लोग धर्म के अनुसार चलें.

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सांकेतिक फोटो (Getty Images)

चरमपंथी मुस्लिम गुट ने दूसरे मजहबों को अलग तरह से परेशान करना शुरू किया. उनपर टैक्स लगाए जाने लगे. महिलाओं को बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी, उनका काम बीवी और रसोइए तक सीमित हो चुका. ड्रेस कोड लागू हो चुका था. 

इन शहरों पर हुआ कब्जा

खुद तो खलीफा घोषित करने वाले गुट ने सीरिया और इराक के सभी बड़े शहरों, जैसे रक्का, मोसुल, फलुजेह दियाला, किरकर पर कब्जा जमा लिया. यहां तक कि इराक की राजधानी बगदाद तक भी इसकी धमक सुनाई देने लगी. कुल मिलाकर लगभग 1 लाख वर्ग किलोमीटर की टैरिटरी पर इसका पक्का राज चलता था, जबकि आसपास के इलाकों में भी असर दिखने लगा था. 

क्यों अमेरिका भी घबराया?

ये चरमपंथ का दौर था, जिसमें युवा आबादी के जत्थे के जत्थे इस्लामिक एक्सट्रीमिस्ट होने लगे. यहां तक कि अमेरिका, यूरोप और ब्रिटेन से लोग भागकर इस्लामिक स्टेट जॉइन करने लगे. ये खतरे की घंटी थी, जिसने अमेरिका और बाकी देशों को अलर्ट कर दिया. साल 2016 में इराक और सीरिया की सरकारों ने पहली बार इसके खिलाफ खुलकर लड़ाई छेड़ी. अमेरिकी फोर्स ने इसमें उनका साथ दिया. यहीं से इस्लामिक स्टेट का जादू टूटने लगा. 

सांकेतिक फोटो (AFP)

इस तरह हुआ सफाया

सबसे पहले इराक के मोसुल और सीरिया के रक्का में इसके हेडक्वार्टर खत्म हुए. लड़ाई तब भी चलती रही. इसका खात्मा तब हुआ, जब इसका लीडर अबु बक्र-अल बगदादी मारा गया. इसके बाद से इस्लामिक स्टेट लगातार कमजोर होता गया और मार्च 2019 में लगभग पूरी तरह खत्म हो गया. कम से कम एलान तो यही हुआ.

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वैसे कई मीडिया रिपोर्ट्स ये मानती हैं कि इतना मजबूत हो चुका आतंकी संगठन एकदम से खत्म नहीं हुआ, बल्कि इसके लोग भागकर अफ्रीका चले गए और वहीं से अपनी जड़ें फैला रहे हैं. बीच-बीच अफ्रीकी देशों में चरमपंथी हरकतों की खबरें आती भी रहती हैं. 

कौन रह रहा था उन शहरों में?

अब सवाल ये है कि इस्लामिक स्टेट के खत्म होने के साथ वहां रहते लोगों के साथ क्या हुआ? वे कहां गए? ये दो तरह के लोग थे- एक तो वो समूह था, जो विदेशों से भागकर इस्लामिक स्टेट का हिस्सा बनने पहुंचा था. इनमें टीन-एजर्स भी थे, और एडल्ट पढ़े-लिखे लोग भी. इसके अलावा एक दूसरा ग्रुप था, जो सीरिया और इराक के प्रभावित इलाकों में रहने के कारण ISIS की ज्यादतियां झेल रहा था.

दोनों ही तरह के लोगों की हालत काफी खराब थी. सब के सब खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे. औरतें या तो गर्भवती थीं, या फिर दो-तीन सालों के भीतर दो-तीन बच्चों को जन्म दे चुकी थीं. 

सांकेतिक फोटो (Getty Images)

रखा जाने लगा कैंपों में

इंटरनेशनल रेस्क्यू कमेटी की मानें तो ऐसे लोगों की संख्या 60 हजार से भी ज्यादा थी. मार्च 2019 के बाद इन्हें अलग-अलग कैंपों में भेजा जाने लगा. ज्यादातर रिफ्यूजियों को उत्तरपूर्वी सीरिया में रखा गया. इस कैंप को अल-होल शरणार्थी शिविर कहा गया. सीरिया और इराक के बॉर्डर पर बसे इस कैंप में सबसे ज्यादा संख्या में शरणार्थी हैं. ज्यादातर लोग विदेशी मूल के हैं लेकिन उनके खुद के देश उन्हें अपनाने को तैयार नहीं. नागरिकता छीनी जा चुकी. अब ये लोग कैंपों में रहते हुए मानवाधिकार संस्थाओं से उम्मीद लगाए हुए हैं. 

