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एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में अपने पांव क्यों पसार रहा है NATO? क्या है रणनीति और भारत के लिए क्या हैं इसके मायने

भारत हमेशा से एक स्वतंत्र और मुक्त हिंद-प्रशांत क्षेत्र की वकालत करता रहा है. इसके लिए जरूरी है कि भारत के मित्र मुल्क इस क्षेत्र में मिलकर काम करें. लिथुआनिया में शुरू हुए नाटो (NATO) शिखर सम्मेलन में विशेष रुप से आमंत्रित एशिया-प्रशांत के चार नेताओं की मौजूदगी चर्चा का विषय है. आइए जानते हैं भारत को इससे कैसे फायदा होगा.

नरेंद्र मोदी/शी जिनपिंग/जो बाइडेन (File Photo) नरेंद्र मोदी/शी जिनपिंग/जो बाइडेन (File Photo)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 12 जुलाई 2023,
  • अपडेटेड 2:59 PM IST

यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद ग्लोबल हालात बदले हैं. अब दुनिया के दिग्गज संगठनों की बैठक और उससे जुड़ी हलचलों पर रणनीतिकारों और टिप्पणीकारों की पैनी नजर रहती है. मंगलवार को लिथुआनिया में शुरू हुए नाटो (NATO) शिखर सम्मेलन भी कूटनीतिक विशेषज्ञों और स्ट्रैटेजिक एक्सपर्ट की निगाहों से बचा नहीं है. 

इस सम्मेलन में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा रूस के खिलाफ यूक्रेन को नाटो द्वारा सैन्य समर्थन देना है. इसके अलावा यूक्रेन को नाटो की मेंबरशिप देने पर भी चर्चा हो रही है. लेकिन इससे इतर नाटो सम्मेलन के एक ऐसे मुद्दे ने विशेषज्ञों का ध्यान खींचा है जिसका हित भारत और एशिया-पैसिफिक से जुड़ा है.

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इस बार के एशिया पैसिफिक सम्मेलन में विशेष रुप से आमंत्रित एशिया-प्रशांत के चार नेताओं की मौजूदगी चर्चा का विषय है. ये नेता हैं- ऑस्ट्रेलियाई प्रधान मंत्री एंथनी अल्बनीस, न्यूजीलैंड के प्रधान मंत्री क्रिस हिपकिंस, जापानी प्रधान मंत्री फुमियो किशिदा और दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति यूं सुक येओल.

ये लगातार दूसरी बार है कि ये चार नेता इस सम्मेलन में मौजूद हैं. पिछले साल मैड्रिड में भी इन चार नेताओं ने अपनी मौजूदगी से लोगों का ध्यान खींचा था. हालांकि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में नाटो का आउटरीच प्रयास अभी भी प्रारंभिक चरण में हैं, लेकिन नाटो की इन कोशिशों की दुनिया के कुछ नेताओं ने तीखी आलोचना की है. नाटो की इस कोशिश का चीन ने सबसे ज्यादा विरोध किया है और कहा है कि बीजिंग के अधिकारों के लिए खतरा पैदा करने वाली किसी भी कार्रवाई का कड़ा जवाब दिया जाएगा.

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वहीं पूर्व ऑस्ट्रेलियाई प्रधान मंत्री पॉल कीटिंग ने एशिया पैसिफिक में पैर पसारने की नाटो की कोशिशों के लिए NATO के महासचिव स्टोलटेनबर्ग को "सर्वोच्च मूर्ख" कहा था. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन कथित तौर पर टोक्यो में प्रस्तावित नाटो कार्यालय खोलने के विरोध में हैं. 

अभी नाटो का पूरा फोकस यूक्रेन पर है, बावजूद इसके इसका एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में रूचि लेना कुछ सवाल खड़े करता है. ये प्रश्न ये है कि ये चार नेता यूरोपीय और उत्तरी अमेरिकी देशों के शिखर सम्मेलन में नियमित रूप से क्यों शामिल हो रहे हैं? बता दें कि ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान और दक्षिण कोरिया ये चारों देश एशिया प्रशांत के देश हैं. 

सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि एशिया पैसिफिक कहते किसे हैं. नाम के अनुसार ही हिंद महासागर (Indian Ocean) और प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) के कुछ भागों को मिलाकर जो समुद्र का एक हिस्सा बनता है, उसे हिंद प्रशांत क्षेत्र (Indo-Pacific Area) कहते हैं. सबसे पहली बात यह है कि ये चारों देश यूक्रेन पर रूसी हमले का विरोध करने वाले प्रमुख देशों में शामिल रहे हैं. इसलिए नाटो में इनकी मौजूदगी जहां यूक्रेन पर चर्चा हो रही है, बेहद लाजिमी है. 

बता दें कि नाटो ने पिछले साल अपने एक अहम रणनीतिक दस्तावेज में चीन की महात्वाकांक्षा को NATO देशों की सुरक्षा के लिए सबसे ज्यादा चुनौतीपुर्ण बताया था. इस दस्तावेज में चीन और रूस के बीच की बढ़ती नजदीकियों की भी चर्चा की गई थी जिसे नाटो कथित तौर पर अंतरराष्ट्रीय वर्ल्ड ऑर्डर के लिए खतरा मानता है. 

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यही वजह है कि नाटो इस क्षेत्र में अपनी साझेदारियां मजबूत कर रहा है और आवश्यकतानुसार नई दोस्ती बना भी रहा है. और ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान और दक्षिण कोरिया एशिया-पैसिफिक के ऐसे देश हैं जो नाटो के साथ अपने संबंधों को मजबूत करना चाहते हैं. इन चार देशों में जापान और ऑस्ट्रेलिया NATO के साथ अपने संबंधों को नई ऊंचाई तक ले जाने के लिए ज्यादा उत्सुक दिखते हैं. जापान की मीडिया के अनुसार इसके लिए इन दोनों देशों ने नाटो के साथ ITPP (Individually Tailored Partnership Program) का खाका तैयार किया है. 

न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया भी गठबंधन के साथ अपने समझौतों को अंतिम रूप देने के लिए काम कर रहे हैं.

ये चारों देश नाटो के साथ समुद्री सुरक्षा, साइबर सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन, अंतरिक्ष और एआई पर काम करेंगे. 

भारत के लिए क्या है मायने?

भारत इंडो-पैसिफिक क्षेत्र का अहम खिलाड़ी है. भारत पूर्वी एशियाई देशों के साथ व्यापार, आर्थिक विकास तथा समुद्री सुरक्षा में भागीदारी के लिये इच्छुक है. महाशक्ति के तौर पर उभर रहा भारत इस क्षेत्र की अवसरों का इस्तेमाल करते हुए चीन विस्तारवाद का डटकर मुकाबला करना चाहता है और चीन के प्रभाव को काउंटर बैलेंस करने के लिए अमेरिका की मदद चाहता है. लेकिन भारत कतई नहीं चाहता है कि अमेरिका अपने एजेंडे को बढ़ाने के लिए नई दिल्ली का इस्तेमाल करे. इसलिए इस क्षेत्र में भारत को फूंक-फूंक कर और कूटनीतिक प्रभावों को तोल तोल कर अपने कदम आगे बढ़ाने पड़ रहे हैं. 

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भारत इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व कायम करने के साथ ही शांति, स्थिरता तथा मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने का पक्षधर है. लेकिन इस क्षेत्र में चीन की मौजूदगी भारत के लिए चिंता की बात है. चीन स्ट्रिंग ऑफ पर्ल के जरिए भारत को घेरने की रणनीति पर काम कर रहा है और हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है. 

ऐसी स्थिति में जब नाटो ने एशिया पैसिफिक के चार देशों को अपने शिखर सम्मेलन में आमंत्रित किया है तो भारत इस घटनाक्रम को सधी नजरों से देख रहा है. बता दें कि अमेरिका इस बात के संकेत देता रहा है कि NATO और भारत के बीच संबंध और भी प्रगाढ़ हो सकते हैं. इसी साल अप्रैल में NATO में अमेरिकी स्थायी प्रतिनिधि जूलियन स्मिथ ने कहा था कि अगर भारत सरकार मांग करती है तो नाटो का दरवाजा भारत के साथ अधिक जुड़ाव के लिए खुला है. लेकिन NATO के साथ भारत का किसी भी तरह का सुरक्षा सहयोग रूस के साथ भारत के संबंधों पर गहरा असर डाल सकता है.

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