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दुनिया का सबसे जहरीला द्वीप, जहां आबादी होने के बाद भी 10 सालों तक अमेरिका ने किया न्यूक्लियर टेस्ट

दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद जापान से छीने एक द्वीप पर अमेरिका ने न्यूक्लियर टेस्ट शुरू किया. वहां एक-दो नहीं बल्कि पूरे 67 न्यूक्लियर वेपन आजमाए गए. ये हिरोशिमा विस्फोट से हजार गुना से भी ज्यादा खतरनाक थे. मार्शल आइलैंड्स नाम के द्वीप-समूह में आज हर जगह जहर घुला हुआ है. यहां तक कि इसे दुनिया का सबसे घातक द्वीप समूह माना जाता है.

मार्शल आइलैंड्स नाम के द्वीप-समूह में लंबे समय तक न्यूक्लियर टेस्ट्स हुए. सांकेतिक फोटो (Getty Images) मार्शल आइलैंड्स नाम के द्वीप-समूह में लंबे समय तक न्यूक्लियर टेस्ट्स हुए. सांकेतिक फोटो (Getty Images)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 26 अप्रैल 2023,
  • अपडेटेड 12:44 PM IST

आज ही के दिन साल 1986 की अलसुबह चेर्नोबिल परमाणु संयंत्र में विस्फोट हुआ. दुर्घटना में हजारों लोग प्रभावित हुए, जबकि सैकड़ों लोगों की मौत कुछ ही सालों के भीतर कैंसर से हुई. चेर्नोबिल को दुनिया का सबसे भयावह परमाणु हादसा कहते हैं, जिसका असर अब भी है. लेकिन कई और जगहें हैं, जो इससे ज्यादा रेडियोएक्टिव हैं. इसमें अमेरिका का मार्शल आइलैंड सबसे ऊपर है. इस छोटे से द्वीप-समूह पर अमेरिका ने 67 परमाणु टेस्ट किए.

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किस तरह का खतरा है द्वीप पर?
प्रशांत महासागर के बीचों-बीच मार्शल द्वीप-समूह है, जहां 50 हजार से ज्यादा लोग रहते हैं. ये लोग भी खतरे में हैं क्योंकि समुद्र का स्तर बढ़ने के कारण द्वीप डूब रहे हैं. लेकिन एक और खतरा इससे कहीं बड़ा है. यहां की एक द्वीप बिकिनी आइलैंड में रेडियोएक्टिव तत्वों की मात्रा चेर्नोबिल से लगभग हजार गुना ज्यादा है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने साल 2019 में इस द्वीप पर की रिसर्च में डराने वाली बातें पाईं. यहां की मिट्टी, पानी और हवा में जहर ही जहर है. ये रेडियोएक्टिव जगह है, जहां रहना खतरे से खाली नहीं. 

अमेरिका ने शुरू किया एक ऑपरेशन
दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद भी दुनिया में हलचल थी. सभी बड़े देश पूरी तैयारी में थे कि अगर दोबारा वॉर छिड़ी तो वे खुद को कैसे बचाएंगे. अमेरिका भी इस डर से अलग नहीं था. उसने साल 1946 में मार्शल द्वीप समूह के बिकिनी आइलैंड पर परमाणु हथियारों की टेस्टिंग शुरू कर दी. इसे ऑपरेशन क्रॉसरोड्स नाम दिया गया.

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लेकिन सवाल ये है कि अमेरिका ने अपने यहां टेस्ट करने की बजाए एक सुदूर आइलैंड को क्यों चुना. तो उसने खुद माना कि वो ज्यादा से ज्यादा टेस्ट करने के इरादे में है और इसमें उनके लोगों पर खतरा हो सकता है.

सांकेतिक फोटो (Getty Images)

क्या आइलैंड खाली पड़ा था?
मार्शल आइलैंड तब अमेरिकी प्रशासन के तहत आता था. असल में साल 1945 में दूसरे वर्ल्ड वॉर के खत्म होते हुए ही अमेरिका ने जापान के अधीन आते इस आइलैंड पर कब्जा कर लिया था. इस द्वीप से उसे खास मतलब नहीं था. यहां किसी तरह का विकास कार्य चलाने की बजाए उसने यहां न्यूक्लियर टेस्ट शुरू कर दिया. साल 1946 से लेकर अगले दस सालों के भीतर यहां 67 न्यूक्लियर टेस्ट हुए. यहां तक कि दुनिया का पहला हाइड्रोजन बम, जिसे आइवी माइक नाम दिया गया था, उसकी जांच भी यहीं हुई. इसके बाद कई हाइड्रोजन बम टेस्ट हुए. ये हिरोशिमा पर गिरे परमाणु बम से हजार गुना से भी ज्यादा घातक थे. 

इतना खतरनाक था विस्फोट
अगर 10 सालों के भीतर हुए इन परमाणु टेस्ट्स को बराबर बांटा जाए तो मान सकते हैं कि इस आइलैंड पर इस पूरे दशक में लगभग 1.6 गुना हिरोशिमा-विस्फोट रोज होता रहा. 

इस तरह का हुआ एक्शन
उस दौरान बिकिनी आइलैंड पर जितने भी लोग रहते थे, उन्हें वहां से उठाकर अमेरिका भेज दिया गया. बहुत से ऐसे लोग भी थे, जो अपनी जगह छोड़कर जाने को राजी नहीं हुए. तब भी तत्कालीन अमेरिकी सरकार ने टेस्ट का अपना इरादा नहीं छोड़ा, बल्कि एक के बाद एक जांचें होती रहीं. मिट्टी जहरीली होने लगी और बहुत सी मौतें भी होने लगीं. तब सेना ने लोगों को जबर्दस्ती उठाकर रॉजेनलैप और अट्रिक द्वीपों पर भेज दिया. 