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क्या कहते हैं ह्यमन राइट्स संस्थान?

एक इंटरनेशनल संस्था है, मेडिसिन सेन्स फ्रंटियर्स (MSF), जो युद्ध या तनाव झेलते इलाकों में लोगों को मेडिकल-सुविधाएं देती है. साल 2021 में इसके दावा किया कि कैंप एक तरह की जेल हैं. यहां रहने वालों को खुद नहीं पता कि वे कितने समय तक वहां रहेंगे. साल 2021 में इन कैपों में रहते 79 बच्चों की मौत हो गई. कोई जलकर मरा तो कोई किसी इंफेक्शन से.

अस्पताल भी समय पर नहीं दे पाते इलाज 

इन जगहों पर रहते शरणार्थियों को आसपास के अस्पताल भी शक की नजर से देखते हैं. और ऐसा कोई मामला आए तो भर्ती करने में काफी देर लगा देते हैं. कथित तौर पर स्थानीय प्रशासन भी इनपर यकीन नहीं करता क्योंकि एक तो वे विदेशी हैं, दूसरा इस्लामिक चरमपंथ पर यकीन करने वाले रह चुके हैं. 

सांकेतिक फोटो (Reuters)

अफ्रीकी मूल के लोगों का और बुरा हाल

अल होला कैंपों में ही एक हिस्सा वो है, जहां 'थर्ड-कंट्री नेशनल्स' रखे गए. ये अफ्रीकी देशों से आए लोग हैं, जिनपर वैसे ही लगभग सारे देशों की नजरें टेढ़ी रहती हैं. यहां पर बंदिशें और भी ज्यादा हैं. वे बाहर भी नहीं निकल सकते. गर्भवती महिलाएं अक्सर टेंटों में ही बच्चों को जन्म दे देती हैं. इसके बाद इंफेक्शन या देखभाल की कमी से नवजातों की मौत भी यहां कॉमन है. 

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इन देशों से आए थे ज्यादा लोग

यूनाइटेड नेशन्स ऑफिस फॉर द कोऑर्डिनेशन ऑफ ह्यूमेनिटेरियन अफेयर्स की 2021 की रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि कैंपों में रहते ज्यादातर लोग यूके, ऑस्ट्रेलिया, चीन, स्पेन,  फ्रांस, स्विटजरलैंड, टर्की, स्वीडन और मलेशिया से हैं. इनमें से कुछ ही देशों ने अपने नागरिकों को वापस स्वीकार किया. ज्यादातर ने उनकी नागरिकता छीन ली. मिसाल के तौर पर ब्रिटेन से भारी शमीमा बेगम का केस भी कुछ ऐसा ही रहा.

सांकेतिक फोटो (AFP)

ISIS वह दुल्हन, जिसे कोई देश नहीं अपना रहा

बांग्लादेशी मूल की शमीमा 15 साल की उम्र में जब ISIS में भर्ती के लिए भागीं, तो उनके पास ब्रिटिश नागरिकता थी. आतंकी घोषित होने के बाद ये नागरिकता छीन ली गई. अब बांग्लादेश भी उन्हें अपनाने से इनकार कर चुका. ISIS दुल्हन के नाम से चर्चा में आई शमीमा का केस वैसे नामी वकील और मानवाधिकार संस्थाएं लड़ रही हैं, लेकिन कोई भी उन्हें अपनाने को राजी नहीं. यही हाल बाकियों का है. 

इसके अलावा कई कैंप्स हैं, जो सीरिया और इराक की सीमा पर बने हुए हैं. ये बाड़ों से घिरे इलाके हैं, जहां टैंटों में महिलाएं और बच्चे रहते हैं. इस्लामिक स्टेट के असर में आए लोगों के अलावा यहां हजारों की संख्या में वे लोग भी रहते हैं, जिनसे उस दौर में घरबार छीन लिए गए, या फिर युद्ध में जिन्होंने परिवार गंवा दिया. यूनाइटेड नेशन्स के अलावा कई मानवाधिकार संस्थाएं यहां काम कर रही हैं, इसके बाद भी लगातार शोषण की खबरें आती रहती हैं.

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