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'भारत ने कच्चातिवु द्वीप वापस लिया तो...', जानें डिप्लोमैट क्यों कर रहे विवाद को लेकर आगाह

कच्चातिवु द्वीप पर विवाद को लेकर पूर्व राजनयिकों ने मोदी सरकार को सावधानी बरतने की सलाह दी है. उनका कहना है कि जमीनी हकीकत को बदलना मुश्किल है. राजनयिकों की मानें तो, इससे देश की विश्ववसनीयता पर चोट पहुंचेगी.

कच्चातिवु द्वीप को लेकर लोकसभा चुनाव से पहले विवाद खड़ा हो गया है (Photo- Reuters) कच्चातिवु द्वीप को लेकर लोकसभा चुनाव से पहले विवाद खड़ा हो गया है (Photo- Reuters)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 02 अप्रैल 2024,
  • अपडेटेड 4:54 PM IST

साल 2014 में जब तमिलनाडु की पार्टियों ने मिलकर कच्चातिवु द्वीप को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी तब केंद्र सरकार ने इसके खिलाफ चेतावनी दी थी. रिपोर्ट्स के मुताबिक, केंद्र सरकार ने कहा था कि अगर इस द्वीप को वापस लेना है तो श्रीलंका के साथ युद्ध करना पड़ेगा.

सुप्रीम कोर्ट में तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा था, '1974 में हुए एक समझौते के तहत कच्चातिवु श्रीलंका को मिल गया था. यह श्रीलंका को सौंप दिया गया था और अब यह दोनों देशों के बीच एक सीमा की तरह काम करता है. आज हम इसे वापस कैसे ले सकते हैं? अगर आप चाहते हैं कि कच्चातिवु एक बार फिर हमारा हो तो आपको इसे पाने के लिए युद्ध करना पड़ेगा.'

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एक दशक बाद लोकसभा चुनाव से ठीक पहले इस मामले ने तूल पकड़ा है जिसने भारत और श्रीलंका के बीच तनाव की स्थिति पैदा कर दी है. भारत और श्रीलंका के रिश्तों को समझने वाले पूर्व राजनयिकों ने इस मामले को लेकर सतर्कता बरतने की सलाह दी है.

पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (2010-2014) और श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त रहे शिव शंकर मेनन ने 'द हिंदू' से बातचीत में कहा, 'जमीन पर यथास्थिति को बदल पाना बेहद मुश्किल है, लेकिन इस तरह के मुद्दे को देश के नेतृत्व की तरफ से उठाया जाना देश की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाएगा और यह निजी स्वार्थ हो सकता है.'

'जब सरकारें बदलती हैं तब संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता...'

श्रीलंका में उच्चायुक्त रह चुके अशोक कांता ने 'द हिंदू' से बातचीत में कहा कि जब सरकारें बदलती हैं तब संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता नहीं बदलती. वो कहते हैं, 'अगर सरकार इस तरह को मामलों को खोलती है तो यह एक बुरा उदाहरण पेश करता है. अगर वास्तविक समझौते में कोई बदलाव होता है तो भारत के पड़ोसियों के साथ समझौतों का पूरा खांचा ही गड़बड़ हो जाएगा.'

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पूर्व विदेश सचिव और श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त रही निरुपमा मेनन राव का कहना है कि भारत खासकर, तमिलनाडु के राजनीतिक ट्रेंड पर श्रीलंका में कड़ी नजर रखी जाती है और इस मामले से भारत-श्रीलंका के द्विपक्षीय रिश्ते अछूते नहीं रहेंगे.

वो कहती हैं कि साल 2022 में ही कच्चातिवु द्वीप को लेकर मोदी सरकार पिछली सरकार के रुख पर कायम थी और कोर्ट में कहा था कि कच्चातिवु द्वीप को वापस लेना असंभव है.

कच्चातिवु पर 2022 तक भाजपा कांग्रेस के रुख पर थी कायम

साल 2014 से 2022 के बीच मंत्रालयों की वेबसाइट्स पर सरकार ने पिछली सरकारों की तरह ही लगातार कहा है कि- भारत-श्रीलंका समुद्री सीमा में कच्चातिवु द्वीप श्रीलंका के हिस्से में पड़ता है.