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सांकेतिक फोटो (Getty Images)

द्वीपीय आबादी को कमतर माना गया
दुनिया तब अपनी ही परेशानियों में डूबी हुई थी. देश खुद को बचा रहे थे. ऐसे में किसी का ध्यान मार्शल आइलैंड पर मची जहरीली तबाही पर नहीं गया. यहां तक कि मार्शलीज ने यूनाइटेड नेशन्स तक में अमेरिका के खिलाफ अपील की, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. वॉशिंगटन पोस्ट की एक लंबी रिपोर्ट कहती है कि मामले के दौरान द्वीप के लोगों के लिए एक वाक्य इस्तेमाल हुआ- वे हमसे ज्यादा चूहों से मिलते हुए लोग हैं! 

विस्फोट के बाद क्या हुआ?
एक खाली द्वीप पर जब विस्फोट हुआ, तो धूल-धुएं का गुबार उठा. नीली-काले रंग का ये गुबार उन सारे आइलैंड्स तक भी पहुंचा, जहां लोग रहते थे. तीन ही दिनों के भीतर लोग स्किन और आंखों में तीखी जलन से परेशान होने लगे. बच्चों के सिर से बालों के गुच्छे निकलने लगे. उनके शरीर पर बड़े-बड़े फफोले पड़ गए. ज्यादातर लोग उल्टियां करने लगे. तब जाकर अमेरिकी अधिकारियों ने लोगों को अमेरिका भेजकर इलाज शुरू करवाया. पता लगा कि उनके खून में रेडियोएक्टिव स्ट्रोनियम घुल चुका है. 

मिट्टी में मिलने लगा जहर
आखिरकार साल 1986 में अमेरिका ने मार्शल आइलैंड को आजादी दी. साथ में 150 मिलियन डॉलर का मुआवजा भी दिया गया. इसके बाद यहां लोग बसने लगे, लेकिन बिकिनी और रॉजेनलैप द्वीप अब भी खाली पड़े हैं. यहां की मिट्टी के बारे में वैज्ञानिक मानते हैं कि उसमें चेर्नोबिल से 10 से हजार गुना ज्यादा रेडियोएक्टिव तत्व हैं. इनमें प्यूटोनियम, यूरेनियम और स्ट्रोन्टियम 90 शामिल हैं. इन तत्वों के चलते यहां रहने वाले लोग ब्लड कैंसर और बोन कैंसर की चपेट में आ रहे हैं.

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सांकेतिक फोटो (AFP)

कई रिपोर्ट्स के बाद भी इसपर कोई रिसर्च नहीं हुई कि वहां की आबादी में रेडियोएक्टिव चीजों से होने वाली बीमारियों की दर कितनी ज्यादा है. खुद यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एनर्जी ऑफिस ऑफ साइंटिफिक एंड टेक्निकल इंफॉर्मेशन ने इसपर स्टडी निकाली. लेकिन इसमें भी रेडिएशन की दर और खतरों पर बात नहीं है. 

अब एक बार चेर्नोबिल के बारे में भी जानते चलें
वर्ल्ड न्यूक्लियर एसोसिएशन के अनुसार चेर्नोबिल न्यूक्लियर पावर प्लांट, यूक्रेन की राजधानी कीव से 130 किलोमीटर उत्तर और पड़ोसी मुल्क बेलारूस से 20 किलोमीटर दक्षिण की ओर है. इससे लगभग 3 किलोमीटर दूर प्रीप्यत शहर बसा हुआ है. यहां पर साल 1986 में करीब 50 हजार लोग रहते थे. प्लांट से करीब 15 किलोमीटर दूर चेर्नोबिल कस्बा था, जहां पर करीब 12 हजार लोग रहते थे. बाकी का हिस्सा खेती-बाड़ी के लिए उपयोग होता था. या फिर जंगल था.

सांकेतिक फोटो (Getty Images)

हादसे के दिन क्या हुआ? 
यूएन साइंटिफिक कमेटी ऑन इफेक्ट ऑफ अटॉमिक रेडिएशन के अनुसार 26 अप्रैल 1986 को चेर्नोबिल परमाणु संयंत्र रूटीन मेंटेनेंस जांच चल रही थी. तभी विस्फोट हुआ. हुआ ये कि संयंत्र के संचालक किसी इलेक्ट्रिकल सिस्टम की जांच करना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने जरूरी कंट्रोल सिस्टम्स को बंद कर दिया था, जो सुरक्षा के नियमों के खिलाफ है. इसकी वजह से रिएक्टर खतरनाक स्तर पर असंतुलित हो गए. एक रिएक्टर बंद किया गया था ताकि सुरक्षा संबंधी तकनीकों की जांच की जा सके.

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इसी दौरान विस्फोट हो गया
चारों तरफ रेडियोएक्टिव पदार्थ, यंत्रों के टुकड़े गिरे. प्लांट और उसके आसपास की इमारतों में आग लग गई. जहरीली गैसें और धूल निकलने लगी और लोग रेडियोएक्टिव विकिरणों और तत्वों के संपर्क में आने लगे. आनन-फानन लगभग 30 लोगों की मौत हो गई. सिलसिला चलता रहा, लेकिन असल संख्या कभी पता नहीं लग सकी. 

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