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PM कोई भी हो पाकिस्तान में सेना ही 'सरकार'... फौजी बूटों से कुचलता रहा है लोकतंत्र

पाकिस्तान के बारे में कहा जाता है कि वहां सेना और सत्ता एक सिक्के के दो पहलू हैं. यही वजह है कि सेना में सत्ता और सत्ता में सेना की झलक दिख ही जाती है. पाकिस्तान में ऐसा कोई चुनाव नहीं हुआ, जो सेना के साए में ना हुआ हो. 

पाकिस्तान सरकार में सेना की पैठ पाकिस्तान सरकार में सेना की पैठ
Ritu Tomar
  • नई दिल्ली,
  • 13 फरवरी 2024,
  • अपडेटेड 5:04 PM IST

पाकिस्तान की गाड़ी हमेशा की तरह अस्थिरता के गियर में फंसी हुई है. सेना के साए में आठ फरवरी को चुनाव हुए. अब नतीजे सबके सामने हैं. किसी भी पार्टी के पास बहुमत नहीं है. इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान-तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) पर लगे बैन के बाद पार्टी समर्थित निर्दलीय उम्मीदवारों ने सबसे ज्यादा सीटें जीतकर इतिहास रचा है. पहली बार ऐसा हुआ है कि निर्दलीय उम्मीदवार इतनी बड़ी तादाद में जीते हैं. किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने के बावजूद इमरान की पीटीआई और नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) दोनों पार्टियों ने सरकार बनाने का दावा किया है.

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इस बार सत्ता की लड़ाई दो पूर्व प्रधानमंत्रियों के बीच है. कभी सेना के 'फेवरेट बॉय' रहे इमरान खान अब उनकी आंखों की किरकिरी बन चुके हैं. इमरान की पार्टी पर बैन लगाकर उन्हें चुनाव लड़ने से रोका गया. यही वजह थी कि उनके पार्टी के उम्मीदवारों को निर्दलीयों के तौर पर चुनावी मैदान में उतरने को मजबूर होना पड़ा. 

पाकिस्तानी सेना ने इस बार नवाज शरीफ पर दांव लगाया था. इसका लेआउट तैयार होते ही पिछले साल आनन-फानन में नवाज शरीफ को लंदन से पाकिस्तान वापस बुलाया गया. उन पर लगे भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों को रद्द कर दिया गया और उन पर लगी चुनावी रोक भी हटाई गई.

इस तरह से पाकिस्तान की सेना ही तय करती है कि सत्ता की कुर्सी पर किसे बैठाना है और किसे बेदखल करना है? ऐसे में सोचना लाजिमी है कि लोकतांत्रिक पाकिस्तान में सेना के पास इतनी ताकत कहां से आई? पाकिस्तानी सेना का कद इतना कैसे बढ़ा कि उसने सियासत तक में पैठ जमा ली? और सबसे जरूरी बात कि 1947 में अस्तित्व में आई पाकिस्तान की सेना भारत की सेना से इतनी अलग कैसे है कि वह राजनीति में इतनी गहराई तक रच-बस गई है?

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पाकिस्तान के बारे में कहा जाता है कि वहां सेना और सत्ता एक सिक्के के दो पहलू हैं. यही वजह है कि सेना में सत्ता और सत्ता में सेना की झलक दिख ही जाती है. पाकिस्तान में ऐसा कोई चुनाव नहीं हुआ, जो सेना के साए में ना हुआ हो. 

भारत और पाकिस्तान की सेनाओं में क्यों हैं अंतर?