साथ ही, 15 मार्च 2017 को संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए विदेश राज्य मंत्री जनरल वी के सिंह ने कहा था कि श्रीलंकाई सरकार का भारतीय मछुआरों को पकड़ने का संबंध कच्चातिवु द्वीप से नहीं है.

इस बात को लेकर पूर्व राजनयिक मेनन पूछते हैं, 'अगर पीएम मोदी पिछली सरकार के समझौते पर सवाल उठाते हैं तो बाद की सरकारें भी मोदी सरकार के अभी किए जा रहे फैसलों पर क्यों सवाल नहीं उठाएंगी?'

राजनयिकों का कहना है कि 1974 में भारत-श्रीलंका के बीच कच्चातिवु द्वीप का समझौता दोनों देशों के रिश्तों को सुधारने में बेहद अहम रहा है.

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समझौते के तहत यह तय हुआ था कि द्वीप श्रीलंका के समुद्री क्षेत्र में पड़ता है फिर भी भारतीय मछुआरों को ये अधिकार होगा कि वो सेंट एंथनी डे मनाने के लिए द्वीप पर स्थित चर्च में जा सकेंगे और वहां अपने जाल भी सुखा सकेंगे. हालांकि, भारतीय मछुआरों को वहां मछली पकड़ने की अनुमति नहीं मिली और इसी बात को लेकर तमिलनाडु में असंतोष की भावना रही है.

कैसे शुरू हुआ कच्चातिवु का विवाद?

बीते रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ट्वीट कर कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधते हुए कहा कि पार्टी ने जानबूझकर कच्चातिवु द्वीप श्रीलंका को दे दिया.

पीएम मोदी ने आरटीआई में मिले जवाब पर आधारित एक रिपोर्ट के हवाले से एक्स पर लिखा, 'ये चौंकाने वाला मामला है. नए तथ्यों से पता चला है कि कांग्रेस ने जानबूझकर कच्चातिवु द्वीप श्रीलंका को दे दिया था. इस बात को लेकर हर भारतीय गुस्से में है और इस बात ने एक बार फिर यह मानने पर मजबूर कर दिया है कि हम कांग्रेस पर भरोसा नहीं कर सकते. भारत की अखंडता, एकता और हितों को कमजोर करना ही कांग्रेस के काम करने का तरीका है जो 75 सालों से जारी है.'

सोमवार को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया कि कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों ने कच्चातिवु द्वीप को लेकर उदासीनता दिखाई और भारतीय मछुआरों की अनदेखी की. उन्होंने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने 1974 में समुद्री सीमा समझौते में श्रीलंका को दिए गए कच्चातिवु द्वीप को 'छोटा द्वीप' और 'छोटी चट्टान' कहा था.

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कांग्रेस का पलटवार

कांग्रेस ने इन आरोपों पर पलटवार करते हुए कहा है कि ये आरोप बेतुके हैं. राज्यसभा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम ने कहा, 'आरोप बेतुके हैं. यह समझौता 1974 और 1976 में हुआ था. पीएम मोदी ने एक हालिया आरटीआई जवाब का जिक्र किया है. उन्हें 27 जनवरी 2015 के आरटीआई जवाब का भी जिक्र करना चाहिए जब विदेश मंत्री एस जयशंकर विदेश सचिव थे. 2015 के आरटीआई जवाब में स्पष्ट कहा गया है कि समझौते के बाद यह द्वीप अंतरराष्ट्रीय सीमा के श्रीलंकाई हिस्से में है.'

कितना बड़ा है कच्चातिवु द्वीप?

तमिलनाडु और श्रीलंका के बीच स्थित कच्चातिवु द्वीप बंगाल की खाड़ी को अरब सागर से जोड़ता है. 285 एकड़ में फैला यह द्वीप आकार में दिल्ली के लाल किले से थोड़ा बड़ा है.

रिपोर्ट्स के मुताबिक, श्रीलंका ने द्वीप पर सुरक्षा को देखते हुए नौसेना की एक टुकड़ी तैनात की है जो समुद्री इलाकों के साथ-साथ सेंट एंथनी चर्च की रक्षा का जिम्मा संभालती है.

श्रीलंका के रक्षा मंत्रालय की तरफ से जारी आंकड़ों के मुताबिक, द्वीप पर लगभग 4,500 लोग रहते हैं. 

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