ब्रिटिश हुकूमत से भारत को आजादी मिलने के बाद दुनिया के नक्शे पर पाकिस्तान उभरा. धर्मनिरपेक्ष भारत से बिल्कुल जुदा पाकिस्तान का वजूद ही धर्म था. ये वो दौर था, जब दोनों देशों की सेनाओं का विस्तार भी हो रहा था. अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और लेखक स्टीवन विल्किनसन ने अपनी किताब 'आर्मी एंड नेशन: द मिलिट्री एंड इंडियन डेमोक्रेसी सिंस इंडिपेंडेंस' में कहा है कि आजादी के बाद जब पहली बार भारत में अंतरिम सरकार बनी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय सेना की बागडोर लोकतांत्रिक सरकार के नियंत्रण में सौंप दी थी. इस दिशा में सबसे पहले सेना में कमांडर इन चीफ का पद खत्म किया गया. यह पद अंग्रेजों के शासनकाल से चला आ रहा था. लेकिन पूर्व पीएम नेहरू ने इसे अनावश्यक बताते हुए इसे खत्म कर दिया. 

बता दें कि सेना में कमांडर इन चीफ के पास एकमुश्त ताकत होती है. पाकिस्तान की सेना में अभी भी कमांडर इन चीफ का पद कायम है, जिसे सत्ता का केंद्र समझा जाता है. 

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विल्किनसन अपनी किताब में आगे लिखते हैं कि नेहरू ने उस समय कहा थ कि फौज के आधुनिकीकरण के लिए थल सेना,  नौसेना और वायुसेना तीनों सेनाओं की अहमियत बराबर की होनी चाहिए. इस वजह से तीनों सेनाओं के अलग-अलग चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ नियुक्त किए गए. इतना ही नहीं किसी भी तरह की तख्तापलट की संभावना ना हो इसलिए इन तीनों सेनाओं को रक्षामंत्री के अधीन रखा गया, जो चुनी हुई सरकार के कैबिनेट के तहत काम करता है.

अयूब खान.

भारत में तख्तापलट की नौबत क्यों नहीं आई?

पाकिस्तान में लोकतंत्र शुरुआत से ही कमजोर था, जिसकी वजह सेना थी. पाकिस्तान के इतिहास में अब तक तीन बार तख्तापलट हुआ है. भारत में आजादी के बाद जिस समय लोकतंत्र का विस्तार हो रहा था, उस समय 1958 आते-आते पाकिस्तान में पहला तख्तापलट हो चुका था. पाकिस्तान में पहले लोकतांत्रिक चुनाव 1970 में हुए जबकि भारत में 1952 में ही पहला चुनाव हो चुका था. 

दरअसल सेना को ऐसी स्थिति में तख्तापलट का मौका मिलता है, जब देश में भारी अस्थिरता हो, राजनीतिक विभाजन चरम पर हो और लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर हों. भारत में ऐसी स्थिति कभी पैदा ही नहीं हुई. यहां तक कि इमरजेंसी के दौरान भी सेना राजनीति से अलग रही.

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‘सेना में राजनीति जहर की तरह है’

1946 में भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ क्लाउड ऑचिनलेक ने नेहरू से कहा था कि भारतीय सेना को पता है कि उनका काम सिर्फ भारत सरकार की नीतियों के तहत काम करना है. वहीं, आजाद भारत के पहले कमांडर इन चीफ जनरल केएम करियप्पा ने फौज को लिखी चिट्ठी में कहा था कि सेना में राजनीति जहर की तरह है. इससे दूर ही रहना चाहिए. 

सत्ता पर कैसे हावी हुई सेना?

साल 1953 में लाहौर में अहमदिया मुस्लिमों के विरोध में दंगे हुए थे. पाकिस्तान की सरकार इन दंगों को कंट्रोल नहीं कर पाई, जिस वजह से कानून एवं व्यवस्था को बहाल करने के लिए सेना को मोर्चा संभालना पड़ा और इस तरह पाकिस्तान में पहली बार मार्शल लॉ लगा. 

हालांकि, ऐसा करने पर देश में कानून एवं व्यवस्था तो बहाल हो गई लेकिन सेना तो सत्ता का स्वाद चख चुकी थी. कहा जाता है कि उस समय सेना ने सड़कें बनाने से लेकर कम्युनिकेशन नेटवर्क मजबूत करने तक कई तरह के काम कर आवाम का भरोसा जीत लिया था. 

पाकिस्तान की आवाम अब सरकार से ज्यादा सेना से उम्मीदें लगानी लगी थी. जिस वजह से 1958 में दूसरी बार पड़ोसी मुल्क में तख्तापलट हुआ और देशभर में मार्शल लॉ लगा दिया गया. मार्शल लॉ लगने के बाद पाकिस्तान का एक बड़ा वर्ग काफी खुश हुआ और कहा जाने लगा ‘माशाअल्लाह... अब तो पाकिस्तान में माशाअल्ला (मार्शल लॉ) हो गया...’  ये वही दौर था, जब पाकिस्तानी सत्ता पर सेना हावी हो गई थी. तख्तापलट का ये दौर यहीं नहीं रुका, इसके बाद 1977 और 1999 में भी देश में सेना ने सरकार पलट दी. 

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पाकिस्तानी सेना के पूर्व जनरल जिया उल-हक. (फाइल फोटो)

पाकिस्तानी आवाम का सुप्रीम कोर्ट से ज्यादा सेना पर भरोसा

यही हालात आज भी जस के तस बने हुए हैं. हाल ही में वॉयस ऑफ अमेरिका के एक सर्वे में सामने आया था कि पाकिस्तान के लोग सुप्रीम कोर्ट से भी ज्यादा सेना पर भरोसा करते हैं. सर्वे में 74 फीसदी रेटिंग के साथ सेना को सबसे भरोसेमंद संस्थान बताया था. ये सर्वे इसी साल जनवरी में हुआ था. इस सर्वे में शामिल लोगों ने राजनीतिक दलों को 50 फीसदी रेटिंग दी थी.

सेना ने तीन बार किया तख्तापलट 

पाकिस्तान के 75 साल के इतिहास में कोई भी प्रधानमंत्री 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका है. पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान 4 साल 2 महीने तक पद पर रहे थे. लियाकत अभी तक इकलौते प्रधानमंत्री हैं, जो सबसे लंबे समय तक इस पद पर रहे. 16 अक्टूबर 1951 को रावलपिंडी में उनकी हत्या कर दी गई थी. पाकिस्तान की सियासत में आर्मी का बड़ा रोल रहा है. वहां करीब 35 साल तक सेना ने ही राज किया है. तीन बार सेना चुनी हुई सरकार का तख्तापलट कर चुकी है.

- पहली बारः पाकिस्तान में पहली बार फिरोज खान नून की सरकार का तख्तापलट हुआ. फिरोज खान 16 दिसंबर 1957 से 7 अक्टूबर 1958 तक प्रधानमंत्री थे. उस समय के आर्मी चीफ अयूब खान ने उनकी सरकार का तख्तापलट कर दिया और मार्शल लॉ लागू कर दिया. 

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- दूसरी बारः 1971 की जंग के बाद 1973 में पाकिस्तान का नया संविधान बना. 14 अगस्त को जुल्फिकार अली भुट्टो प्रधानमंत्री बने, लेकिन 1977 में आर्मी ने उनका तख्तापलट कर दिया. जनरल जिया उल-हक ने भुट्टो को जेल में डाल दिया. हत्या के एक केस में भुट्टो को फांसी की सजा सुनाई गई. 4 अप्रैल 1979 को भुट्टो को फांसी दे दी गई. 

- तीसरी बारः 12 अक्टूबर 1999 को पाकिस्तानी सेना के तब के चीफ जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ की सरकार का तख्तापलट कर दिया. नवाज शरीफ को जेल में डाल दिया गया. मुशर्रफ पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन गए. इस पर मुशर्रफ अगस्त 2008 तक रहे. बाद में मुशर्रफ को देशद्रोह के मामले में दोषी पाया गया और फांसी की सजा सुनाई गई. पिछले साल मुशर्रफ का निधन हो चुका है.

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